हिंदी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन तथा नामकरण

हिंदी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन तथा नामकरण पर समुचित प्रकाश डालिए

हिंदी साहित्य के इतिहास के विविध युगो के नामकरण की सार्थकता प्रतिपादित कीजिए

 

  हिंदी साहित्य की धारा का श्रीगणेश कब और कैसे हुआ? यदि यह जानने की उत्सुकता को लेकर हम चिंतन करें तो हमें लगभग आज से से 1200 वर्ष के इतिहास को जानना होगा 1200 वर्षों की इस साहित्य साधना का वर्गीकरण अध्ययन के लिए लाभकारी है आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर डॉ हजारी प्रसाद  द्विवेदी तक के विद्वानों ने हिंदी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन, वर्गीकरण तथा नामकरण पर चिंतन किया है इस वर्गीकरण का आधार  तत्कालीन हिंदी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियां, विषय, प्रमुख कवि तथा उनकी रचनाएं आदि हैं

 

 संसार के अन्य देशों के साहित्य की भांति हिंदी साहित्य का आरंभ में मुख्यतः कविता के रूप में ही उपलब्ध होता है कुछ विद्वानों ने पुष्य कवि को हिंदी का आदि कवि माना है, कुछ ने सरहपाद को और कुछ ने चंद्रवरदाई को वस्तुत: हिंदी का वर्तमान रूप प्राकृत और अपभ्रंश के बहुत पीछे की रचनाओं में विकसित होता हुआ दिखाई देता है अतः सरहपाद की कृति ही हिंदी की पूर्ववर्ती रचना है

 

 हिंदी साहित्य में इतिहास लेखन परंपरा

 

  सर्वप्रथम सन 1839 में फ्रेंच विद्वान गार्सा-द-तासी ने इस्त्वार ल लितरेत्यूर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी" लिखा तत्पश्चात सन 1877 में शिव सिंह सेंगर ने शिवसिंह सरोज नामक ग्रंथ लिखा 1889 में ग्रियर्सन ने मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान लिखा इस ग्रंथ में काल विभाजन और प्रवृत्तियों का निर्देश है पंडित महेश दत्त, ग्रीव्स के इतिहास ग्रियर्सन से मिलते जुलते हैं सन 1913 में मिश्र बंधुओं ने मिश्र बंधु विनोद में 5000 कवियों का विवरण प्रस्तुत किया है इसके बाद अयोध्या सिंह उपाध्याय ने हिंदी साहित्य का विकास और सूर्यकांत शास्त्री ने हिंदी का विवेचनात्मक इतिहास लिखा लेकिन व्यवस्थित और वैज्ञानिक दृष्टि से आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सन 1929 में हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा इसमें साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर काल विभाजन कालों का नामकरण तथा विभिन्न कवियों और उनकी साहित्यिक प्रवृत्तियों का विस्तृत विवेचन किया गया है इसके बाद डॉ रामकुमार वर्मा, डॉक्टर गणपति चंद्र गुप्त, डॉक्टर लक्ष्मीसागर, डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ नगेंद्र आदि विद्वानों ने भी हिंदी साहित्य के काल विभाजन पर प्रकाश डाला है परंतु आचार्य शुक्ल का काल विभाजन ही थोड़े बहुत परिवर्तन के आधार पर सभी को मान्य है 

 

संक्षेप में हिंदी साहित्य के इतिहास को चार युगों में विभक्त किया जा सकता है

 

 (1) आदिकाल (वीरगाथा काल-संवत 1050-1375)

 (2) पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल काल-संवत 1375 -1700)

 (3) उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल-संवत 1700-1900)

 (4)आधुनिक काल (गद्यकाल-संवत 1900-आज तक) 

 

  उपरोक्त वर्गीकरण आचार्य शुक्ल का है इस वर्गीकरण में आदिकाल को छोड़कर बाकी सभी कालों के बारे में सभी विद्वानों ने सहमति प्रकट की है

 

 (1)आदिकाल (संवत 1050 से 1375 तक)

 

 आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य का आदिकाल महाराजा भोज से लेकर हमीर देव के समय के पीछे तक माना है और संवत 1050 से लेकर संवत 1375 तक इसका काल निर्धारण किया है उन्होंने इस काल को वीरगाथा काल की संज्ञा दी है परंतु शुक्ल जी ने इन रचनाओं की प्रवृत्तियों के आधार पर यह नामकरण किया है वे रचनाएं अप्रमाणिक हैं अथवा बहुत बाद की नोटिस मात्र हैं परंतु वे सिद्ध, नाथ, जैन और लौकिक काव्य धाराओं को धार्मिक कहकर साहित्य में स्थान ही नहीं देते, जो कि अनुचित है डॉ रामकुमार वर्मा ने आदिकाल  का प्रारंभ संवत 750 से संवत 1375 तक माना है और नाम दिया है- संधिकाल (संवत 750 से 1000) और चारण काल (संवत 1000 से 1375) डॉक्टर वर्मा ने दो भाषाओं और दो धर्मों में संधि काल की बात कही है परंतु यह कुछ सीमा तक ठीक है परंतु चारण काल नाम करण में उन्होंने भी अप्रमाणिक कृतियों को आधार बनाया है

 

राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नाम रखा हैसिद्ध-सामंत युग इस नामकरण के अनुसार उनका कहना है कि उस काल में समाज पर सिद्ध और राजनीति पर सामंतों का अधिकार था परंतु सिद्ध शब्द नाथों और जैनो को नहीं समेट पाता तथा सामंत शब्द वीरगाथात्मक साहित्य को नहीं  समेटता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका नाम बीजवपन काल दिया जो कि सर्वथा असंगत है इस काल के साहित्य को अविकसित कहना उचित नहीं क्योंकि इसमें पूर्व कालीन सभी कवियों में रूढ़ियों और प्रवृतियां देखी जा सकती हैं इस प्रकार से विश्वनाथप्रसाद द्वारा प्रदत नाम वीरकाल भी सही नहीं है यह शुक्ल जी के नामकरण से मेल खाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य का आरंभ 1000 ईस्वी से माना है और इसका नामकरण किया किया है-आदिकाल  

 उपरोक्त विवेचन के आधार पर इसे आदिकाल कहना ही ठीक होगा इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह काल राजनीतिक अशांति का काल था जिसके परिणाम स्वरुप वीरगाथात्मक ग्रंथ लिखे गए साथ ही सिद्ध, नाथ, जैन और अलौकिक काव्य धाराओं का महत्व भी है अतः इस काल को आदिकाल नाम देना तर्कसंगत है

 

 (2) पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल संवत 1375 से 1700 तक)

 

 प्रवृत्ति के आधार पर पूर्व मध्यकाल को शुक्ल जी ने भक्तिकाल कहा है इस संबंध में सभी इतिहासकार पूर्णता एकमत हैं इस काल में मुख्यतः भक्ति भावनाओं से ओतप्रोत साहित्य ही लिखा गया भक्तिकाल हिंदी साहित्य का गौरव है शुक्ल जी ने इसे 4 शाखाओं में विभक्त किया है:-

 

 (1) ज्ञानमार्गी शाखा

 (2) प्रेममार्गी शाखा (निर्गुण साहित्य)

 (3) रामभक्ति शाखा

 (4) कृष्णभक्ति शाखा (सगुण साहित्य)

 

 इस युग के भक्तों की कविता दो भागों में बट जाती हैं:-

 

(1) संतो और सूफियों की कविता

 (2) राम और कृष्ण के उपासको की कविता

 

संत और सूफी निराकार के उपासक थे तथा राम और कृष्ण भक्त कवि साकार भगवान की आराधना करने वाले थे कुछ लोगों ने इसेधार्मिक कालभी कहा है जो उचित नहीं जान पड़ता संतों में कबीर, नानक, रैदास आदि कवि आते हैं सूफियों में जायसी  के अतिरिक्त, कुतुबन, मंझं, उस्मान आदि नाम गिनाए जा सकते हैं राम काव्य के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास है तथा कृष्ण काव्य के सूरदास के अतिरिक्त नंददास, परमानंद दास, कुंभन दास, कृष्णदास, मीरा, रसखान आदि के नाम समाहित किए जा सकते हैं

 

 (3) मध्यकाल (रीतिकाल संवत 1700 से 1900 तक)

 

 आचार्य शुक्ल ने रीति ग्रंथों की अधिकता के कारण इस काल को रीतिकाल कहा है पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इस नामकरण से सहमत नहीं है उन्होंने इस काल कोश्रृंगार कालका नाम दिया है इस काल के कवियों को उन्होंने तीन श्रेणियों में बांटा है:-

 (1) रीतिबद्ध ( केशव, देव, चिंतामणि, मतिराम आदि कवि हैं।)

 (2) रीतिमुक्त (घनानंद, ठाकुर, बोधा तथा आलम आदि कवि हैं।)

 (3) रीतिसिद्ध (महाकवि बिहारी) 

 रीतिसिद्ध कवियों में केवल बिहारी का नाम उल्लेखनीय हैं क्योंकि उन्होंने रीतिबद्ध तथा रीतिमुक्त दोनों प्रवृत्तियों को समन्वित करने का प्रयत्न किया है मिश्र जी ने इस काल का नाम श्रृंगार काल इस युग की प्रमुख प्रवृत्ति के आधार पर रखा था

 

 इस युग के साहित्य में अलंकारों की अधिकता के कारण इसेअलंकृत कालका नाम दिया गया परंतु अलंकृत काल नाम से इस युग की प्रवृत्तियों का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं होता प्रवृत्ति के आधार पर बांधे गए इस काल के साहित्य में सब जगह कलापक्ष ही दिखाई पड़ता है, हृदय-पक्ष या अनुभूति-पक्ष दब सा गया है डॉ रमाशंकर शुक्ल ने कवियों की कला-प्रियता को ध्यान में रखते हुए इस काल को  कलाकाल नाम दिया है

(4) आधुनिक काल (गद्यकाल संवत 1900 से आज तक)

 

 गद्य की प्रधानता होने के कारण शुक्ल जी ने इस काल को आधुनिक काल नाम दिया है आधुनिक काल के साहित्य में विभिन्न प्रवृतियां दिखाई देती हैं उन प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए इस काल को 5 भागों में बांटा जा सकता है:- 

(1)भारतेंदु युग 

(2)द्विवेदी युग 

(3)छायावादी युग 

(4)प्रगतिवादी युग 

(5)प्रयोगवादी युग

 

 इस काल में कविताएं भी काफी मात्रा में लिखी गई परंतु  गद्य साहित्य के विभिन्न अंगों का जैसा विकास इस युग में हुआ है वैसा कविता का नहीं हो पाया अतः इस काल का नाम गद्यकाल उचित ही है परंतु प्रवृत्तियों और रुचिओं की दृष्टि से इस काल की प्रगति इतनी विशाल तथा बहुमुखी है कि उसे किसी वाद विशेष अथवा प्रवृत्ति विशेष से बांध देना उचित नहीं है वैसे भी काव्य तथा गद्य साहित्य रचना की प्रवृत्ति साथ-साथ विकसित हुई है अतः इसे आधुनिक-काल कहना ही अधिक तर्कसंगत तथा उचित प्रतीत होता है

  संक्षेप में हिंदी साहित्य के काल विभाजन के संदर्भ में आदिकाल को छोड़कर सभी विद्वान शुक्ल जी के वर्गीकरण से सहमत हैं