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नेताजी सुभाष चंद्र बोस जन्म जयंती : राष्ट्रीय पराक्रम दिवस | Rashtriya Prakram Diwas |
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जन्म जयंती : राष्ट्रीय
पराक्रम दिवस
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जन्म जयंती : राष्ट्रीय पराक्रम दिवस : लम्बे इंतजार के बाद अच्छी बात हुई है कि देश के क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक, कर्मयोद्धा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती को केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा करके देश के असंख्य लोगों की भावनाओं का सम्मान किया है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जन्म जयंती
लम्बे इंतजार के बाद अच्छी बात हुई है कि देश के क्रांतिकारी
आंदोलन के महानायक, कर्मयोद्धा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती को
केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाने की
घोषणा करके देश के असंख्य लोगों की भावनाओं का सम्मान किया है। वास्तव में हमारी
आजादी हमारे ऐसे ही वीरों के पराक्रम, शौर्य, समर्पण और साहस से मिली थी। यह सही है कि
स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान महत्वपूर्ण था, परंतु नेताजी के
योगदान को कमतर आंकना या उनके योगदान का विस्मृत करना, किसी भी दृष्टिकोण
से उचित नहीं कहा जा सकता। भारत के स्वाधीनता संग्राम में आजाद हिंद फौज एवं
नेताजी का सर्वाधिक योगदान रहा है, उनके योगदान की अमर कहानी अभी लिखी जानी शेष है
और इसकी शुभ शुरुआत हो गयी है।
आजाद हिन्द सरकार के माध्यम से सुभाषचन्द्र बोस ने एक ऐसा भारत
बनाने का वादा किया था, जिसमें सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान
अवसर हों। जो अपनी प्राचीन परम्पराओं से प्रेरणा लेगा और गौरवपूर्ण बनाने वाले
सुखी और समृद्ध सशक्त भारत का निर्माण करेगा। यह करोड़ों भारतीयों का सपना था, किंतु सुभाष बाबू से
भय खाने वाले अंग्रेजों और बाद में उसी लीक पर चलकर सत्ता और परिवारवाद को मजबूत
करने वाले राजनीतिक दलों एवं सत्ताधारियों ने उस महानायक के योगदान एवं सपनों को
कुचलने का षड़यंत्रपूर्वक प्रयत्न किया। जब वर्ष 2018 को आजाद हिन्द सरकार
के 75वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से तिरंगा
फहराया तो देश को मानो उसका बिसराया प्यार, स्वतंत्रता संग्राम की अनूठी स्मृतियों की
जीवंतता से देश को वास्तविक रूप में आजादी का स्वाद चगने का अवसर मिल गया है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिस अमृत को अपने संघर्ष से बटोरो
एवं सुरक्षित भारत की भावी पीढ़ियों के लिए रखा था, वह तो राजनीतिक स्वार्थों की भेंट चढ़ गया।
उस अमृत पर तो कोरी राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेकी गयी, अपने-अपने स्वार्थ
सिद्ध किये गये, देश को भूला दिया गया, नेताजी के योगदान को भूला दिया गया। यही कारण है
कि 75 वर्षों के कालखण्ड में राष्ट्र मजबूत होने की बजाय दिन-ब-दिन
कमजोर होता गया। राष्ट्र कभी भी केवल व्यवस्था पक्ष से ही नहीं बनता, उसका सिद्धांत, चरित्र पक्ष एवं
राष्ट्रीय भावना भी सशक्त होनी चाहिए। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों
की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के नागरिकों के चरित्र से मापी जाती है।
उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है, उनके बलिदानी स्वतंत्रता संग्रामियों की जीवंतता
से आंकी जाती है। हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि आजादी के 75वर्षों के बाद भी
राष्ट्रीय चरित्र नहीं बन पाया, इसका कारण नेताजी जैसे नेताओं के योगदान को भूला
देना है।
सुभाष चन्द्र बोस भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा
सबसे बड़े नेता थे। आपका जन्म 23 जनवरी 1897 को को ओड़िशा के कटक शहर में हिन्दू कायस्थ परिवार
में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ
बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी
प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया था
और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का
खिताब दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को
कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर
14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और
पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरद चन्द्र से
था।
सुभाषचन्द्र बोस आजीवन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिये युद्ध
तथा सैन्य संगठन में रत रहते हुए भारत को आजादी दिलाने के प्रभावी एवं सार्थक
प्रयत्न किये। सुभाष बाबू के जीवन पर स्वामी विवेकानंद, उनके गुरु स्वामी
रामकृष्ण परमहंस तथा महर्षि अरविंद के गहन दर्शन और उच्च भावना का प्रभाव था।
नेताजी ऋषि अरविंद की पत्रिका आर्य को बहुत ही लगाव से पढ़ते थे। पिताजी की इच्छा
का निर्वाहन करते हुए उन्होनें उन दिनों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परीक्षा आईसीएस
में बैठने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा मात्र आठ माह में
ही परीक्षा उत्तीर्ण कर ली किंतु राष्ट्रीय भाव एवं भारत को आजाद कराने के संकल्प
के चलते उन्होंने आईसीएस की नौकरी का परित्याग करके एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत
किया। तब तक आइसीएस के इतिहास में किसी भारतीय ने ऐसा नहीं किया था। युवा सुभाष ने
16 जुलाई 1921 को बम्बई में महात्मा गांधी से मिलने के
बाद सम्पूर्ण देश में अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया।
उस समय देश में गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग की लहर थी तथा अंग्रेजी वस्त्रों का
बहिष्कार, विधानसभा, अदालतों एवं शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार
भी इसमें शामिल था।
सुभाषचन्द्र बोस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ
लड़ने के लिये, जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा
दिया गया जय हिंद का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। ‘तुम मुझे खून दो मैं
तुम्हे आजादी दूँगा’ का नारा देकर उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ हुंकार
भरी। आजाद हिन्द सरकार ने वादा किया था ‘बांटो और राज करो’ की उस नीति को जड़ से उखाड़ फेंकने का, जिसकी वजह से भारत
सदियों तक गुलाम रहा था। इसके लिये नेताजी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन
हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में आज़ाद हिंद फौज की सेना को सम्बोधित
करते हुए ‘दिल्ली चलो!’ का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर
ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इंफाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा
लिया।
आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत या उदाहरण
नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी
के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो। उस समय देश में नेताजी और आजाद हिंद फौज के
प्रति सहानुभूति की व्यापक लहर दौड़ रही थी। दमनचक्र के बावजूद देशवासियों का जोश, उत्साह व उमंग देखते
ही बन रहा था। ब्रिटिश सरकार डर गयी थी। आजाद हिंद फौज ने जिस प्रकार से देश का
वातावरण बनाया उससे अंग्रेजों को साफ पता चल गया था कि अब यहां अधिक समय तक रहा
नहीं जा सकता, आजाद हिंद फौज का देश की आजादी में अप्रतिम योगदान है जिसे
भुलाया नहीं जा सकता।
21 अक्टूबर 1943 को सुभाषचन्द्र बोस
ने आज़ाद हिंद फौज के सर्वाेच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी
सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशो की सरकारों ने
मान्यता दी थी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये।
नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। 1944 को आज़ाद हिंद फौज ने
अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी
करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में
जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून
रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस
निर्णायक युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं।
अपने संघर्षपूर्ण एवं अत्यधिक व्यस्त जीवन के बावजूद नेताजी
सुभाष चन्द्र बोस स्वाभाविक रूप से लेखन के प्रति भी उत्सुक रहे हैं। अपनी अपूर्ण
आत्मकथा एक भारतीय यात्री-ऐन इंडियन पिलग्रिम के अतिरिक्त उन्होंने दो खंडों में
एक पूरी पुस्तक भी लिखी भारत का संघर्ष-द इंडियन स्ट्रगल, जिसका लंदन से ही
प्रथम प्रकाशन हुआ था। यह पुस्तक काफी प्रसिद्ध हुई थी। उनकी आत्मकथा यद्यपि
अपूर्ण ही रही, लेकिन उसे पूर्ण करने की उनकी अभिलाषा रही थी। नेताजी की मृत्यु
को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका शहीद
दिवस धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज
भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे।
यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से संबंधित दस्तावेज अब तक
सार्वजनिक क्यों नहीं किये? 16 जनवरी 2014 को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने नेताजी के लापता
होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग वाली जनहित
याचिका पर सुनवाई के लिये विशेष पीठ के गठन का आदेश दिया।
सुभाषचन्द्र बोस की 125वीं जन्म जयन्ती
मनाते हुए भारत को भारतीयता की नजर से देखना और समझना जरूरी है। ये आज जब हम देश
की स्थिति देखते हैं तो और स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं कि स्वतंत्र भारत के बाद के
दशकों में अगर देश को सुभाष बाबू, सरदार पटेल जैसे व्यक्तित्वों का मार्गदर्शन मिला
होता, भारत को देखने के लिए विदेशी चश्मा नहीं होता तो स्थितियां बहुत
भिन्न होतीं। नेताजी के विचारधारा के लोग इस देश में ही जीवित होने पर भी बिसराए
जाते रहे हैं। लेकिन इन सब झंझावातों के बीच वह सपना सांस लेता रहा। उसे जीवित
रहना ही था, क्योंकि उस सपने में नेताजी सरीखे अनगिनत राष्ट्रपुरुषों की जान
बसी है। वह सपना है भारतीयता का सपना। यह सपना जीवित रहेगा, उसी सपने को आकार
देकर ही सशक्त भारत का निर्माण होगा। जिसमें संघर्ष, समर्पण एवं शौर्य की सुभाषचन्द्र बोस की
गाथाएं आने वाली पीढ़ियों को उनके मूल्यों को अपनाने के लिये प्रेरित करती रहेगी।
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