Kurukshetr kavita by Ramdhari Singh Dinkar/BA 3rd Sem KUK, MDU
पितामह
कह रहे कौन्तेय से रण की कथा हैं,
विचारों
की लड़ी में गूंथते जाते व्यथा हैं।
ह्रदय
सागर मथित होकर कभी जब डोलता है
छिपी निज
वेदना गंभीर नर भी बोलता है ।
"चुराता
न्याय जो, रण को
बुलाता भी वही है,
युधिष्ठिर
! स्वत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है ।
नरक उनके
लिए, जो पाप
को स्वीकारते हैं;
न उनके
हेतु जो तन में उसे ललकारते हैं ।
सहज ही
चाहता कोई नहीं लड़ना किसी से;
किसीको
मारना अथवा स्वयं मरना किसी से;
नहीं
दु:शांति को भी तोडना नर चाहता है;
जहाँ तक
हो सके, निज
शांति प्रेम निबाहता है ।
मगर, यह शांतिप्रियता रोकती केवल मनुज को
नहीं वो
रोक पाती है दुराचारी दनुज को ।
दनुज
क्या शिष्ट मानव को कभी पहचानता है ?
विनय की
नीति कायर की सदा वह मानता है ।
समय
ज्यों बीतता, त्यों
त्यों अवस्था घोर होती है
अन्य की
श्रंखला बढ़ कर कराल कठोर होती है ।
किसी दिन
तब, महाविस्फोट
कोई फूटता है
मनुज ले
जान हाथों में दनुज पर टूटता है ।
न समझो किन्तु, इस विध्वंस के होते प्रणेता
समर के
अग्रणी दो ही, पराजित
और जेता ।
नहीं
जलता निखिल संसार दो की आग से है,
अवस्थित
ज्यों न जग दो-चार ही के भाग से है ।
युधिष्ठिर
! क्या हुताशन-शैल सहसा फूटता है ?
कभी क्या
वज्र निर्धन व्योम से भी छूटता है ?
अनलगिरी
फूटता, जब ताप
होता है अवनी में,
कडकती
दामिनी विकराल धूमाकुल गगन में ।
महाभारत
नहीं था द्वन्द्व केवल दो घरों का,
अनल का
पुंज था इसमें भरा अगणित नरों का ।
न केवल
यह कुफल कुरुवंश के संघर्ष का था,
विकट
विस्फोट यह सम्पूर्ण भारतवर्ष का था ।
युगों से
विश्व में विष-वायु बहती आ रही थी,
धरित्री
मौन हो दावाग्नि सहती आ रही थी;
परस्पर
वैर-शोधन के लिए तैयार थे सब,
समर का
खोजते कोई बड़ा आधार थे सब ।
कहीं था
जल रहा कोई किसी की शूरता से ।
कहीं था
क्षोभ में कोई किसी की क्रूरता से ।
कहीं
उत्कर्ष ही नृप का नृपों को सालता था
कहीं
प्रतिशोध का कोई भुजंगम पालता था ।
निभाना
पर्थ-वध का चाहता राधेयथा प्रण ।
द्रुपद
था चाहता गुरु द्रोण से निज वैर-शोधन ।
शकुनी को
चाह थी, कैसे
चुकाए ऋण पिता का,
मिला दे
धूल में किस भांति कुरु-कुल की पताका ।
सुयोधन
पर न उसका प्रेम था, वह घोर
छल था ।
हितू बन
कर उसे रखना ज्वलित केवल अनल था ।
जहाँ भी
आग थी जैसी, सुलगती
जा रही थी,
समर में
फूट पड़ने के लिए अकुला रही थी ।
सुधारों
से स्वयं भगवान के जो-जो चिढे थे
नृपति वे
क्रुद्ध होकर एक दल में जा मिले थे ।
नहीं
शिशुपाल के वध से मिटा था मान उनका,
दुबक कर
था रहा धुन्धुंआँ द्विगुण अभिमान उनका ।
परस्पर
की कलह से, वैर से, हो कर विभाजित
कभी से
दो दलों में हो रहे थे लोग सज्जित ।
खड़े थे वे
ह्रदय में प्रज्वलित अंगार ले कर,
धनुर्ज्या
को चढा कर, म्यान
में तलवार ले कर ।
था रह
गया हलाहल का यदि
कोई रूप
अधूरा,
किया
युधिष्ठिर, उसे
तुम्हारे
राजसूय
ने पूरा ।
इच्छा नर
की और, और फल
देती उसे
नियति है ।
फलता विष
पीयूष-वृक्ष में,
अकथ
प्रकृति की गति है ।
तुम्हें
बना सम्राट देश का,
राजसूय
के द्वारा,
केशव ने
था ऐक्य- सृजन का
उचित
उपाय विचारा ।
सो, परिणाम और कुछ निकला,
भडकी आग
भुवन में ।
द्वेष
अंकुरित हुआ पराजित
राजाओं
के मन में ।
समझ न
पाए वे केशव के
सदुद्देश्य
निश्छल को ।
देखा
मात्र उन्होंने बढ़ते
इन्द्रप्रस्थ
के बल को ।
पूजनीय
को पूज्य मानने
में जो
बाधा-क्रम है,
वही मनुज
का अहंकार है,
वही मनुज
का भ्रम है ।
इन्द्रप्रस्थ
का मुकुट-छत्र
भारत भर
का भूषण था;
उसे नमन
करने में लगता
किसे, कौन दूषण था ?
तो भी
ग्लानि हुई बहुतों को
इस अकलंक
नमन से,
भ्रमित
बुद्धि ने की इसकी
समता
अभिमान-दलन से ।
इस पूजन
में पड़ी दिखाई
उन्हें
विवशता अपनी,
पर के
विभव, प्रताप, समुन्नति
में
परवशता अपनी ।
राजसूय
का यज्ञ लगा
उनको रण
के कौशल सा,
निज
विस्तार चाहने वाले
चतुर भूप
के छल सा ।
धर्मराज
! कोई न चाहता
अहंकार
निज खोना
किसी उच्च
सत्ता के सम्मुख
सन्मन से
नत होना ।
सभी
तुम्हारे ध्वज के नीचे
आये थे न
प्रणय से
कुछ आये
थे भक्ति-भाव से
कुछ
कृपाण के भय से ।
मगर भाव
जो भी हों सबके
एक बात
थी मन में
रह सकता
था अक्षुण्ण मुकुट का
मान न इस
वंदन में ।
लगा
उन्हें, सर पर
सबके
दासत्व
चढा जाता है,
राजसूय
में से कोई
साम्राज्य
बढ़ा आता है ।
किया
यज्ञ ने मान विमर्दित
अगणित
भूपालों का,
अमित
दिग्गजों का,शूरों का,
बल वैभव
वालों का ।
सच है
सत्कृत किया अतिथि
भूपों को
तुमने मन से
अनुनय, विनय, शील, समता से,
मंजुल, मिष्ट वचन से ।
पर, स्वतंत्रता-मणि का इनसे
मोल न
चूक सकता है
मन में
सतत दहकने वाला
भाव न
रुक सकता है ।
कोई मंद, मूढमति नृप ही
होता
तुष्टवचन से,
विजयी की
शिष्टता-विनय से,
अरि के
आलिंगन से ।
चतुर भूप
तन से मिल करते
शमित
शत्रु के भय को,
किन्तु
नहीं पड़ने देते
अरि-कर
में कभी ह्रदय को ।
हुए न
प्रशमित भूप
प्रणय-उपहार
यज्ञ में देकर,
लौटे
इन्द्रप्रस्थ से वे
कुछ भाव
और ही ले कर ।
"धर्मराज, है याद व्यास का
वह गंभीर
वचन क्या ?
ऋषि का
वह यज्ञान्त-काल का
विकट
भविष्य-कथन क्या ?
जुटा जा
रहा कुटिल ग्रहों का
दुष्ट
योग अम्बर में,
स्यात
जगत पडने वाला है
किसी महा
संगरमें ।
तेरह
वर्ष रहेगी जग में
शांति
किसी विध छायी ।
तब होगा
विस्फोट, छिडेगी
कोई कठिन
लड़ाई ।
होगा
ध्वंस कराल, काल
विप्लव
का खेल रचेगा,
प्रलय
प्रकट होगा धरणी पर,
हा-हा
कार मचेगा ।
यह था
वचन सिद्ध दृष्टा का,
नहीं
निरी अटकल थी,
व्यास
जानते थे वसुधा
जा रही
किधर पल-पल थी ।
सब थे
सुखी यज्ञ से, केवल
मुनि का
ह्रदय विकल था,
वहीजानते
थे कि कुण्ड से
निकला
कौन अनल था ।
भरी सभा
के बीच उन्होंने
सजग किया
था सबको,
पग-पग पर
संयम का शुभ
उपदेश
दिया था सबको ।
किन्तु
अहम्म्य, राग-दीप्त
नर
कब संयम
करता है ?
कल आने
वाली विपत्ति से
आज कहाँ
डरता है ?
बीत न
पाया वर्ष काल का
गर्जन
पड़ा सुनाई,
इन्द्रप्रस्थ
पर घुमड़ विपद की
घटा
अतर्कित छायी ।
किसे
ज्ञात था खेल-खेल में
यह विनाश
छायेगा ?
भारत का
दुर्भाग्य द्यूत पर
चढा हुआ
आएगा ?
कौन
जानता था कि सुयोधन
की धृति
यों छूटेगी ?
राजसूय
के हवन-कुण्ड से
विकट-
वह्नि फूटेगी ?
तो भी है
सच, धर्मराज
!
यह
ज्वाला नयी नहीं थी;
दुर्योधन
के मन में वह
वर्षों
से खेल रही थी ।
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