प्रयोगवाद क्या है 

प्रयोगवाद क्या है ?

प्रयोग शब्द का सामान्य अर्थ है, 'नई दिशा में अन्वेषण का प्रयास'। प्रयोगवाद नाम तारसप्तक में अज्ञेय के इस वक्तव्य से लिया गया-"प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किए हैं। किंतु कवि क्रमश: अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी छुआ नहीं गया था जिनको अभेद्य मान लिया गया है।"

सन् 1943 या इससे भी पांच-छ: वर्ष पूर्व हिंदी कविता में प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता की पग-ध्वनि सुनाई देने लगी थी। कुछ लोगों का मानना है कि 1939 में नरोत्तम नागर के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका 'उच्छृंखल' में इस प्रकार की कविताएं छपने लगी थी जिसमें 'अस्वीकार','आत्यंतिक विच्छेद' और व्यापक 'मूर्ति-भंजन' का स्वर मुखर था तो कुछ लोग निराला की 'नये पत्ते', 'बेला'  और 'कुकुरमुत्ता' में इस नवीन काव्य-धारा के लक्षण देखते हैं। लेकिन 1943 में अज्ञेय के संपादन में 'तार-सप्तक' के प्रकाशन से प्रयोगवादी कविता का आकार स्पष्ट होने लगा और दूसरे तार-सप्तक के प्रकाशन वर्ष 1951 तक यह स्पष्ट हो गया। 

प्रयोगवाद का जन्म 'छायावाद' और 'प्रगतिवाद' की रुढ़ियों की प्रतिक्रिया में हुआ। छायावादी कविता में वैयक्तिकता तो थी,किंतु उस वैयक्तिकता में उदात्त भावना थी। इसके विपरीत्त प्रगतिवाद में यथार्थ का चित्रण तो था,किंतु उसका प्रतिपाद्य विषय पूर्णत: सामाजिक समस्याओं पर आधारित था और उसमें राजनीति की बू थी। अत: इन दोनों की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रयोगवाद का उद्भव हुआ, जो 'घोर अहंमवादी','वैयक्तिकता' एवं 'नग्न-यथार्थवाद' को लेकर चला।श्री लक्ष्मी कांत वर्मा के शब्दों में,"प्रथम तो छायावाद ने अपने शब्दाडम्बर में बहुत से शब्दों और बिम्बों के गतिशील तत्त्वों को नष्ट कर दिया था। दूसरे, प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर  विभिन्न भाव-स्तरों एवं शब्द-संस्कार को अभिधात्मक बना दिया था।ऐसी स्थिति में नए भाव-बोध को व्यक्त करने के लिए न तो शब्दों में सामर्थ्य था और न परम्परा से मिली हुई शैली में। परिणामस्वरूप उन कवियों को  जो इनसे पृथक थे,सर्वथा नया स्वर और नये माध्यमों का प्रयोग करना पड़ा। ऐसा इसलिए और भी करना पड़ा,क्योंकि भाव-स्तर की नई अनुभूतियां विषय और संदर्भ में इन दोनों से सर्वथा भिन्न थी।

प्रयोगवाद और तार सप्तक : प्रयोगवादी कवियों का नए के प्रति यह आग्रह ही इन्हें प्रयोगवादी बनाता है।  प्रयोगवाद को आकार देने में जहां 'सप्तकों' की भूमिका रही वहीं अनेक पत्रिकाओं ने भी इसकी राह को सरल बनाया। तार-सप्तकों की संख्या चार है। पहला सप्तक 1943, दूसरा 1951, तीसरा 1959 और चौथा सप्तक 1979 में प्रकाशित हुआ। पत्रिकाओं में' प्रतीक', 'दृष्टिकोण', 'कल्पना', 'अजंता', 'राष्ट्रवाणी', 'धर्मयुग', 'नई कविता', 'निकष', 'ज्ञानोदय', 'कृति', 'लहर', 'निष्ठा', 'शताब्दी', 'ज्योत्स्ना', 'आजकल', 'कल्पना आदि हैं।

प्रयोगवाद को प्रतीकों की प्रधानता और नवीन प्रतीकों को अपनाने के कारण 'प्रतीकवाद' नाम से भी अभिहित किया गया। प्रयोगवादी केवल रूप-विधान या तकनीक पर ही ध्यान नहीं देते; उसमें अन्य तत्व भी मौजूद हैं।

 प्रयोगवाद और नई कविता : प्रयोगवाद और नई कविता की प्रवृत्तियों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। नई कविता प्रयोगवाद की नींव पर ही खड़ी है। फिर भी कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता,ईमानदार अनुभूति का आग्रह,सामाजिक एवं व्यक्ति पक्ष का संश्लेष,रोमांटिक भावबोध से हटकर नवीन आधुनिकता से संपन्न भाव-बोध एक नए शिल्प को गढ़ता है। डॉ जगदीश चंद्र गुप्त  और श्री रामस्वरूप चतुर्वेदी ने 1954 में' नई कविता' नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया। इसने प्रयोगवादी कविता को नई कविता का नाम दिया। कुछ आलोचक नई कविता और प्रयोगवाद में कोई अंतर नहीं मानते जबकि कुछ का मानना है कि दोनों को एक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। कुछ का मानना है कि नई कविता प्रयोगवाद का ही विकसित रूप है। प्रयोगवादी कविता जब काव्य जगत में स्वीकृत हो गई तो उसे नई कविता के नाम से अभिहित किया गया।