भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ |
भक्तिकाल की प्रमुख
विशेषताएँ
·
आदिकाल (संवत् 1375 से पूर्व)
·
भक्ति काल (संवत् 1375 से 1700)
·
रीतिकाल (संवत् 1700 से 1900)
·
आधुनिक काल (संवत् 1900 ईस्वी के
पश्चात)
भक्तिकाल का विवरण (विश्लेषण)
भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | Bhaktikaal Ki Pramukh Viseshtayen
(1) समन्वय की भावना
समन्वय की भावना भक्ति-साहित्य की एक अनुपम विशेषता है। विरोधों और
पारस्परिक संघर्षों के उस युग को समन्वय की सर्वाधिक आवश्यकता थी। अन्यथा भारत देश
और भारतीय संस्कृति के पतन और विघटन के मार्ग खुले हुए थे। धार्मिक संघर्षों को
समाप्त करने के लिए भक्तिकालीन कवियों ने सगुण और निर्गुण तथा ज्ञानयोग और
भक्तियोग में समन्वय स्थापित किया था। तुलसी ने
“गुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा,
जानिहिं भक्ति हिं नहिं कछु भेदा”
कहकर इसी समन्वय की ओर संकेत किया है। संत कवियों ने धर्म और समाज
सभी क्षेत्रों में समन्वय करने की सफल चेष्टा की है। सगुण भक्त कवि तुलसी का तो
समूचा काव्य ही ‘सा
की विराट चेष्टा है।
(2) नाम का महत्व:-
जप, भजन, कीर्तन आदि के रूप में भगवान के नाम की
महता संतो, सूफियों और भक्तों ने स्वीकार की है। कवि कहते
हैं:-“सभी रसायन हम करें, नहीं
नाम सम कोई”। सूफियों और
कृष्ण भक्तों ने कीर्तन को बहुत महत्व दिया है। सूरदास कहते हैं:-
भरोसो नाम को
भारी
प्रेम से जिन्ह नाम लीनो, वे भये अधिकारी
।।
(3) गुरु की महत्ता :-
ईश्वर अनुभवग्मय है। उसका अनुभव
गुरु ही करा सकता है। इसलिए सभी भक्तों गुरु महिमा का गान किया है। कबीर ने कहा है:-
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी
गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
इसी प्रकार सूरदास, तुलसीदास ने भी गुरु की महिमा की है।
(4) भक्ति भावना की प्रधानता:-
भक्ति भावना की प्रधानता को भक्ति
काल के सभी शाखाओं के कवियों ने स्वीकार किया है। कबीर कहते है:- “हरीभक्ति जाने बिना बड़ि मूआ संसार” सूफियों ने प्रेम को ही भक्ति का रूप माना है।
(5) व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता:-
भक्ति काल के कवियों की रचनाओं में
उनके व्यक्तिगत अनुभव की प्रधानता है। इस काल के प्राय: सभी कवि तीर्थ यात्रा या
सत्संग कामना से प्रेरित हो देश भ्रमण करने वाले थे। सूरदास के सूरसागर में
व्यक्तिगत अनुभव को प्रधानता दी गई है। तुलसीदास पढ़े-लिखे होने पर भी पुस्तक
ज्ञान को महत्व नहीं देते। वे प्रेम और व्यक्तिगत साधना को ही प्रधानता देते है।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय ,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। ।
(6) अंह भाव का अभाव:-
मनुष्य के अंह भाव का जब तक विनाश
नहीं होता तब तक वह भगवत प्राप्ति एवं मोक्ष से बहुत दूर रहता है। दीनता का आश्रय
लेकर दीनता के भाव से भगवान की शरण में जाने का उपदेश सभी भक्तों ने दिया है।
कबीर कुत्ता राम का, मुतिया
मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित
खैंचे तित जाऊँ॥
(7) साधु संगति का महत्व:-
साधू संग का गुणगान सभी शाखाओं के
कवियों ने किया है। कबीर का कथन है- “कबीर संगति साधु की हरे और की व्यादी”
सहजो संगति साधु की, छूटे सकल वियाध।
दुर्मति पाप रहै नहीं, लागै रंग अगाध॥
(8) वर्गभेद का विरोध:-
भक्तिकाल में या कहें
कि समूचे मध्यकालीन समाज में तरह-तरह के मिथ्या बंधन थे जिनमें सभी लोग जकडे हुए
थे। जाति-पाँति, छुआ-छूत और ऊँच-नीच
की भावनाएँ समाज के प्रत्येक वर्ग में व्याप्त थीं। यही कारण था। समाज भीतर ही
भीतर कई टुकड़ों में बँट चुका था।
इन स्थितियों का
भक्तिकाल के कवियों ने खुले शब्दों में विरोध किया है। कबीर ने तो स्पष्ट घोषणा कर
दी थी कि-
“जाति-पाँति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई।”
(9) आत्म-चेतना व समाज सुधार:-
भक्ति युग के समस्त कवियों ने आत्म-चेतना जागृत करने
पर विशेष बल दिया तथा धर्म के मार्ग पर चलकर ईश्वर से साक्षात्कार की बात कही ।
मीराबाई और सूरदास की कृष्णभक्ति की पराकाष्ठा तथा तुलसीदास की अटूट रामभक्ति के
कारण तत्कालीन हिंदू समाज की आस्थाओं को बल मिला और समाज एक बार फिर से आस्थावान्
हो उठा।
कबीरदास ने तो हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को चेताया और
अपनी-अपनी कुरीतियाँ छोड्कर उनसे मानव धर्म का निर्वाह करने के लिए कहा। इस
दृष्टि से कबीर सबसे बड़े समाज-सुधारक कहे जा सकते हैं।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु
नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै
कितेब कुराना।
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