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कबीर की सखियाँ/Kabir ki Sakhiyan/कबीर के दोहे/Sant Kabir/कबीरदास/Kabirdas |
मन कै मते न चालिये, छाड़ि जीव की बाँणि।
ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आँणि॥1॥
चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ।
इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ॥2॥
आसा का ईंधन करूँ, मनसा करुँ विभूति।
जोगी फेरी फिल करौं, यों बिनवाँ वै सूति॥3॥
कबीर सेरी साँकड़ी चंचल मनवाँ चोर।
गुण गावै लैलीन होइ, कछू एक मन मैं और॥4॥
कबीर मारूँ मन कूँ, टूक टूक ह्नै जाइ।
विष की क्यारी बोई करि, लुणत कहा पछिताइ॥5॥
इस मन कौ बिसमल करौं, दीठा करौं अदीठ।
जै सिर राखौं आपणां, तौ पर सिरिज अंगीठ॥6॥
मन जाणैं सब बात, जाणत ही औगुण करै।
काहे की कुसलात, कर दीपक कूँ बैं पड़ै॥7॥
हिरदा भीतरि आरसी, मुख देषणाँ न जाइ।
मुख तौ तौपरि देखिए, जे मन की दुविधा जाइ॥8॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर
मन मृथा भगा, खेत बिराना खाइ।
सूलाँ
करि करि से किसी जब खसम पहूँचे आइ॥9॥
मन
को मन मिलता नहीं तौ होता तन का भंग।
अब
ह्नै रहु काली कांवली, ज्यौं दूजा चढ़ै न रंग॥10॥
मन दीया मन पाइए, मन बिन मन नहीं होइ।
मन उनमन उस अंड ज्यूँ, खनल अकासाँ जोइ॥9॥
मन गोरख मन गोविंदो, मन हीं औघड़ होइ।
जे मन राखै जतन करि, तौ आपै करता सोइ॥10॥
एक ज दोसत हम किया, जिस गलि लाल कबाइ।
एक जग धोबी धोइ मरै, तौ भी रंग न जाइ॥11॥
पाँणी ही तैं पातला, धूवाँ ही तै झींण।
पवनाँ बेगि उतावला, सो दोसत कबीरै कीन्ह॥12॥
कबीर तुरी पलांड़ियाँ, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ साँई मिलौं, पीछे पड़िहै राति।॥13॥
मनवां तो अधर बस्या, बहुतक झीणां होइ।
आलोकत सचु पाइया, कबहूँ न न्यारा सोइ॥14॥
मन न मार्या मन करि, सके न पंच प्रहारि।
सीला साच सरधा नहीं, इंद्री अजहुँ उद्यारि॥15॥
कबीर मन बिकरै पड़ा, गया स्वादि के साथ।
गलका खाया बरज्ताँ, अब क्यूँ आवै हाथि॥16॥
कबीर मन गाफिल भया, सुमिरण लागै नाहिं।
घणीं सहैगा सासनाँ, जम की दरगह माहिं॥17॥
कोटि कर्म पल मैं करै, यहु मन बिषिया स्वादि।
सतगुर सबद न मानई, जनम गँवाया बादि॥18॥
मैंमंता मन मारि रे, घटहीं माँहै घेरि।
जबहीं चालै पीठि दै, अंकुस दे दे फेरि॥19॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
जौ
तन काँहै मन धरै, मन धरि निर्मल होइ।
साहिब
सौ सनमुख रहै, तौ फिरि बालक होइ॥
मैंमंता मन मारि रे, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥20॥
कागद केरी नाँव री, पाँणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥21॥
कबीर यह मन कत गया, जो मन होता काल्हि।
डूंगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया निबाँणाँ चालि॥22॥
मृतक कूँ धी जौ नहीं, मेरा मन बी है।
बाजै बाव बिकार की, भी मूवा जीवै॥23॥
काटि कूटि मछली, छींकै धरी चहोड़ि।
कोइ एक अषिर मन बस्या, दह मैं पड़ी बहोड़ि॥24॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे ये दोहे हैं-
मूवा
मन हम जीवत, देख्या जैसे मडिहट भूत।
मूवाँ
पीछे उठि उठि लागै, ऐसा मेरा पूत॥47॥
मूवै कौंधी गौ नहीं, मन का किया बिनास।
कबीर मन पंषी भया, बहुतक चढ़ा अकास।
उहाँ ही तैं गिरि पड़ा, मन माया के पास॥25॥
भगति दुबारा सकड़ा राई दसवैं भाइ।
मन तौ मैंगल ह्नै रह्यो, क्यूँ करि सकै समाइ॥26॥
करता था तो क्यूँ रह्या, अब करि क्यूँ पछताइ।
बोवै पेड़ बबूल का, अब कहाँ तैं खाइ॥27॥
काया देवल मन धजा, विष्रै लहरि फरराइ।
मन चाल्याँ देवल चलै, ताका सर्बस जाइ॥28॥
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाँणी मैं घीव गीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ॥29॥
काया कसूं कमाण ज्यूँ, पंचतत्त करि बांण।
मारौं तो मन मृग को, नहीं तो मिथ्या जाँण॥30॥292॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
हरि दिवान कै, क्यूँकर पावै दादि।
पहली
बुरा कमाइ करि, पीछे करै फिलादि॥35॥
(14) सूषिम मारग कौ अंग
कौंण देस कहाँ आइया, कहु क्यूँ जाँण्याँ जाइ।
उहू मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस माँहि॥1॥
उतीथैं कोइ न आवई, जाकूँ बूझौं धाइ।
इतथैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ॥2॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
संसा जीव मैं, कोइ न कहै समुझाइ।
नाँनाँ
बांणी बोलता, सो कत गया बिलाइ॥3॥
सबकूँ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ।
प्रीति न जोड़ी राम सूँ, रहण कहाँ थैं होइ॥3॥
चलो चलौं सबको कहे, मोहि अँदेसा और।
साहिब सूँ पर्चा नहीं, ए जांहिगें किस ठौर॥4॥
जाइबे को जागा नहीं, रहिबे कौं नहीं ठौर।
कहै कबीरा संत हौ, अबिगति की गति और॥5॥
कबीरा मारिग कठिन है, कोइ न सकई जाइ।
गए ते बहुडे़ नहीं, कुसल कहै को आइ॥6॥
जन कबीर का सिषर घर, बाट सलैली सैल।
पाव न टिकै पपीलका, लोगनि लादे बैल॥7॥
जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राइ न ठहराइ।
मन पवन का गमि नहीं, तहाँ पहूँचे जाइ॥8॥
कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
तहाँ कबीरा चलि गया गहि सतगुर कीसाषि॥9॥
सुर न थाके मुनि जनां, जहाँ न कोई जाइ।
मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाइ॥10॥602॥
(15) सूषिम जनम कौ अंग
कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाँणै जाल।
कहै कबीरा दूरि करि, आतम अदिष्टि काल॥1॥
प्राण पंड को तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ।
जीव छताँ जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥2॥304॥
टिप्पणी: ख-में
इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर अंतहकरन मन, करन मनोरथ माँहि।
उपजित
उतपति जाँणिए, बिनसे जब बिसराँहि॥3॥
कबीर संसा दूरि करि, जाँमण मरन भरम।
पंच
तत्त तत्तहि मिलै, सुनि समाना मन॥4॥
(16) माया कौ अंग
जग हठवाड़ा स्वाद ठग, माया बेसाँ लाइ।
रामचरण नीकाँ गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ॥1॥
टिप्पणी: ख-में
इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
जिभ्या स्वाद ते, क्यूँ पल में ले काम।
अंगि
अविद्या ऊपजै, जाइ हिरदा मैं राम॥2॥
कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठि हाटि।
सब जग तो फंधै पड़ा, गया कबीरा काटि॥2॥
कबीर माया पापणीं, लालै लाया लोंग।
पूरी कीनहूँ न भोगई, इनका इहै बिजोग॥3॥
कबीरा माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देईं राम॥4॥
जाँणी जे हरि को भजौ, मो मनि मोटी आस।
हरि बिचि घालै अंतरा, माया बड़ी बिसास॥5॥
टिप्पणी: ख-हरि
क्यों मिलौं।
कबीर माया मोहनी, मोहे जाँण सुजाँण।
भागाँ ही छूटै नहीं, भरि भरि मारै बाँण॥6॥
कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खाँड़।
सतगुर की कृपा भई, नहीं तो करती भाँड़॥7॥
कबीर माया मोहनी, सब जग घाल्या घाँणि।
कोइ एक जन ऊबरै, जिनि तोड़ी कुल की काँणि॥8॥
कबीर माया मोहनी, माँगी मिलै न हाथि।
मनह उतारी झूठ करि, तब लागी डौलै साथि॥9॥
माया दासी संत की, ऊँभी देइ असीस।
बिलसी अरु लातौं छड़ी सुमरि सुमरि जगदीस॥10॥
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर।
आसा त्रिस्नाँ ना मुई, यों कहि गया कबीर॥11॥
टिप्पणी: ख-यूँ
कहै दास कबीर।
आसा जीवै जग मरै, लोग मरे मरि जाइ।
सोइ मूबे धन संचते, सो उबरे जे खाइ॥12॥
टिप्पणी: ख-सोई
बूड़े जु धन संचते।
कबीर सो धन संचिए, जो आगै कूँ होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥13॥
त्रीया त्रिण्णाँ पापणी, तासूँ प्रीति न जोड़ि।
पैड़ी चढ़ि पाछाँ पड़े, लागै मोटी खोड़ि॥14॥
त्रिष्णाँ सींची नाँ बुझे, दिन दिन बढ़ती जाइ।
जबासा के रूप ज्यूँ, घण मेहाँ कुमिलाइ॥15॥
कबीर जग की को कहे, भौ जलि बूड़ै दास।
पारब्रह्म पति छाड़ि कर, करैं मानि की आस॥16॥
माया तजी तौ का भया, मानि तजी नहीं जाइ।
मानि बड़े गुनियर मिले, मानि सबनि की खाइ॥17॥
रामहिं थोड़ा जाँणि करि, दुनियाँ आगैं दीन।
जीवाँ कौ राजा कहै, माया के आधीन॥18॥
रज बीरज की कली, तापरि साज्या रूप।
राम नाम बिन बूड़ि है, कनक काँमणी कूप॥19॥
माया तरवर त्रिविध का, साखा दुख संताप।
सीतलता सुपिनै नहीं, फल फीको तनि ताप॥20॥
कबीर माया ढाकड़ी, सब किसही कौ खाइ।
दाँत उपाणौं पापड़ी, जे संतौं नेड़ी जाइ॥21॥
नलनी सायर घर किया, दौं लागी बहुतेणि।
जलही माँहै जलि मुई, पूरब जनम लिपेणि॥22॥
कबीर गुण की बादली, ती तरबानी छाँहिं।
बाहरि रहे ते ऊबरे, भीगें मंदिर माँहिं॥23॥
कबीर माया मोह की, भई अँधारी लोइ।
जे सूते ते मुसि लिये, रहे बसत कूँ रोइ॥24॥
टिप्पणी: ख-में
इसके आगे यह दोहा हैं-
माया
काल की खाँणि है, धरि त्रिगणी बपरौति।
जहाँ
जाइ तहाँ सुख नहीं, यह माया की रीति॥
संकल ही तैं सब लहे, माया इहि संसार।
ते क्यूँ छूटे बापुड़े, बाँधे सिरजनहार॥25॥
बाड़ि चढ़ती बेलि ज्यूँ, उलझी, आसा फंध।
तूटै पणि छूटै नहीं, भई ज बाना बंध॥26॥
सब आसण आस तणाँ, त्रिबर्तिकै को नाहिं।
थिवरिति कै निबहै नहीं, परिवर्ति परपंच माँहि॥27॥
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह।
जिहि घरि जिता बधावणाँ, तिहि घरि तिता अँदोह॥28॥
माया हमगौ यों कह्या, तू मति दे रे पूठि।
और हमारा हम बलू गया कबीरा रूठि॥29॥
टिप्पणी: माया
मन की मोहनी, सुरनर रहे लुभाइ।
इहि माया जग खाइया माया कौं कोई न खाइ॥26॥
टिप्पणी: ख-गया
कबीरा छूटि
ख-रूई लपेटी आगि।
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़ा कलंक।
और पँखेरू पी गए, हंस न बोवै चंच॥30॥
कबीर माया जिनि मिलैं, सो बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनियर मिले, किसौ भरोसे त्याँह॥31॥
माया की झल जग जल्या, कनक काँमणीं लागि।
कहुँ धौं किहि विधि राखिये, रूई पलेटी आगि॥32॥346॥
(17) चाँणक कौ अंग
जीव बिलव्या जीव सों, अलप न लखिया जाइ।
गोबिंद मिलै न झल बुझै, रही बुझाइ बुझाइ॥1॥
इही उदर के कारणै, जग जाँच्यो निस जाम।
स्वामी पणौ जु सिर चढ़ो, सर्या न एको काम॥2॥
स्वामी हूँणाँ सोहरा, दोद्धा हूँणाँ दास।
गाडर आँणीं ऊन कूँ, बाँधी चरै कपास॥3॥
स्वामी हूवा सीतका, पैका कार पचास।
राम नाँम काँठै रह्या, करै सिषां की आस॥4॥
कबीर तष्टा टोकणीं, लीए फिरै सुभाइ।
रामनाम चीन्हें नहीं, पीतलि ही कै चाइ॥5॥
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी षटाइ।
राज दुबाराँ यौं फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥6॥
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैहिं पईसा ब्याज कौं, लेखाँ करताँ जाइ॥7॥
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥8॥
टिप्पणी: ख-कबीर
कलिजुग आइया।
चारिउ बेद पढ़ाइ करि, हरि सूँ न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढ़ै खेत॥9॥
टिप्पणी: ख-चारि
बेद पंडित पढ्या, हरि सों किया न हेत।
बाँम्हण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदाँ माहिं॥10॥
टिप्पणी:
ख- बाँम्हण गुरु जगत का, भर्म कर्म का पाइ।
उलझि पुलझि करि मरि गया, चारों बेंदा माँहि॥
ख
में इसके आगे ये दोहे हैं-
कलि
का बाँम्हण मसकरा, ताहि न दीजै दान।
स्यौं
कुँटउ नरकहि चलैं, साथ चल्या जजमान॥11॥
बाम्हण
बूड़ा बापुड़ा, जेनेऊ कै जोरि।
लख
चौरासी माँ गेलई, पारब्रह्म सों तोडि॥12॥
साषित सण का जेवणा, भीगाँ सूँ कठठाइ।
दोइ अषिर गुरु बाहिरा, बाँध्या जमपुरि जाइ॥11॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर
साषत की सभा, तूँ जिनि बैसे जाइं।
एक
दिबाड़ै क्यूँ बडै, रीझ गदेहड़ा गाइ॥14॥
साषत ते सूकर भला, सूचा राखे गाँव।
बूड़ा साषत बापुड़ा, बैसि समरणी नाँव॥15॥
साषत बाम्हण जिनि मिलैं, बैसनी मिलौ चंडाल।
अंक माल दे भेटिए, मानूँ मिले गोपाल॥16॥
पाड़ोसी सू रूसणाँ, तिल तिल सुख की हाँणि।
पंडित भए सरावगी, पाँणी पीवें छाँणि॥12॥
पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं।
औरूँ कौ परमोधतां, गया मुहरकाँ माँहि॥13॥
टिप्पणी: ख-कबीर
व्यास कहै, भीतरि भेदै नाहिं।
चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माँहि।
फिरि प्रमोधै आन कौ, आपण समझै नाहिं॥14॥
रासि पराई राषताँ, खाया घर का खेत।
औरौं कौ प्रमोधतां, मुख मैं पड़िया रेत॥15॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
कहै पोर कुँ, तूँ समझावै सब कोइ।
संसा
पड़गा आपको, तौ और कहे का होइ॥21॥
तारा मंडल बैसि करि, चंद बड़ाई खाइ।
उदै भया जब सूर का, स्यूँ ताराँ छिपि जाइ॥16॥
देषण के सबको भले, जिसे सीत के कोट।
रवि के उदै न दीसहीं, बँधे न जल की पोट॥17॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
सुणत
सुणावत दिन गए, उलझि न सुलझा मान।
कहै
कबीर चेत्यौ नहीं, अजहुँ पहलौ दिन॥24॥
तीरथ करि करि जग मुवा, डूँधै पाँणी न्हाइ।
राँमहि राम जपंतड़ाँ, काल घसीट्याँ जाइ॥18॥
कासी काँठै घर करैं, पीवैं निर्मल नीर।
मुकति नहीं हरि नाँव बिन, यों कहें दास कबीर॥19॥
कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की, उतर्या चाहै पार॥20॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
पद
गायाँ मन हरषियाँ, साषी कह्यां आनंद।
सो
तत नाँव न जाणियाँ, गल मैं पड़ि गया फंद॥
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥21॥
मोर तोर की जेवड़ी, बलि बंध्या संसार।
काँ सिकडूँ बासुत कलित, दाझड़ बारंबार॥22॥68॥
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(18) करणीं बिना कथणीं कौ
अंग
कथणीं कथी तो क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ।
कालबूत के कोट ज्यूँ, देषतहीं ढहि जाइ॥1॥
जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥2॥
जैसी मुष तें नीकसै, तैसी चालै नाहिं।
मानिष नहीं ते स्वान गति, बाँध्या जमपुर जाँहिं॥3॥
पद गोएँ मन हरषियाँ, सापी कह्याँ अनंद।
सों तन नाँव न जाँणियाँ, गल मैं पड़िया फंध॥4॥
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तूंड।
जाँणै बूझे कुछ नहीं, यौं ही आँधां रूंड॥5॥373॥
(19) कथणीं बिना करणी कौ
अंग
मैं जान्यूँ पढ़िबौ भलो, पढ़िवा थें भलो जोग।
राँम नाँम सूँ प्रीति करि, भल भल नींदी लोग॥1॥
कबिरा पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ।
बांवन अषिर सोधि करि, ररै ममैं चित लाइ॥2॥
कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥3॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥4॥337॥
(20) कामी नर कौ अंग
कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि।
राग सनेही, ऊबरे, बिषई खाये झारि॥1॥
काँमणि मीनीं पाँणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ।
जे हरि चरणाँ राचियाँ, तिनके निकटि न जाइ॥2॥
परनारी राता फिरै, चोरी बिढता खाँहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाँहिं॥3॥
पर नारी पर सुंदरी बिरला बंचै कोइ।
खाताँ मीठी खाँड सी, अंति कालि विष होइ॥4॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
जहाँ
जलाई सुंदरी, तहाँ तूँ जिनि जाइ
कबीर।
भसमी
ह्नै करि जासिसी, सो मैं सवा सरीर॥5॥
नारी
नाहीं नाहेरी, करै नैन की चोट।
कोई
एक हरिजन ऊबरै पारब्रह्म की ओट॥6॥
पर नारी कै राचणै, औगुण है गुण नाँहि।
षीर समंद मैं मंझला, केता बहि बहि जाँहि॥5॥
पर नारी को राचणौं, जिसी ल्हसण की पाँनि।
पूणैं बैसि रषाइए परगट होइ दिवानि॥6॥
टिप्पणी: क-प्रगट
होइ निदानि।
नर नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राँम के, जे सुमिरै निहकाम॥7॥
नारी सेती नेह, बुधि बबेक सबही हरै।
काँढ गमावै देह, कारिज कोई नाँ सरै॥8॥
नाना भोजन स्वाद सुख, नारी सेती रंग।
बेगि छाँड़ि पछताइगा, ह्नै है मूरति भंग॥9॥
नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासैं होइ।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ॥10॥
एक कनक अरु काँमनी, विष फल कीएउ पाइ।
देखै ही थे विष चढ़े, खायै सूँ मरि जाइ॥11॥
एक कनक अरु काँमनी दोऊ अंगनि की झाल।
देखें ही तन प्रजलै, परस्याँ ह्नै पैमाल॥12॥
कबीर भग की प्रीतड़ी, केते गए गड़ंत।
केते अजहूँ जायसी, नरकि हसंत हसंत॥13॥
टिप्पणी: ख-गरकि
हसंत हसंत।
जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच।
उत्यम ते अलगे रहै, निकटि रहै तैं नीच॥14॥
नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥15॥
सुंदरि थे सूली भली, बिरला बचै कोय।
लोह निहाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय॥16॥
अंधा नर चैते नहीं, कटै ने संसे सूल।
और गुनह हरि बकससी, काँमी डाल न मूल॥17॥
भगति बिगाड़ी काँमियाँ, इंद्री केरै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥18॥
कामी अमीं न भावई, विषई कौं ले सोधि।
कुबधि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहो प्रमोधि॥19॥
विषै विलंबी आत्माँ, मजकण खाया सोधि।
ग्याँन अंकूर न ऊगई, भावै निज प्रमोध॥20॥
विषै कर्म की कंचुली, पहरि हुआ नर नाग।
सिर फोड़ै, सूझै नहीं, को आगिला अभाग॥21॥
कामी कदे न हरि भजै, जपै न कैसो जाप।
राम कह्याँ थैं जलि मरे, को पूरिबला पाप॥22॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
राम
कहंता जे खिजै, कोढ़ी ह्नै गलि जाँहि।
सूकर
होइ करि औतरै, नाक बूड़ंते खाँहि॥25॥
काँमी लज्जा ना करै, मन माँहें अहिलाद।
नीद न माँगैं साँथरा, भूष न माँगै स्वाद॥23॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
कामी
थैं कुतो भलौ, खोलें एक जू काछ।
राम
नाम जाणै नहीं, बाँबी जेही बाच॥27॥
नारि पराई आपणीं, भुगत्या नरकहिं जाइ।
आगि आगि सबरो कहै, तामै हाथ न बाहि॥24॥
कबीर कहता जात हौं, चेतै नहीं गँवार।
बैरागी गिरही कहा, काँमी वार न पार॥25॥
ग्यानी तो नींडर भया, माँने नाँही संक।
इंद्री केरे बसि पड़ा, भूंचै विषै निसंक॥26॥
ग्याँनी मूल गँवाइया, आपण भये करंता।
ताथै संसारी भला, मन मैं रहे डरंता॥27॥404॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
काँम
काँम सबको कहैं, काँम न चीन्हें कोइ।
जेती
मन में कामना, काम कहीजै सोइ॥32॥
(21) सहज कौ अंग
सहज सहज सबकौ कहै, सहज न चीन्है कोइ।
जिन्ह सहजै विषिया तजी, सहज कही जै सोइ॥1॥
सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हें कोइ।
पाँचू राखै परसती, सहज कही जै सोइ॥2॥
सहजै सहजै सब गए, सुत बित कांमणि कांम।
एकमेक ह्नै मिलि रह्या, दास, कबीरा रांम॥3॥
सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहीजै सोइ॥4॥408॥
(22) साँच कौ अंग
कबीर पूँजी साह की, तूँ जिनि खोवै ष्वार।
खरी बिगूचनि होइगी, लेखा देती बार॥1॥
लेखा देणाँ सोहरा, जे दिल साँचा होइ।
उस चंगे दीवाँन मैं, पला न पकड़े कोइ॥2॥
कबीर चित्त चमंकिया, किया पयाना दूरि।
काइथि कागद काढ़िया, तब दरिगह लेखा पूरि॥3॥
काइथि कागद काढ़ियां, तब लेखैं वार न पार।
जब लग साँस सरीर मैं, तब लग राम सँभार॥4॥
यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।
साचै मारै झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥5॥
कबीर काजी स्वादि बसि, ब्रह्म हतै तब दोइ।
चढ़ि मसीति एकै कहै, दरि क्यूँ साचा होइ॥6॥
काजी मुलाँ भ्रमियाँ, चल्या दुनीं कै साथि।
दिल थैं दीन बिसारिया, करद लई जब हाथि॥7॥
जोरी कलिर जिहै करै, कहते हैं ज हलाल।
जब दफतर देखंगा दई, तब हैगा कौंण हवाल॥8॥
जोरी कीयाँ जुलम है, माँगे न्याव खुदाइ।
खालिक दरि खूनी खड़ा, मार मुहे मुहि खाइ॥9॥
साँई सेती चोरियाँ, चोराँ सेती गुझ।
जाँणैगा रे जीवड़ा, मर पड़ैगी तुझ॥10॥
सेष सबूरी बाहिरा, क्या हज काबैं जाइ।
जिनकी दिल स्याबति नहीं, तिनकौं कहाँ खुदाइ॥11॥
खूब खाँड है खोपड़ी, माँहि पड़ै दुक लूँण।
पेड़ा रोटी खाइ करि, गला कटावै कौंण॥12॥
पापी पूजा बैसि करि, भषै माँस मद दोइ।
तिनकी दष्या मुकति नहीं, कोटि नरक फल होइ॥13॥
सकल बरण इकत्रा है, सकति पूजि मिलि खाँहिं।
हरि दासनि की भ्रांति करि, केवल जमपुरि जाँहिं॥14॥
कबीर लज्या लोक की, सुमिरै नाँही साच।
जानि बूझि कंचन तजै, काठा पकड़े काच॥15॥
कबीर जिनि जिनि जाँणियाँ, करत केवल सार।
सो प्राणी काहै चलै, झूठे जग की लार॥16॥
झूठे को झूठा मिलै, दूणाँ बधै सनेह।
झूठे कूँ साचा मिलै, तब ही तूटै नेह॥17॥425॥
(23) भ्रम विधौंसण कौ अंग
पांहण केरा पूतला, करि पूजै करतार।
इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार॥1॥
काजल केरी कोठरी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी बाट॥2॥
पाँहिन फूँका पूजिए, जे जनम न देई जाब।
आँधा नर आसामुषी, यौंही खोवै आब॥3॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
पाथर
ही का देहुरा, पाथर ही का देव।
पूजणहारा
अंधला, लागा खोटी सेव॥4॥
कबीर
गुड कौ गमि नहीं, पाँषण दिया बनाइ।
सिष
सोधी बिन सेविया, पारि न पहुँच्या जाइ॥5॥
हम भी पाहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुर की कृपा भई, डार्या सिर थैं बोझ॥4॥
टिप्पणी: ख-होते
जंगल के रोझ।
जेती देषौं आत्मा, तेता सालिगराँम।
साथू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सू काँम॥5॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
माला काठ की, मेल्ही मुगधि झुलाइ।
सुमिरण
की सोधी नहीं, जाँणै डीगरि घाली जाइ॥6॥
सेवैं सालिगराँम कूँ, मन की भ्रांति न जाइ।
सीतलता सुषिनै नहीं, दिन दिन अधकी लाइ॥6॥
टिप्पणी: ख
में इसके आगे यह दोहा है-
माला
फेरत जुग भया, पाय न मन का फेर।
कर
का मन का छाँड़ि दे, मन का मन का फेर॥8॥
सेवैं सालिगराँम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़े काला कापड़ा, नाँव धरावैं सेत॥7॥
जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेविया, यों जग चल्या निरास॥8॥
तीरथ त सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ॥9॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि॥10॥
कबीर दुनियाँ देहुरै, सोस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तूँ ताही सौ ल्यौ लाइ॥11॥436॥
(24) भेष कौ अंग
कर सेती माला जपै, हिरदै बहै डंडूल।
पग तौ पाला मैं गिल्या, भाजण लागी सूल॥1॥
कर पकरै अँगुरी गिनै, मन धावै चहुँ वीर।
जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ की ठौर॥2॥
माला पहरैं मनमुषी, ताथैं कछु न होइ।
मन माला कौं फेरताँ, जुग उजियारा सोइ॥3॥
माला पहरे मनमुषी, बहुतैं फिरै अचेत।
गाँगी रोले बहि गया, हरि सूँ नाँहीं हेत॥4॥
कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।
मन न फिरावै आपणों, कहा फिरावै मोहि॥5॥
कबीर माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहर्या हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देष॥6॥
माला पहर्याँ कुछ नहीं, रुल्य मूवा इहि भारि।
बाहरि ढोल्या हींगलू भीतरि भरी भँगारि॥7॥
माला पहर्याँ कुछ नहीं, काती मन कै साथि।
जब लग हरि प्रकटै नहीं, तब लग पड़ता हाथि॥8॥
माला पहर्याँ कुछ नहीं, गाँठि हिरदा की खोइ।
हरि चरनूँ चित्त राखिये, तौ अमरापुर होइ॥9॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
माला पहर्याँ कुछ नहीं बाम्हण भगत न जाण।
ब्याँह सराँधाँ कारटाँ उँभू वैंसे ताणि॥2॥
माला पहर्या कुछ नहीं, भगति न आई हाथि।
माथौ मूँछ मुँड़ाइ करि, चल्या जगत कै साथि॥10॥
साँईं सेती साँच चलि, औराँ सूँ सुध भाइ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुड़ाइ॥11॥
टिप्पणी: ख-साधौं
सौं सुध भाइ।
केसौं कहा बिगाड़िया, जे मूड़े सौ बार।
मन कौं न काहे मूड़िए, जामै बिषै विकार॥12॥
मन मेवासी मूँड़ि ले, केसौं मूड़े काँइ।
जे कुछ किया सु मन किया, केसौं कीया नाँहि॥13॥
मूँड़ मुँड़ावत दिन गए, अजहूँ न मिलिया राम
राँम नाम कहु क्या करैं, जे मन के औरे काँम॥14॥
स्वाँग पहरि सोरहा भया, खाया पीया षूँदि।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूँदि॥15॥
टिप्पणी: ख-जिहि
सेरी साधू नीसरै, सो सेरी मेल्ही मूँदी॥
बेसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥16॥
तन कौं जोगी सब करैं, मन कों बिरला कोइ।
सब सिधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ॥17॥
कबीर यहु तौ एक है, पड़दा दीया भेष।
भरम करम सब दूरि करि, सबहीं माँहि अलेष॥18॥
भरम न भागा जीव का, अनंतहि धरिया भेष।
सतगुर परचे बाहिरा, अंतरि रह्या अलेष॥19॥
जगत जहंदम राचिया, झूठे कुल की लाज।
तन बिनसे कुल बिनसि है, गह्या न राँम जिहाज॥20॥
पष ले बूडी पृथमीं, झूठी कुल की लार।
अलष बिसारौं भेष मैं, बूड़े काली धार॥21॥
चतुराई हरि नाँ मिले, ऐ बाताँ की बात।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ॥22॥
नवसत साजे काँमनीं, तन मन रही सँजोइ।
पीव कै मन भावे नहीं, पटम कीयें क्या होइ॥23॥
जब लग पीव परचा नहीं, कन्याँ कँवारी जाँणि।
हथलेवा होसै लिया, मुसकल पड़ी पिछाँणि॥24॥
कबीर हरि की भगति का, मन मैं परा उल्लास।
मैं वासा भाजै नहीं, हूँण मतै निज दास॥25॥
मैं वासा मोई किया, दुरिजिन काढ़े दूरि।
राज पियारे राँम का, नगर बस्या भरिपूरि॥26॥462॥
(25) कुसंगति कौ अंग
निरमल बूँद अकास की, पड़ि गइ भोमि बिकार।
मूल विनंठा माँनबी, बिन संगति भठछार॥1॥
मूरिष संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ
कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुँ भाइ॥2॥
हरिजन सेती रूसणाँ, संसारी सूँ हेत।
ते नर कदे न नीपजै, ज्यूँ कालर का खेत॥3॥
नारी मरूँ कुसंग की, केला काँठै बेरि।
वो हालै वो चीरिये, साषित संग न बेरि॥4॥
मेर नसाँणी मीच की, कुसंगति ही काल।
कबीर कहै रे प्राँणिया, बाँणी ब्रह्म सँभाल॥5॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
केहने क्या बणै, अणमिलता सौ संग।
दीपक
कै भावैं नहीं, जलि जलि परैं पतंग॥6॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंष रही लपटाइ।
ताली पीटै सिरि धुनै, मीठै बोई माइ॥6॥
ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊँच न होइ।
सोवन कलस सुरे भर्या, साथूँ निंद्या सोइ ॥7॥269॥
(26) संगति कौ अंग
देखा देखी पाकड़े, जाइ अपरचे छूटि।
बिरला कोई ठाहरे, सतगुर साँमी मूठि॥1॥
देखा देखी भगति है, कदे न चढ़ई रंग।
बिपति पढ्या यूँ छाड़सी, ज्यूं कंचुली भवंग॥2॥
करिए तौ करि जाँणिये, सारीपा सूँ संग।
लीर लीर लोइ थई, तऊ न छाड़ै रंग॥3॥
यहु मन दीजे तास कौं, सुठि सेवग भल सोइ।
सिर ऊपरि आरास है, तऊ न दूजा होइ॥4॥
टिप्पणी: ख-तऊ
न न्यारा होइ।
पाँहण टाँकि न तौलिए, हाडि न कीजै वेह।
माया राता मानवी, तिन सूँ किसा सनेह॥5॥
कबीर तासूँ प्रीति करि, जो निरबाहे ओड़ि।
बनिता बिबिध न राचिये, दोषत लागे षोड़ि॥6॥
कबीर तन पंषी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करे, सो तैसे फल खाइ॥7॥
काजल केरी कोठढ़ी, तैसा यहु संसार।
बलिहारी ता दास की, पैसि रे निकसणहार॥8॥477॥
(27) असाध कौ अंग
कबीर भेष अतीत का, करतूति करै अपराध।
बाहरि दीसै साध गति, माँहैं महा असाध॥1॥
उज्जल देखि न धीजिये, बग ज्यूँ माँड़ै ध्यान।
धीरे बैठि चपेटसी, यूँ ले बूड़ै, ग्याँन॥2॥
जेता मीठा बोलणाँ, तेता साध न जाँणि।
पहली थाह दिखाई करि, ऊँड़ै देसी आँणि॥3॥480॥
टिप्पणी: ख-तेता
भगति न जाँणि।
(28) साध कौ अंग
कबीर संगति साध की, कदे न निरफल होइ।
चंदन होसी बाँवना, नीब न कहसी कोइ॥1॥
कबीर संगति साध की, बेगि करीजैं जाइ।
दुरमति दूरि गँवाइसी, देसी सुमति बताइ॥2॥
मथुरा जावै द्वारिका, भावैं जावैं जगनाथ।
साध संगति हरि भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥3॥
मेरे संगी दोइ जणाँ एक बैष्णों एक राँम।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाँम॥4॥
टिप्पणी: ख-सुमिरावै
राम।
कबीरा बन बन में फिरा, कारणि अपणें राँम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब काँम॥5॥
कबीर सोई दिन भला, जा दिन संत मिलाहिं।
अंक भरे भरि भेटिया, पाप सरीरौ जाँहिं॥6॥
कबीर चन्दन का बिड़ा, बैठ्या आक पलास।
आप सरीखे करि लिए जे होत उन पास॥7॥
कबीर खाईं कोट की, पांणी पीवे न कोइ
आइ मिलै जब गंग मैं, तब सब गंगोदिक होइ॥8॥
जाँनि बूझि साचहि तजै, करैं झूठ सूँ नेह।
ताको संगति राम जी, सुपिनै हो जिनि देहु॥9॥
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तूँ बसै।
वहि तर वेगि उठाइ, नित को गंजन को सहै॥10॥
केती लहरि समंद की, कत उपजै कत जाइ।
बलिहारी ता दास की, उलटी माँहि समाइ॥11॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
पंच
बल धिया फिरि कड़ी, ऊझड़ ऊजड़ि जाइ।
बलिहारी
ता दास की, बवकि अणाँवै ठाइ॥12॥
काजल
केरी कोठड़ी, तैसा यह संसार।
बलिहारी
ता दास की, पैसि जु निकसण हार॥13॥
काजल केरी कोठढ़ी, काजल ही का कोट।
बलिहारी ता दास की, जे रहै राँम की ओट॥12॥
भगति हजारी कपड़ा, तामें मल न समाइ।
साषित काली काँवली, भावै तहाँ बिछाइ॥13॥493॥
निरबैरी निहकाँमता, साँई सेती नेह।
विषिया सूँ न्यारा रहै, संतहि का अँग एह॥1॥
संत न छाड़ै संतई, जे कोटिक मिलै असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत॥2॥
कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत।
तन षीणा मन उनमनाँ, जग रूठड़ा फिरंत॥3॥
कबीर हरि का भावता, झीणाँ पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास॥4॥
टिप्पणी: ख-अंगनि
बाढ़ै घास।
अणरता सुख सोवणाँ, रातै नींद न आइ।
ज्यूँ जल टूटै मंछली यूँ बेलंत बिहाइ॥5॥
टिप्पणी: ख-तलफत
रैण बिहाइ।
जिन्य कुछ जाँण्याँ नहीं तिन्ह, सुख नींदणी बिहाइ।
मैंर अबूझी बूझिया, पूरी पड़ी बलाइ॥6॥
जाँण भगत का नित मरण अणजाँणे का राज।
सर अपसर समझै नहीं, पेट भरण सूँ काज॥7॥
जिहि घटिजाँण बिनाँण है, तिहि घटि आवटणाँ घणाँ।
बिन षंडै संग्राम है नित उठि मन सौं झूमणाँ॥8॥
राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्है कोइ।
तंबोली के पान ज्यूँ, दिन दिन पीला होइ॥9॥
पीलक दौड़ी साँइयाँ, लोग कहै पिंड रोग।
छाँनै लंधण नित करै, राँम पियारे जोग॥10॥
काम मिलावै राम कूँ, जे कोई जाँणै राषि।
कबीर बिचारा क्या करे, जाकी सुखदेव बोले साषि॥11॥
काँमणि अंग बिरकत भया, रत भया हरि नाँहि।
साषी गोरखनाथ ज्यूँ, अमर भए कलि माँहि॥12॥
टिप्पणी: ख-सिध
भए कलि माँहिं।
जदि विषै पियारी प्रीति सूँ, तब अंतर हरि नाँहि।
जब अंतर हरि जी बसै, तब विषिया सूँ चित नाँहि॥13॥
जिहि घट मैं संसौ बसै, तिहिं घटि राम न जोइ।
राम सनेही दास विचि, तिणाँ न संचर होइ॥14॥
स्वारथ को सबको सगा, सब सगलाही जाँणि।
बिन स्वारथ आदर करै, सो हरि की प्रीति पिछाँणि॥15॥
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूँ छाँनाँ होइ।
जतन जतन करि दाबिए, तऊ उजाजा सोइ॥16॥
फाटै दीदे मैं फिरौं, नजरि न आवै कोइ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूँ छाना होइ॥17॥
सब घटि मेरा साँइयाँ, सूनी सेज न कोइ।
भाग तिन्हौ का हे सखी, जिहि घटि परगड होइ॥18॥
पावक रूपी राँम है, घटि घटि रह्या समाइ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथैं धुँवाँ ह्नै ह्नै जाइ॥19॥
कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोइ।
कै जागै बिसई विष भर्या, कै दास बंदगी होइ॥20॥
कबीर चाल्या जाइ था, आगैं मिल्या खुदाइ।
मीराँ मुझ सौं यौं कह्या, किनि फुरमाई गाइ॥21॥514॥
(30) साध महिमाँ कौ अंग
चंदन की कुटकी भली, नाँ बँबूर की अबराँउँ।
बैश्नों की छपरी भली, नाँ साषत का बड गाउँ॥1॥
टिप्पणी: ख-चंदन
की चूरी भली।
पुरपाटण सूबस बसै, आनँद ठाये ठाँइ।
राँम सनेही बाहिरा, ऊँजड़ मेरे भाँइ॥2॥
जिहिं घरि साथ न पूजिये, हरि की सेवा नाँहिं।
ते घर मरड़हट सारषे, भूत बसै तिन माँहि॥3॥
है गै गैंवर सघन घन, छत्रा धजा फहराइ।
ता सुख थैं भिष्या भली, हरि सुमिरत दिन जाइ॥4॥
हैं गै गैंवर सघन घन, छत्रापति की नारि।
तास पटंतर नाँ तुलै, हरिजन की पनिहारि॥5॥
क्यूँ नृप नारी नींदये, क्यूँ पनिहारी कौं माँन।
वामाँग सँवारै पीव कौ, वा नित उठि सुमिरै राँम॥6॥
टिप्पणी: ‘वा मांग’ या ‘वामांग’ दोनों पाठ हो सकता है।
कबीर धनि ते सुंदरी, जिनि जाया बैसनों पूत।
राँम सुमिर निरभैं हुवा, सब जग गया अऊत॥7॥
कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास॥8॥
साषत बाँभण मति मिलै, बैसनों मिलै चंडाल।
अंक माल दे भटिये, माँनों मिले गोपाल॥9॥
राँम जपत दालिद भला, टूटी घर की छाँनि।
ऊँचे मंदिर जालि दे, जहाँ भगति न सारँगपाँनि॥10॥
कबीर भया है केतकी, भवर गये सब दास।
जहाँ जहाँ भगति कबीर की, तहाँ तहाँ राँम निवास॥11॥525॥
(31) मधि कौ अंग
कबीर मधि अंग जेको रहै, तौ तिरत न लागै बार।
दुइ दुइ अंग सूँ लाग करि, डूबत है संसार॥1॥
कबीर दुविधा दूरि करि, एक अंग ह्नै लागि।
यहु सीतल वहु तपति है दोऊ कहिये आगि॥2॥
अनल अकाँसाँ घर किया, मधि निरंतर बास।
बसुधा ब्यौम बिरकत रहै, बिनठा हर बिसवास॥3॥
बासुरि गमि न रैंणि गमि, नाँ सुपनै तरगंम।
कबीर तहाँ बिलंबिया, जहाँ छाहड़ी न घंम॥4॥
जिहि पैडै पंडित गए, दुनिया परी बहीर।
औघट घाटी गुर कही, तिहिं चढ़ि रह्या कबीर॥5॥
टिप्पणी: ख-दुनियाँ
गई बहीर। औघट घाटी नियरा।
श्रग नृकथै हूँ रह्या, सतगुर के प्रसादि।
चरन कँवल की मौज मैं, रहिसूँ अंतिरु आदि॥6॥
हिंदू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ॥7॥
दुखिया मूवा दुख कों, सुखिया सुख कौं झूरि।
सदा आनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि॥8॥
कबीर हरदी पीयरी, चूना ऊजल भाइ।
रामसनेही यूँ मिले, दुन्यूँ बरन गँवाइ॥9॥
काबा फिर कासी भया, राँम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीभ॥10॥
धरती अरु आसमान बिचि, दोइ तूँबड़ा अबध।
षट दरसन संसै पड़ा, अरु चौरासी सिध॥11॥526॥
(32) सारग्राही कौ अंग
षीर रूप हरि नाँव है नीर आन ब्यौहार।
हंस रूप कोई साध है, तात को जांनणहार॥1॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
सार
संग्रह सूप ज्यूँ, त्यागै फटकि असार।
कबीर
हरि हरि नाँव ले, पसरै नहीं बिकार॥2॥
कबीर साषत कौ नहीं, सबै बैशनों जाँणि।
जा मुख राम न ऊचरै, ताही तन की हाँणि॥2॥
कबीर औगुँण ना गहैं गुँण ही कौ ले बीनि।
घट घट महु के मधुप ज्यूँ, पर आत्म ले चीन्हि॥3॥
बसुधा बन बहु भाँति है, फूल्यो फल्यौ अगाध।
मिष्ट सुबास कबीर गहि, विषमं कहै किहि साथ॥4॥540॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर
सब घटि आत्मा, सिरजी सिरजनहार।
राम
कहै सो राम में, रमिता ब्रह्म बिचारि॥5॥
तत
तिलक तिहु लोक में, राम नाम निजि सार।
जन
कबीर मसतिकि देया, सोभा अधिक अपार॥6॥
(33) विचार कौ अंग
राम नाम सब को कहै, कहिबे बहुत बिचार।
सोई राम सती कहै, सोई कौतिग हार॥1॥
आगि कह्याँ दाझै नहीं, जे नहीं चंपै पाइ।
जब लग भेद न जाँणिये, राम कह्या तौ काइ॥2॥
कबीर सोचि बिचारिया, दूजा कोई नाँहि।
आपा पर जब चीन्हिया, तब उलटि समाना माँहि॥3॥
कबीर पाणी केरा पूतला, राख्या पवन सँवारि।
नाँनाँ बाँणी बोलिया, जोति धरी करतारि॥4॥
नौ मण सूत अलूझिया, कबीर घर घर बारि।
तिनि सुलझाया बापुड़े, जिनि जाणीं भगति मुरारि॥5॥
आधी साषी सिरि कटैं, जोर बिचारी जाइ।
मनि परतीति न ऊपजे, तौ राति दिवस मिलि गाइ॥6॥
टिप्पणी: ख-भरि
गाइ।
सोई अषिर सोइ बैयन, जन जू जू बाचवंत।
कोई एक मेलै लवणि, अमीं रसाइण हुँत॥7॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
भूल दंग में लोग कहैं यहु भूल।
कै
रमइयौ बाट बताइसी, कै भूलत भूलैं भूल॥8॥
हरि मोत्याँ की माल है, पोई काचै तागि।
जतन करि झंटा घँणा, टूटेगी कहूँ लागि॥8॥
मन नहीं छाड़ै बिषै, बिषै न छाड़ै मन कौं।
इनकौं इहै सुभाव, पूरि लागी जुग जन कौं॥9॥
खंडित मूल बिनास कहौ किम बिगतह कीजै।
ज्यूँ जल में प्रतिब्यंब त्यूँ सकल रामहिं जांणीजै॥10॥
सो मन सो तन सो बिषे, सो त्रिभवन पति कहूँ कस।
कहै कबीर ब्यंदहु नरा, ज्यूँ जल पूर्या सक रस॥11॥549॥
(34) उपदेश कौ अंग
हरि जी यहै बिचारिया, साषी कहौ कबीर।
भौसागर मैं जीव है, जे कोई पकड़ैं तीर॥1॥
कली काल ततकाल है, बुरा करौ जिनि कोइ।
अनबावै लोहा दाहिणै बोबै सु लुणता होइ॥2॥
टिप्पणी: ख-बुरा
न करियो कोइ।
ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
जीवन
को समझै नहीं, मुबा न कहै संदेस।
जाको
तन मन सौं परचा नहीं, ताकौ कौण धरम उपदेस॥3॥
कबीर संसा जीव मैं, कोई न कहै समझाइ।
बिधि बिधि बाणों बोलता सो कत गया बिलाइ॥3॥
टिप्पणी: ख-नाना
बाँणी बोलता।
कबीर संसा दूरि करि जाँमण मरण भरंम।
पंचतत तत्तहि मिले सुरति समाना मंन॥4॥
ग्रिही तौ च्यंता घणीं, बैरागी तौ भीष।
दुहुँ कात्याँ बिचि जीव है, दौ हमैं संतौं सीष॥5॥
बैरागी बिरकत भला, गिरहीं चित्त उदार।
दुहै चूकाँ रीता पड़ै, ताकूँ वार न पार॥6॥
जैसी उपजै पेड़ मूँ, तैसी निबहै ओरि।
पैका पैका जोड़ताँ, जुड़िसा लाष करोड़ि॥7॥
कबीर हरि के नाँव सूँ, प्रीति रहै इकतार।
तौ मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अंत न पार॥8॥
टिप्पणी: ख-सुरति
रहै इकतार। हीरा अनँत अपार॥
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥9॥
कोइ एक राखै सावधान, चेतनि पहरै जागि।
बस्तन बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि॥10॥559॥
(35) बेसास कौ अंग
जिनि नर हरि जठराँह, उदिकै थैं षंड प्रगट कियौ।
सिरजे श्रवण कर चरन, जीव जीभ मुख तास दीयो॥
उरध पाव अरध सीस, बीस पषां इम रषियौ।
अंन पान जहां जरै, तहाँ तैं अनल न चषियौ॥
इहिं भाँति भयानक उद्र में, न कबहू छंछरै।
कृसन कृपाल कबीर कहि, इम प्रतिपालन क्यों करै॥1॥
भूखा भूखा क्या करै, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग॥2॥
रचनहार कूँ चीन्हि लै, खैचे कूँ कहा रोइ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, तांणि पछेवड़ा सोइ॥3॥
राम नाम करि बोहड़ा, बांही बीज अधाइ।
अंति कालि सूका पड़ै, तौ निरफल कदे न जाइ॥4॥
च्यंतामणि मन में बसै, सोई चित्त मैं आंणि।
बिन च्यंता च्यंता करै, इहै प्रभू की बांणि॥5॥
कबीर का तूँ चितवै, का तेरा च्यंत्या होइ।
अणच्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ॥6॥
करम करीमां लिखि रह्या, अब कछू लिख्या न जाइ।
मासा घट न तिल बथै, जौ कोटिक करै उपाइ॥7॥
जाकौ चेता निरमया, ताकौ तेता होइ।
रती घटै न तिल बधै, जौ सिर कूटै कोइ॥8॥
टिप्पणी: इसके
आगे ख प्रति में यह दोहा है-
करीम
कबीर जु विह लिख्या, नरसिर भाग अभाग।
जेहूँ
च्यंता चितवै, तऊ स आगै आग॥10॥
च्यंता न करि अच्यंत रहु, सांई है संभ्रथ।
पसु पंषरू जीव जंत, तिनको गांडि किसा ग्रंथ॥9॥
संत न बांधै गाँठड़ी, पेट समाता लेइ।
सांई सूँ सनमुख रहै, जहाँ माँगै तहाँ देइ॥10॥
राँम राँम सूँ दिल मिलि, जन हम पड़ी बिराइ।
मोहि भरोसा इष्ट का, बंदा नरकि न जाइ॥11॥
कबीर तूँ काहे डरै, सिर परि हरि का हाथ।
हस्ती चढ़ि नहीं डोलिये, कूकर भूसैं जु लाष॥12॥
मीठा खाँण मधूकरी, भाँति भाँति कौ नाज।
दावा किसही का नहीं, बित बिलाइति बड़ राज॥13॥
टिप्पणी: ख-शिर
परि सिरजणहार।
हस्ती
चढ़ि क्या डोलिए। भुसैं हजार।
ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
हसती
चढ़िया ज्ञान कै, सहज दुलीचा डारि।
स्वान
रूप संसार है, पड़ा भुसौ झषि माँरि॥15॥
मोनि महातम प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबहीं अह लागया, जबहीं कह्या कुछ देह॥14॥
माँगण मरण समान है, बिरला वंचै कोइ।
कहै कबीर रघुनाथ सूँ, मतिर मँगावै माहि॥15॥
टिप्पणी: ख-जगनाथ
सौं।
पांडल पंजर मन भवर, अरथ अनूपम बास।
राँम नाँम सींच्या अँमी, फल लागा वेसास॥16॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर
मरौं पै मांगौं नहीं, अपणै तन कै काज।
परमारथ
कै कारणै, मोहिं माँगत न आवै लाज॥20॥
भगत
भरोसै एक कै, निधरक नीची दीठि।
तिनकू
करम न लागसी, राम ठकोरी पीठि॥21॥
मेर मिटी मुकता भया, पाया ब्रह्म बिसास।
अब मेरे दूजा को नहीं, एक तुम्हारी आस॥17॥
जाकी दिल में हरि बसै, सो नर कलपै काँइ।
एक लहरि समंद की, दुख दलिद्र सब जाँइ॥18॥
पद गाये लैलीन ह्नै, कटी न संसै पास।
सबै पिछीड़ै, थोथरे, एक बिनाँ बेसास॥19॥
गावण हीं मैं रोज है, रोवण हीं में राग।
इक वैरागी ग्रिह मैं, इक गृही मैं वैराग॥20॥
गाया तिनि पाया नहीं, अणगाँयाँ थैं दूरि।
जिनि गाया बिसवास सूँ, तिन राम रह्या भरिपूरि॥21॥580॥
(36) पीव पिछाँणन कौ अंग
संपटि माँहि समाइया, सो साहिब नहीसीं होइ।
सफल मांड मैं रमि रह्या, साहिब कहिए सोइ॥1॥
रहै निराला माँड थै, सकल माँड ता माँहि।
कबीर सेवै तास कूँ, दूजा कोई नाँहि॥2॥
भोलै भूली खसम कै, बहुत किया बिभचार।
सतगुर गुरु बताइया, पूरिबला भरतार॥3॥
जाकै मह माथा नहीं, नहीं रूपक रूप।
पुहुप बास थैं पतला ऐसा तत अनूप॥4॥584॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
चत्रा
भुजा कै ध्यान मैं, ब्रिजबासी सब संत।
कबीर
मगन ता रूप मैं, जाकै भुजा अनंत॥5॥
(37) बिर्कताई कौ अंग
मेरे मन मैं पड़ि गई, ऐसी एक दरार।
फटा फटक पषाँण ज्यूँ, मिल्या न दूजी बार॥1॥
मन फाटा बाइक बुरै, मिटी सगाई साक।
जौ परि दूध तिवास का, ऊकटि हूवा आक॥2॥
चंदन माफों गुण करै, जैसे चोली पंन।
दोइ जनाँ भागां न मिलै, मुकताहल अरु मंन॥3॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
मोती
भागाँ बीधताँ, मन मैं बस्या कबोल।
बहुत
सयानाँ पचि गया, पड़ि गई गाठि गढ़ोल॥4॥
मोती
पीवत बीगस्या, सानौं पाथर आइ राइ।
साजन
मेरी निकल्या, जाँमि बटाऊँ जाइ॥5॥
पासि बिनंठा कपड़ा, कदे सुरांग न होइ।
कबीर त्याग्या ग्यान करि, कनक कामनी दोइ॥4॥
चित चेतनि मैं गरक ह्नै, चेत्य न देखैं मंत।
कत कत की सालि पाड़िये, गल बल सहर अनंत॥5॥
जाता है सो जाँण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नाव ज्यूँ, धणों मिलैंगे आइ॥6॥
नीर पिलावत क्या फिरै, सायर घर घर बारि।
जो त्रिषावंत होइगा, तो पीवेगा झष मारि॥7॥
सत गंठी कोपीन है, साध न मानै संक।
राँम अमलि माता रहै, गिणैं इंद्र कौ रंक॥8॥
दावै दाझण होत है, निरदावै निरसंक।
जे नर निरदावै रहैं, ते गणै इंद्र कौ रंक॥9॥
कबीर सब जग हंडिया, मंदिल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपनाँ को नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥10॥514॥
(38) सम्रथाई कौ अंग
नाँ कुछ किया न करि सक्या, नाँ करणे जोग सरीर।
जे कुछ किया सु हरि किया, ताथै भया कबीर कबीर॥1॥
कबीर किया कछू न होत है, अनकीया सब होइ।
जे किया कछु होत है, तो करता औरे कोइ॥2॥
जिसहि न कोई तिसहि तूँ, जिस तूँ तिस सब कोइ।
दरिगह तेरी साँईंयाँ, नाँव हरू मन होइ॥3॥
एक खड़े ही लहैं, और खड़ा बिललाइ।
साईं मेरा सुलषना, सूता देइ जगाइ॥4॥
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥5॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
बाजण
देह बजंतणी, कुल जंतड़ी न बेड़ि।
तुझै
पराई क्या पड़ी, तूँ आपनी निबेड़ि॥8॥
अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्या न जाइ।
अपना बाना बाहिया, कहि कहि थाके माइ॥6॥
झल बाँवे झल दाँहिनैं, झलहिं माँहि ब्यौहार।
आगैं पीछै झलमई, राखै सिरजनहार॥7॥
साईं मेरा बाँणियाँ, सहजि करै ब्यौपार।
बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥8॥
टिप्पणी: ख-
ब्यौहार।
कबीर वार्या नाँव परि, कीया राई लूँण।
जिसहिं चलावै पंथ तूँ, तिसहिं भुलावै कौंण॥9॥
कबीर करणी क्या करै, जे राँम न कर सहाइ।
जिहिं जिहिं डाली पग धरै, सोई नवि नवि जाइ॥10॥
जदि का माइ जनमियाँ, कहूँ न पाया सुख।
डाली डाली मैं फिरौं, पाती पाती दुख॥11॥
साईं सूँ सब होत है, बंदे थै कछु नाहिं।
राई थैं परबत करै, परबत राई माहिं॥12॥606॥
टिप्पणी: ख
प्रति में बारहवें दोहे के स्थान पर यह दोहा है-
रैणाँ
दूरां बिछोड़ियां, रहु रे संषम झूरि।
देवल
देवलि धाहिणी, देसी अंगे सूर॥13॥
(39) कुसबद कौ अंग
टिप्पणी: ख प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
साईं सौं सब होइगा, बंदे थैं कुछ नाहिं।
राई थैं परबत करे, परबत राई माहिं॥1॥
अणी सुहेली सेल की, पड़ताँ लेइ उसास।
चोट सहारै सबद की, तास गुरु मैं दास॥1॥
खूंदन तो धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ।
कुसबद तो हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ॥2॥
सीतलता तब जाणिए, समिता रहे समाइ।
पष छाड़ै निरपष रहै, सबद न दूष्या जाइ॥3॥
टिप्पणी: ख काट सहैं। साधू सहै।
कबीर सीतलता भई, पाया ब्रह्म गियान।
जिहिं बैसंदर जग जल्या, सो मेरे उदिक समान॥4॥610॥
(40) सबद कौ अंग
कबीर सबद सरीर मैं, बिनि गुण बाजै तंति।
बाहरि भीतरि भरि रह्या, ताथैं छूटि भरंति॥1॥
सती संतोषी सावधान, सबद भेद सुबिचार।
सतगुर के प्रसाद थैं, सहज सील मत सार॥2॥
सतगुर ऐसा चाहिए, जैसा सिकलीगर होइ।
सबद मसकला फेरि करि, देह द्रपन करे सोइ॥3॥
सतगुर साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पड़ा कलेजे छेक॥4॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
सहज
तराजू आँणि करि, सन रस देख्या तोलि।
सब
रस माँहै जीभ रत, जे कोइ जाँणै बोलि॥5॥
हरि रस जे जन बेधिया, सतगुण सी गणि नाहि।
लागी चोट सरीर में, करक कलेजे माँहि॥5॥
ज्यूँ ज्यूँ हरिगुण साभलूँ, त्यूँ त्यूँ लागै तीर।
साँठी साँठी झड़ि पड़ि, झलका रह्या सरीर॥6॥
ज्यूँ ज्यूँ हरिगुण साभलूँ, त्यूँ त्यूँ लागै तीर।
लागै थैं भागा नहीं, साहणहार कबीर॥7॥
सारा बहुत पुकारिया, पीड़ पुकारै और।
लागी चोट सबद की, रह्या कबीरा ठौर॥8॥618॥
टिप्पणी: ख
प्रति में यह दोहा नहीं है।
(41) जीवन मृतक कौ अंग
जीवन मृतक ह्नै रहै, तजै जगत की आस।
तब हरि सेवा आपण करै, मति दुख पावै दास॥1॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इस अंग में पहला दोहा यह है-
जिन
पांऊँ सै कतरी हांठत देत बदेस।
तिन
पांऊँ तिथि पाकड़ौ, आगण गया बदेस॥1॥
कबीर मन मृतक भया, दुरबल भया सरीर।
तब पैडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥2॥
कबीर मरि मड़हट रह्या, तब कोइ न बूझै सार।
हरि आदर आगै लिया, ज्यूँ गउ बछ की लार॥3॥
घर जालौं घर उबरे, घर राखौं घर जाइ।
एक अचंभा देखिया, मड़ा काल कौं खाइ॥4॥
मरताँ मरताँ जग मुवा, औसर मुवा न कोइ।
कबीर ऐसैं मरि मुवा, ज्यूँ बहूरि न मरना होइ॥5॥
बैद मुवा रोगी मुवा, मुवा सकल संसार।
एक कबीरा ना मुवा, जिनि के राम अधार॥6॥
मन मार्या ममता मुई, अहं गई सब छूटि।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही विभूति॥7॥
जीवन थै मरिबो भलौ, जौ मरि जानै कोइ।
मरनै पहली जे मरे, तौ कलि अजरावर होइ॥8॥
खरी कसौटी राम की, खोटा टिकैं न कोइ।
राम कसौटी सो टिकै, जो जीवन मृतक होइ॥9॥
आपा मेट्या हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न को पत्याइ॥10॥
निगु साँवाँ वहि जायगा, जाकै थाघी नहीं कोइ।
दीन गरीबी बंदिगी, करता होइ सु होइ॥11॥
दीन गरीबी दीन कौ, दुँदर को अभिमान।
दुँदर दिल विष सूँ भरी, दीन गरीबी राम॥12॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहा है-
कबीर
नवे स आपको, पर कौं नवे न कोइ।
घालि
तराजू तौलिये, नवे स भारी होइ॥14॥
बुरा
बुरा सब को कहै, बुरा न दीसे कोइ।
जे
दिल खोजौ आपणो, बुरा न दीसे कोइ॥15॥
कबीर चेरा संत का, दासिन का परदास।
कबीर ऐसे ह्नै रह्या, ज्यूँ पांऊँ तलि घास॥13॥
रोड़ा ह्नै रही बाट का, तजि पादंड अभिमान।
ऐसा जे जन ह्नै रहे, ताहि मिले भगवान॥14॥632॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
रोड़ा
भया तो क्या भया, पंथी को दुख देइ।
हरिजन
ऐसा चाहिए, जिसी जिमीं की खेह॥18॥
खेह
भई तो क्या भया, उड़ि उड़ि लागे अंग।
हरिजन
ऐसा चाहिए, पाँणीं जैसा रंग॥19॥
पाणीं
भया तो क्या भया, ताता सीता होइ।
हरिजन
ऐसा चाहिए, जैसा हरि ही होइ॥20॥
हरि
भया तो क्या भया, जैसों सब कुछ होइ।
हरिजन
ऐसा चाहिए, हरि भजि निरमल होइ॥21॥
(42) चित कपटी कौ अंग
कबीर तहाँ न जाइए, जहाँ कपट का हेत।
जालूँ कली कनीर की, तन रातो मन सेत॥1॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
नवणि
नयो तो का भयो, चित्त न सूधौं ज्यौंह।
पारधिया
दूणा नवै, मिघ्राटक ताह॥1॥
संसारी साषत भला, कँवारी कै भाइ।
दुराचारी वेश्नों बुरा, हरिजन तहाँ न जाइ॥2॥
निरमल हरि का नाव सों, के निरमल सुध भाइ।
के ले दूणी कालिमा, भावें सों मण साबण लाइ॥3॥635॥
(43) गुरुसिष हेरा कौ अंग
ऐसा कोई न मिले, हम कों दे उपदेस।
भौसागर में डूबता, कर गहि काढ़े केस॥1॥
ऐसा कोई न मिले, हम को लेइ पिछानि।
अपना करि किरपा करे, ले उतारै मैदानि॥2॥
ऐसा कोई ना मिले, राम भगति का गीत।
तनमन सौपे मृग ज्यूँ, सुने बधिक का गीत॥3॥
ऐसा कोई ना मिले, अपना घर देइ जराइ।
पंचूँ लरिका पटिक करि, रहै राम ल्यौ लाइ॥4॥
ऐसा कोई ना मिले, जासौ रहिये लागि।
सब जग जलता देखिये, अपणीं अपणीं आगि॥5॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
ऐसा कोई न मिले, बूझै सैन सुजान।
ढोल बजंता ना सुणौं, सुरवि बिहूँणा कान॥6॥
ऐसा कोई ना मिले, जासूँ कहूँ निसंक।
जासूँ हिरदे की कहूँ, सो फिरि माडै कंक॥6॥
ऐसा कोई ना मिले, सब बिधि देइ बताइ।
सुनि मण्डल मैं पुरिष एक, ताहि रहै ल्यो लाइ॥7॥
हम देखत जग जात है, जग देखत हम जाँह।
ऐसा कोई ना मिले, पकड़ि छुड़ावै बाँह॥8॥
तीनि सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोइ।
सबे पियारे राम के, बैठे परबसि होइ॥9॥
माया मिले महोर्बती, कूड़े आखै बेउ।
कोइ घाइल बेध्या ना मिलै, साईं हंदा सैण॥10॥
सारा सूरा बहु मिलें, घाइला मिले न कोइ।
घाइल ही घाइल मिले, तब राम भगति दिढ़ होइ॥11॥
टिप्पणी: ख-जब घाइल ही घाइल मिलै।
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, तब सब बिष अमृत होइ॥12॥
टिप्पणी: ख-जब प्रेमी ही प्रेमी मिलें।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जै चलै हमारे साथि॥13॥648॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
जाणै ईछूँ क्या नहीं, बूझि न कीया गौन।
भूलौ भूल्या मिल्या, पंथ बतावै कौन॥15॥
कबीर जानींदा बूझिया, मारग दिया बताइ।
चलता चलता तहाँ गया, जहाँ निरंजन राइ॥16॥
(44) हेत प्रीति सनेह कौ
अंग
कमोदनी जलहरि बसै, चंदा बसै अकासि।
जो जाही का भावता, सो ताही कै पास॥1॥
टिप्पणी: ख-जो जाही कै मन बसै।
कबीर गुर बसै बनारसी, सिष समंदा तीर।
बिसार्या नहीं बीसरे, जे गुंण होइ सरीर॥2॥
जो है जाका भावता, जदि तदि मिलसी आइ।
जाकी तन मन सौंपिया, सो कबहूँ छाँड़ि न जाइ॥3॥
स्वामी सेवक एक मत, मन ही मैं मिलि जाइ।
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन कै भाइ॥4॥
(45) सूरा तन कौ अंग
काइर हुवाँ न छूटिये, कछु सूरा तन साहि।
भरम भलका दूरि करि, सुमिरण सेल सँबाहि॥1॥
षूँड़ै षड़ा न छूटियो, सुणि रे जीव अबूझ।
कबीर मरि मैदान मैं, करि इंद्राँ सूँ झूझ॥2॥
कबीर साईं सूरिवाँ, मन सूँ माँडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥3॥
टिप्पणी: ख-पंच पयादा पकड़ि ले।
सूरा झूझै गिरदा सूँ, इक दिसि सूर न होइ।
कबीर यौं बिन सूरिवाँ, भला न कहिसी कोइ॥4॥
कबीर आरणि पैसि करि, पीछै रहै सु सूर।
सांईं सूँ साचा भया, रहसी सदा हजूर॥5॥
टिप्पणी: ख-जाके मुख षटि नूर।
गगन दमाँमाँ बाजिया, पड़ा निसानै घाव।
खेत बुहार्या सूरिवै, मुझ मरणे का चाव॥6॥
कबीर मेरै संसा को नहीं, हरि सूँ लागा हेत।
काम क्रोध सूँ झूझणाँ, चौड़े माँड्या खेत॥7॥
सूरै सार सँबाहिया, पहर्या सहज संजोग।
अब कै ग्याँन गयंद चढ़ि, खेत पड़न का जोग॥8॥
सूरा तबही परषिये, लडै धणीं के हेत।
पुरिजा पुरिजा ह्नै पड़ै, तऊ न छाड़ै खेत॥9॥
खेत न छाड़ै सूरिवाँ, झूझै द्वै दल माँहि।
आसा जीवन मरण की, मन आँणे नाहि॥10॥
अब तो झूझ्याँही वणौं, मुढ़ि चाल्या घर दूरि।
सिर साहिब कौ सौंपता, सोच न कीजै सूरि॥11॥
अब तो ऐसी ह्नै पड़ी, मनकारु चित कीन्ह।
मरनै कहा डराइये, हाथि स्यँधौरा लीन्ह॥12॥
जिस मरनै थे जग डरै, सो मरे आनंद।
कब मारिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमाँनंद॥13॥
कायर बहुत पमाँवही बहकि न बोलै सूर।
कॉम पड्याँ ही जाँणिहै, किसके मुख परि नूर॥14॥
जाइ पूछौ उस घाइलै, दिवस पीड निस जाग।
बाँहणहारा जाणिहै, कै जाँणै जिस लाग॥15॥
घाइल घूमै गहि भर्या, राख्या रहे न ओट।
जतन कियाँ जावै नहीं, बणीं मरम की चोट॥16॥
ऊँचा विरष अकासि फल, पंषी मूए झूरि।
बहुत सयाँने पचि रहे, फल निरमल परि दूरि॥17॥
टिप्पणी: ख-पंथी
मूए झूरि।
दूरि भया तौ का भया, सिर दे नेड़ा होइ।
जब लग सिर सौपे नहीं, कारिज सिधि न होइ॥18॥
कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैसे घर माँहि॥19॥
कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीर उतारि पग तलि धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद॥20॥
प्रेम न खेती नींपजे, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥21॥
सीस काटि पासंग दिया, जीव सरभरि लीन्ह।
जाहि भावे सो आइ ल्यौ, प्रेम आट हँम कीन्ह॥22॥
सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस।
आगै थैं हरि मुल किया, आवत देख्या दास॥23॥
भगति दुहेली राम की, नहिं कायर का काम।
सीस उतारै हाथि करि, सो लेसी हरि नाम॥24॥
भगति दुहेली राँम की, नहिं जैसि खाड़े की धार।
जे डोलै तो कटि पड़े, नहीं तो उतरै पार॥25॥
भगति दुहेली राँम की, जैसी अगनि की झाल।
डाकि पड़ै ते ऊबरे, दाधे कौतिगहार॥26॥
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्याँन षड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥27॥
कबीरा हीरा वणजिया, महँगे मोल अपार।
हाड़ गला माटी गली, सिर साटै ब्यौहार॥28॥
जेते तारे रैणि के, तेते बैरी मुझ।
घड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौं तुझ॥29॥
जे हारर्या तौ हरि सवां, जे जीत्या तो डाव।
पारब्रह्म कूँ सेवता, जे सिर जाइ त जाव॥30॥
सिर माटै हरि सेविए, छाड़ि जीव की बाँणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाँणि न जाणि॥31॥
टिप्पणी: ख-सिर
साटै हरि पाइए।
टूटी बरत अकास थै, कोई न सकै झड़ झेल।
साथ सती अरु सूर का, अँणी ऊपिला खेल॥32॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
ढोल
दमामा बाजिया, सबद सुणइ सब कोइ।
जैसल
देखि सती भजे, तौ दुहु कुल हासी होइ॥32॥
सती पुकारै सलि चढ़ी, सुनी रे मीत मसाँन।
लोग बटाऊ चलि गए, हम तुझ रहे निदान॥33॥
सती बिचारी सत किया, काठौं सेज बिछाइ।
ले सूती पीव आपणा, चहुँ दिसि अगनि लगाइ॥34॥
सती सूरा तन साहि करि, तन मन कीया घाँण।
दिया महौल पीव कूँ, तब मड़हट करै बषाँण॥35॥
सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनन जीव निकल्या, भूति गई सब देह॥36॥
सती जलन कूँ नीकली, चित धरि एकबमेख।
तन मन सौंप्या पीव कूँ, तब अंतर रही न रेख॥37॥
टिप्पणी: ख-जलन
को नीसरी।
हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूंवा पीछे सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ॥38॥
कबीर प्रगट राम कहि, छाँनै राँम न गाइ।
फूस कौ जोड़ा दूरि करि, ज्यूँ बहुरि लागै लाइ॥39॥
कबीर हरि सबकूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ॥40॥
आप सवारथ मेदनी, भगत सवारथ दास।
कबीर राँम सवारथी, जिनि छाड़ीतन की आस॥41॥696॥
(46) काल कौ अंग
झूठे सुख कौ सुख कहैं, मानत है मन मोद।
खलक चवीणाँ काल का, कुछ मुख मैं कुछ गोद॥1॥
आज काल्हिक जिस हमैं, मारगि माल्हंता।
काल सिचाणाँ नर चिड़ा, औझड़ औच्यंताँ॥2॥
काल सिहाँणै यों खड़ा, जागि पियारो म्यंत।
रामसनेही बाहिरा तूँ क्यूँ सोवै नच्यंत॥3॥
सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर उपरै, ज्यूँ तोरणि आया बींद॥4॥
टिप्पणी: ख-निसह
भरि।
आज कहै हरि काल्हि भजौगा, काल्हि कहे फिरि काल्हि।
आज ही काल्हि करंतड़ाँ, औसर जासि चालि॥5॥
कबीर पल की सुधि नहीं, करै काल्हि का साज।
काल अच्यंता झड़पसी, ज्यूँ तीतर को बाज॥6॥
कबीर टग टग चोघताँ, पल पल गई बिहाइ।
जीव जँजाल न छाड़ई, जम दिया दमामा आइ॥7॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
जूरा
कूंती, जीवन सभा, काल अहेड़ी बार।
पलक
बिना मैं पाकड़ै, गरव्यो कहा गँवार॥8॥
मैं अकेला ए दोइ जणाँ छेती नाँहीं काँइ।
जे जम आगै ऊबरो, तो जुरा पहूँती आइ॥8॥
बारी-बारी आपणीं, चेले पियारे म्यंत।
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत॥9॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
मालन
आवत देखि करि, कलियाँ करी पुकार।
फूले
फूले चुणि लिए, काल्हि हमारी बार॥11॥
बाढ़ी
आवत देखि करि, तरवर डोलन लाग।
हम
कटे की कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग॥12॥
फाँगुण
आवत देखि करि, बन रूना मन माँहि।
ऊँची
डाली पात है, दिन दिन पीले थाँहि॥13॥
पात
पंडता यों कहै, सुनि तरवर बणराइ।
अब
के बिछुड़े ना मिलै, कहि दूर पड़ैगे जाइ॥14॥
दों की दाधी लाकड़ी, ठाढ़ी करै पुकार।
मति बसि पड़ौं लुहार के, जालै दूजी बार॥10॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
मेरा
बीर लुहारिया, तू जिनि जालै मोहि।
इक
दिन ऐसा होइगा, हूँ जालौंगी तोहि॥15॥
जो ऊग्या सो आँथवै, फूल्या सो कुमिलाइ।
जो चिणियाँ सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ॥11॥
जो पहर्या सो फाटिसी, नाँव धर्या सो जाइ।
कबीर सोइ तत्त गहि, जो गुरि दिया बताइ॥12॥
निधड़क बैठा राम बिन, चेतनि करै पुकार।
यहु तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार॥13॥
पाँणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिंगे, तारे ज्यूँ परभाति॥14॥
टिप्पणी: ख-एक
दिनाँ नटि जाहिगे, ज्यूँ तारा परभाति।
ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
पंच पखेरुवा, राखे पोष लगाइ।
एक
जु आया पारधी, ले गयो सबै उड़ाइ॥21॥
कबीर यहु जग कुछ नहीं, षिन षारा षिन मीठ।
काल्हि जु बैठा माड़ियां, आज नसाँणाँ दीठ॥15॥
टिप्पणी: ख-काल्हि
जु दीठा मैंड़िया।
कबीर मंदिर आपणै, नित उठि करती आलि।
मड़हट देष्याँ डरपती, चौड़े दीन्हीं जालि॥16॥
टिप्पणी: ख-बैठी
करतौं आलि।
मंदिर माँहि झबूकती, दीवा केसी जोति।
हंस बटाऊ चलि गया, काढ़ौ घर की छोति॥17॥
ऊँचा मंदिर धौलहर, माटी चित्री पौलि।
एक राम के नाँव बिन, जँम पाड़गा रौलि॥18॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे ये दोहे हैं-
काएँ
चिणावै मालिया, चुनै माटी लाइ।
मीच
सुणैगी पायणी, उधोरा लैली आइ॥26॥
काएँ
चिणावै मालिया, लाँबी भीति उसारि।
घर
तौ साढ़ी तीनि हाथ, घणौ तौ पौंणा चारि॥27॥
ऊँचा
महल चिणाँइयाँ, सोवन कलसु चढ़ाइ।
ते
मंदर खाली पड़ा, रहे मसाणी जाइ॥28॥
कबीर कहा गरबियो, काल गहै कर केस।
नाँ जाँणै कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस॥19॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
इहर
अभागी माँछली, छापरि माँणी आलि।
डाबरड़ा
छूटै नहीं, सकै त समंद सँभालि॥30॥
मँछी
हुआ न छूटिए, झीवर मेरा काल।
जिहिं
जिहिं डाबर हूँ फिरौ, तिहि तिहिं माँड़ै जाल॥31॥
पाँणी
माँहि ला माँछली, सक तौ पाकड़ि तीर।
कड़ी
कूद की काल की, आइ पहुँता कीर॥32॥
मंद
बिकंता देखिया, झीवर के करवारि।
ऊँखड़िया
रत बालियाँ, तुम क्यूँ बँधे जालि॥33॥
पाँणी
मँहि घर किया, चेजा किया पतालि।
पासा
पड़ा करम का, यूँ हम बीधे जाल॥34॥
सूकण
लगा केवड़ा, तूटीं अरहर माल।
पाँणी
की कल जाणताँ, गया ज सीचणहार॥35॥
कबीर जंत्रा न बाजई, टूटि गए सब तार।
जंत्रा बिचारा क्या करै, चलै बजावणहार॥20॥
टिप्पणी: ख-कबीर
जंत्रा न बाजई।
धवणि धवंती रहि गई, बुझि गए अंगार।
अहरणि रह्या ठमूकड़ा, जब उठि चले लुहार॥21॥
टिप्पणी: ख-ठमेकड़ा
उठि गए।
ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
हरणी दूबली, इस हरियालै तालि।
लख
अहेड़ी एक जीव, कित एक टालौ भालि॥38॥
पंथी ऊभा पंथ सिरि, बुगचा बाँध्या पूठि।
मरणाँ मुँह आगै खड़ा, जीवण का सब झूठ॥22॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
जिसहि
न हरण इत जागि, सी क्यूँ लौड़े मीत।
जैसे
पर घर पाहुण, रहै उठाए चीत॥40॥
यहु जिव आया दूर थैं, अजौ भी जासी दूरि।
बिच कै बासै रमि रह्या, काल रह्या सर पूरि॥23॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर
गफिल क्या फिरै, सोवै कहा न चीत।
एवड़
माहि तै ले चल्या, भज्या पकड़ि षरीस॥45॥
साईं
सू मिसि मछीला, के जा सुमिरै लाहूत।
कबही
उझंकै कटिसी, हुँण ज्यों बगमंकाहु॥46॥
राम कह्या तिनि कहि लिया, जुरा पहूँती आइ।
मंदिर लागै द्वार यै, तब कुछ काढणां न जाइ॥24॥
बरिया बीती बल गया, बरन पलट्या और।
बिगड़ीबात न बाहुणै, कर छिटक्याँ कत ठौर॥25॥
टिप्पणी: ख-कर
छूटाँ कत ठौर।
बरिया बीती बल गया, अरू बुरा कमाया।
हरि जिन छाड़ै हाथ थैं, दिन नेड़ा आया॥26॥
कबीर हरि सूँ हेत करि, कूड़ै चित्त न लाव।
बाँध्या बार षटीक कै, तापसु किती एक आव॥27॥
टिप्पणी: ख-
कड़वे तन लाव।
बिष के बन मैं घर किया, सरप रहे लपटाइ।
ताथैं जियरे डरैं गह्या, जागत रैणि बिहाइ॥28॥
कबीर सब सुख राम है, और दुखाँ की रासि।
सुर नर मुनिवर असुर सब, पड़े काल की पासि॥29॥
काची काया मन अथिर, थिर थिर काँम करंत।
ज्यूँ ज्यूँ नर निधड़क फिरै, त्यूँ त्यूँ काल हसंत॥30॥
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
बेटा
जाया तो का भया, कहा बजावै थाल।
आवण
जाणा ह्नै रहा, ज्यौ कीड़ी का थाल॥51॥
रोवणहारे भी मुए, मुए जलाँवणहार।
हा हा करते ते मुए, कासनि करौं पुकार॥31॥
जिनि हम जाए ते मुए, हम भी चालणहार।
जे हमको आगै मिलै, तिन भी बंध्या मार॥32॥725॥
(47) सजीवनी कौ अंग
जहाँ जुरा मरण ब्यापै नहीं, मुवा न सुणिये कोइ।
चलि कबीर तिहि देसड़ै, जहाँ बैद विधाता होइ॥1॥
टिप्पणी: ख-जुरा
मीच।
कबीर जोगी बनि बस्या, षणि खाये कंद मूल।
नाँ जाणौ किस जड़ी थैं, अमर गए असथूल॥2॥
कबीर हरि चरणौं चल्या, माया मोह थैं टूटि।
गगन मंडल आसण किया, काल गया सिर कूटि॥3॥
यहु मन पटकि पछाड़ि लै, सब आपा मिटि जाइ।
पंगुल ह्नै पिवपिव करै, पीछै काल न खाइ॥4॥
कबीर मन तीषा किया, बिरह लाइ षरसाँड़।
चित चणूँ मैं चुभि रह्या तहाँ नहीं काल का पाण॥5॥
टिप्पणी: ख-मन
तीषा भया।
तरवर तास बिलंबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंषी केलि करंत॥6॥
दाता तरवर दया फल, उपगारी जीवंत।
पंषी चले दिसावराँ, बिरषा सुफल फलंत॥7॥732॥
(48) अपारिष कौ अंग
पाइ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि।
जोड़ी बिछुटी हंस की, पड़ा बगाँ के साथि॥1॥
टिप्पणी: ख-चल्याँ
बगाँ के साथि।
टिप्पणी: ख
प्रति में इसके पहिले ये दोहे हैं-
चंदन
रूख बदस गयो, जण जण कहे पलास।
ज्यों
ज्यों चूल्है लोंकिए, त्यूँ त्यूँ अधिकी बास॥1॥
हंसड़ो
तो महाराण को, उड़ि पड्यो थलियाँह।
बगुलौ
करि करि मारियो, सझ न जाँणै त्याँह॥2॥
हंस
बगाँ के पाहुँना, कहीं दसा कै केरि।
बगुला
कांई गरबियाँ, बैठा पाँख पषेरि॥3॥
बगुला
हंस मनाइ लै, नेड़ों थकाँ बहोड़ि।
त्याँह
बैठा तूँ उजला, त्यों हंस्यौ प्रीति न
तोड़ि॥4॥
एक अचंभा देखिया, हीरा हाटि बिकाइ।
परिषणहारे बाहिरा, कौड़ी बदले जाइ॥2॥
कबीर गुदड़ी बीषरी, सौदा गया बिकाइ।
खोटा बाँध्याँ गाँठड़ी, इब कुछ लिया न जाइ॥3॥
पैड़ै मोती बिखर्या, अंधा निकस्या आइ।
जोति बिनाँ जगदीश की, जगत उलंघ्या जाइ॥4॥
कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चाँम चटाइ॥5॥737॥
(49) पारिष कौ अंग
जग गुण कूँ गाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाइ।
जब गुण कौ गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाइ॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
मनमना तौलिए, सबदाँ मोल न तोल।
गौहर
परषण जाँणहीं, आपा खोवै बोल॥7॥
कबीर लहरि समंद की मोती बिखरे आइ।
बगुला मंझ न जाँणई, हंस जुणे चुणि खाइ॥2॥
हरि हीराजन जौहरी, ले ले माँडिय हाटि।
जबर मिलैगा पारिषु, तब हीराँ की साटि॥3॥740॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर
सपनही साजन मिले, नइ नइ करै जुहार।
बोल्याँ
पीछे जाँणिए, जो जाको ब्योहार॥4॥
मेरी
बोली पूरबी, ताइ न चीन्है कोइ।
मेरी
बोली सो लखै, जो पूरब का होइ॥5॥
(50) उपजणि कौ अंग
नाव न जाणै गाँव का, मारगि लागा जाँउँ।
काल्हि जु काटा भाजिसी, पहिली क्यों न खड़ाउँ॥1॥
सीप भई संसार थैं, चले जु साईं पास।
अबिनासी मोहिं ले चल्या, पुरई मेरी आस॥2॥
इंद्रलोक अचरिज भया, ब्रह्मा पड्या बिचार।
कबीर चाल्या राम पै, कौतिगहार अपार॥3॥
टिप्पणी: ख-ब्रह्मा
भया विचार।
ऊँचा चढ़ि असमान कू, मेरु ऊलंधे ऊड़ि।
पसू पंषेरू जीव जंत, सब रहे मेर में बूड़ि॥4॥
टिप्पणी: ख-ऊँचा
चाल।
सद पाँणी पाताल का, काढ़ि कबीरा पीव।
बासी पावस पड़ि मुए, बिषै बिलंबे जीव॥5॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
हरिका डर्पतां, ऊन्हाँ धान न खाँउँ।
हिरदय
भीतर हरि बसै, ताथै खरा डराउँ॥7॥
कबीर सुपिनै हरि मिल्या, सूताँ लिया जगाइ।
आषि न मीचौं डरपता, मति सुपिनाँ ह्नै जाइ॥6॥
गोब्यंद कै गुण बहुत है, लिखे जु हरिदै माँहि।
डरता पाँणी ना पिऊँ, मति वे धोये जाँहि॥7॥
कबीर अब तौ ऐसा भया, निरमोलिक निज नाउँ।
पहली काच कबीर था, फिरता ठाँव ठाँवै ठाउँ॥8॥
भौ समंद विष जल भर्या, मन नहीं बाँधै धीर।
सबल सनेही हरि मिले, तब उतरे पारि कबीर॥9॥
भला सहेला ऊतरîर, पूरा मेरा भाग।
राँम नाँव नौका गह्या, तब पाँणी पंक न लाग॥10॥
कबीर केसौ की दया, संसा घाल्या खोइ।
जे दिन गए भगति बिन, ते दिन सालै मोहि॥11॥
टिप्पणी: ख-संता
मेल्हा।
कबीर जाचण जाइया, आगै मिल्या अंच।
ले चाल्या घर आपणै, भारी खाया खंच॥12॥
(51) दया निरबैरता कौ अंग
कबीर दरिया प्रजल्या, दाझै जल थल झोल।
बस नाँहीं गोपाल सौ, बिनसै रतन अमोल॥1॥
ऊँनमि बिआई बादली, बर्सण लगे अँगार।
उठि कबीरा धाह थे, दाझत है संसार॥2॥
दाध बली ता सब दुखी, सुखी न देखौ कोइ।
जहाँ कबीरा पग धरै, तहाँ टुक धीरज होइ॥3॥755॥
(52) सुंदरि कौ अंग
कबीर सुंदरि यों कहै, सुणि हो कंत सुजाँण।
बेगि मिलौ तुम आइ करि, नहीं तर तजौं पराँण॥1॥
कबीर जाकी सुंदरी, जाँणि करै विभचार।
ताहि न कबहूँ आदरै, प्रेम पुरिष भरतार॥2॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
दाध
बली तो सब दुखी, सुखी न दीसै कोइ।
को
पुत्र को बंधवाँ, को धणहीना होइ॥3॥
जे सुंदरि साईं भजै, तजै आन की आस।
ताहि न कबहूँ परहरै, पलक न छाड़ै पास॥3॥
इस मन को मैदा करौ, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीस॥4॥
हरिया पारि हिंडोलना, मेल्या, कंत मचाइ।
सोई नारि सुलषणी, नित प्रति झूलण जाइ॥5॥760॥
(53) कस्तूरियाँ मृग कौ
अंग
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसै घटि घटि राँम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि॥1॥
कोइ एक देखै संत जन, जाँकै पाँचूँ हाथि।
जाके पाँचूँ बस नहीं, ता हरि संग न साथि॥2॥
सो साईं तन में बसै, भ्रम्यों न जाणै तास।
कस्तूरी के मृग ज्यूँ फिरि फिरि सूँघै घास॥3॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे ये दोहे हैं-
हूँ
रोऊँ संसार कौ, मुझे न रोवै कोइ।
मुझको
सोई रोइसी, जे राम सनेही होइ॥5॥
मूरो
कौ का रोइए, जो अपणै घर जाइ।
रोइए
बंदीवान को, जो हाटै हाट बिकाइ॥6॥
बाग
बिछिटे मिग्र लौ, ति हि जि मारै कोइ।
आपै
हौ मरि जाइसी, डावाँ डोला होइ॥7॥
कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल दीप।
राम तौ घट भीतर रमि रह्या, जो आवै परतीत॥4॥
घटि बधि कहीं न देखिए, ब्रह्म रह्या भरपूरि।
जिनि जान्या तिनि निकट है, दूरि कहैं थे दूरि॥5॥
मैं जाँण्याँ हरि दूरि है, हरि रह्या सकल भरपूरि।
आप पिछाँणै बाहिरा, नेड़ा ही थैं दूरि॥6॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर
बहुत दिवस भटकट रह्या, मन में विषै विसाम।
ढूँढत
ढूँढत जग फिर्या, तिणकै ओल्है राँम॥7॥
तिणकै ओल्हे राम है, परबत मेहैं भाइ।
सतगुर मिलि परचा भया, तब हरि पाया घट माँहि॥7॥
राँम नाँम तिहूँ लोक मैं, सकलहु रह्या भरपूरि।
यह चतुराई जाहु जलि, खोजत डोलैं दूरि॥8॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
हरि
दरियाँ सूभर भरिया, दरिया वार न पार।
खालिक
बिन खाली नहीं, जेंवा सूई संचार॥10॥
ज्यूँ नैनूँ मैं पूतली, त्यूँ खालिक घट माँहि।
मूरखि लोग न जाँणहिं, बाहरि ढूँढण जाँहि॥9॥769॥
(54) निंद्या कौ अंग
लोगे विचारा नींदई, जिन्ह न पाया ग्याँन।
राँम नाँव राता रहै, तिनहूँ, न भावै आँन॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
निंदक
तौ नाँकी, बिना, सोहै नकटयाँ माँहि।
साधू
सिरजनहार के, तिनमैं सोहै नाँहि॥2॥
दोख पराये देखि करि, चल्या हसंत हसंत।
अपने च्यँति न आवई, जिनकी आदि न अंत॥2॥
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥3॥
न्यंदक दूरि न कीजिये, दीजै आदर माँन।
निरमल तन मन सब करै, बकि बकि आँनहिं आँन॥4॥
जे को नींदे साध कूँ, संकटि आवै सोइ।
नरक माँहि जाँमैं मरैं, मुकति न कबहूँ होइ॥5॥
कबीर घास न नींदिये, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि में, खरा दुहेली होइ॥6॥
आपन यौं न सराहिए, और न कहिए रंक।
नाँ जाँणौं किस ब्रिष तलि, कूड़ा होइ करंक॥7॥
टिप्पणी: आपण
यौ न सराहिये, पर निंदिए न कोइ।
अजहूँ लांबा द्योहड़ा, ना जाणौ क्या होइ॥8॥
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ।
आप ठग्याँ सुख ऊपजै, और ठग्याँ दुख होइ॥8॥
अब कै जे साईं मिलैं, तौ सब दुख आपौ रोइ।
चरनूँ ऊपर सीस धरि, कहूँ ज कहणाँ होइ॥9॥778॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में यह दोहा नहीं है।
(55) निगुणाँ कौ अंग
हरिया जाँणै रूषड़ा, उस पाँणीं का नेह।
सूका काठ न जाणई, कबहू बूठा मेह॥1॥
झिरिमिरि झिरिमिरि बरषिया, पाँहण ऊपरि मेह।
माटी गलि सैंजल भई, पाँहण वोही तेह॥2॥
पार ब्रह्म बूठा मोतियाँ, बाँधी सिषराँह।
सगुराँ सगुराँ चुणि लिया, चूक पड़ी निगुराँह॥3॥
कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूँगर सिषराँह।
नीर मिबाणाँ ठाहरै, नाऊँ छा परड़ाँह॥4॥
कबीर मूँडठ करमिया, नव सिष पाषर ज्याँह।
बाँहणहारा क्या करै, बाँण न लागै त्याँह॥5॥
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझा मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सुपहला दिन॥6॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में यह दोहा नहीं है।
कहि कबीर कठोर कै, सबद न लागै सार।
सुधबुध कै हिरदै भिदै, उपजि विवेक विचार॥7॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे ये दोहे हैं-
बेकाँमी
को सर जिनि बाहै, साठी खोवै मूल गँवावे।
दास
कबीर ताहि को बाहैं, गलि सनाह सनमुखसरसाहै॥8॥
पसुआ
सौ पानी पड़ो, रहि रहि याम खीजि।
ऊसर
बाह्यौ न ऊगसी, भावै दूणाँ बीज॥9॥
मा सीतलता के कारणै, माग बिलंबे आइ।
रोम रोम बिष भरि रह्या, अमृत कहा समाइ॥8॥
सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं विष ह्नै जाइ।
ऐसा कोई नाँ मिले, स्यूँ सरपैं विष खाइ॥9॥
जालौ इहै बड़पणाँ, सरलै पेड़ि खजूरि।
पंखी छाँह न बीसवै, फल लागे ते दूरि॥10॥
ऊँचा कूल के कारणै, बंस बध्या अधिकार।
चंदन बास भेदै नहीं, जाल्या सब परिवार॥11॥
कबीर चंदन के निड़ै, नींव भि चंदन होइ।
बूड़ा बंस बड़ाइताँ, यौं जिनि बूड़ै कोइ॥12॥
(56) बीनती कौ अंग
कबीर साँईं तो मिलहगे, पूछिहिगे कुसलात।
आदि अंति की कहूँगा, उर अंतर की बात॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में यह दोहा नहीं है।
कबीर भूलि बिगाड़िया, तूँ नाँ करि मैला चित।
साहिब गरवा लोड़िये, नफर बिगाड़ै नित ॥2॥
करता करै बहुत गुण, औगुँण कोई नाहिं।
जे दिल खोजौ आपणीं, तो सब औगुण मुझ माँहिं॥3॥
टिप्पणी: ख-प्रति
में इसके आगे यह दोहा है-
बरियाँ
बीती बल गया, अरु बुरा कमाया।
हरि
जिनि छाड़ै हाथ थैं, दिन नेड़ा आया॥3॥
औसर बीता अलपतन, पीव रह्या परदेस।
कलंक उतारी केसवाँ, भाँना भरँम अंदेस॥4॥
कबीर करत है बीनती, भौसागर के ताँई।
बंदे ऊपरि जोर होत है, जँम कूँ बरिज गुसाँई॥5॥
टिप्पणी: ख-कबीरा विचारा करै बिनती।
हज काबै ह्नै ह्नै गया, केती बार कबीर।
मीराँ मुझ मैं क्या खता, मुखाँ न बोलै पीर॥6॥
ज्यूँ मन मेरा तुझ सों, यौं जे तेरा होइ।
ताता लोबा यौं मिले, संधि न लखई कोइ॥7॥797॥
(57) साषीभूत कौ अंग
कबीर पूछै राँम कूँ, सकल भवनपति राइ।
सबही करि अलगा रहौ, सो विधि हमहिं बताइ॥1॥
जिहि बरियाँ साईं मिलै, तास न जाँणै और।
सब कूँ सुख दे सबद करि, अपणीं अपणीं ठौर॥2॥
कबीर मन का बाहुला, ऊँचा बहै असोस।
देखत ही दह मैं पड़े, दई किसा कौं दोस॥3॥800॥
(58) बेलि कौ अंग
अब तौ ऐसी ह्नै पड़ी, नाँ तूँ बड़ी न बेलि।
जालण आँणीं लाकड़ी, ऊठी कूँपल मेल्हि॥1॥
आगै आगै दौं जलैं, पीछै हरिया होइ।
बलिहारी ता विरष की, जड़ काट्याँ फल होइ॥2॥
टिप्पणी: ख-दौं बलै।
जे काटौ तो डहडही, सींचौं तौ कुमिलाइ।
इस गुणवंती बेलि का, कुछ गुँण कहाँ न जाइ॥3॥
आँगणि बेलि अकासि फल, अण ब्यावर का दूध।
ससा सींग की धूनहड़ी, रमै बाँझ का पूत॥4॥
कबीर कड़ई बेलड़ी, कड़वा ही फल होइ।
साँध नाँव तब पाइए, जे बेलि बिछोहा होइ॥5॥
सींध भइ तब का भया, चहूँ दिसि फूटी बास।
अजहूँ बीज अंकूर है, भीऊगण की आस॥6॥806॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा
है-
सिंधि
जू सहजै फुकि गई, आगि लगी बन माँहि।
बीज
बास दून्यँ जले, ऊगण कौं कुछ नाँहि॥7॥
(59) अबिहड़ कौ अंग
कबीर साथी सो किया, जाके सुख दुख नहीं कोइ।
हिलि मिलि ह्नै करि खेलिस्यूँ कदे बिछोह न होइ॥1॥
कबीर सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ।
गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्वारथ बंधी लोइ॥2॥
आदि मधि अरु अंत लौं, अबिहड़ सदा अभंग।
कबीर उस करता की, सेवग तजै न संग॥3॥809॥
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