(1)

नंदराय के नवनिधि आई।
माथे मुकुट श्रवन मणि कुंडल पीत बसन अरु चारि भुजाई।।
बाजत बीन मृदंग शंख धुनि घसि अरगजा अंग चढाई।
दधि पीवत और चंदन छिरकत रपटि परत हैं लैत उठाई।।
अच्छत दूब लियै चढ बडे द्वारन बंदनमाल बंधाई।
सूरदास सब मिले परस्पर दान देत नंद मन न अघाई।1।

(2)

नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री।
देखौं वदन कमल नीकैं करि, ता पाछै तू कनियां लै री।
अति कोमल कर-चरन-सरोरुह-अधर-दसन-नासा सो‍है री।
लटकन सीस, कंठ मनि भ्राजत, मनमथ कोटि वारनैं गै री।
बासर-निसा बिचारति हौं सखि, यह सुख कबहुँ न पायौ मैं री।
निगमनि-धन सनकादिक-सरबस बड़े भाग्य पायौ है तैं री।
जाकौ रूप जगत के लोचन, कोटि चंद्र-रवि लाजत भै री।
सूरदास बलि जाइ जसोदा, गोपिनि-प्रान पूतना-‍बैरी।।2।
 

(3)

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रति मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ॥
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति |3|

 

(4)

कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी |4|
 

(5)

सोभा-सिंधु न अंत रही री ।
नंद-भवन भरि पूरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री ॥
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही री ।
कहँ लगि कहौं बनाइ बहुत बिधि,कहत न मुख सहसहुँ निबही री ॥
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं, उपजी ऐसी सबनि कही री ।
सूरस्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री ॥5|


(6)

स्यामहृदय जलसुत की माला, अतिहि अनुपम छाजै री ।

मनहुँ बलाकपाँति नवधन पर, यह उपमा कछु भ्राजै री ।।

पीत, हरित, सित, अरुन मालवन, राजति हृदय बिसाल री ।

मानहुँ इंद्रधनुष नभमंडल, प्रगट भयौ तिहिं काल री ।।

भृगु-पद-चिह्न उरस्थल प्रगटे, कौस्तुभ मनि ढिग दरसत री ।

बैठे मानौ पट बिधु इक संग, अर्द्ध निसा मिलि हरषत री ।।

भुजा बिसाल स्याम सुंदर की, चंदनखौरि चढ़ाए री ।

‘सूर’ सुभग अँग अँग की शोभा, ब्रजललना ललचाए री ।6।

(7)

देखौ माई रुप सरोवर साज्यौ।।

ब्रज-बनिता-बर-बारि बृंद मैं, श्री ब्रजराज बिराज्यौ।।

लोचन जलज, मधुप अलकावलि, कुंडल मीन सलोल।

कुच चकवाक बिलोकि बदन-विधु, बिछुरि रहे अनबोल।।

मुक्ता-माल बाल-वग-पंगति, करत कुलाहल कूल।

सारस हंस मोर सुक-स्रोनी, बैजयंति सम-तूल।।

पुरइनि कपिस निचोल, विबिध अँग, बहुरति रुचि उपजावैं।

सूर स्याम आनंद कंद की, सोभा कहत न आवै ।7।


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