![]() |
Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning |
Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning : बिहारी (बिहारीलाल चौबे) हिंदी
के रीति काल के विख्यात महाकवि थे। वह अपनी प्रमुख रचना सतसई के नाम से जाने जाते हैं। बिहारी जी का जन्म संवत् 1603 ई.
ग्वालियर में हुआ। उनके पिता का नाम केशवराय था। इनके जन्म के
सम्बन्ध में निम्न दोहा प्रचलित है-
जन्म ग्वालियर
जानिये, खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आये सुघर, मथुरा बसि ससुराल।।
अर्थ –
बिहारी जी का बाल्यकाल बुंदेलखंड में बीता एवं युवावस्था ससुराल मथुरा में बीती।
Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning
बिहारी
की रचनाओं (Bihari Ke
Dohe) का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने
श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में
बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। उसमें बड़ी
मार्मिकता है। हालाँकि
इनके काव्य का अर्थ शाब्दिक नहीं होता था ये थोड़े
में अथाह का भाव व्यक्त करते हैं। इस बारे
में बिहारी जी कहते हैं –
सतसइया के दोहरा
ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं
घाव करैं गम्भीर।।
अर्थ – उनकी रचना सतसई के दोहे देखने में छोटे हैं जैसे ‘नावक’ (एक प्रकार का
तीर जो बहुत छोटा होता हैं) लेकिन गहरा गंभीर घाव छोड़ता हैं। उसी प्रकार सतसई के
दोहे छोटे हैं लेकिन उनमे अथाह ज्ञान समाहित हैं।
बिहारी के 20 प्रसिद्ध दोहे
हिंदी अर्थ के साथ
1 - मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झांई परै, श्याम
हरित-दुति होय ॥
इस दोहे
के दो अर्थ हैं इस दोहे के में बिहारी लाल श्री कृष्ण के साथ विराजमान होने वाली
श्रृंगार की अधिष्ठात्री देवी राधिका जी की स्तुति करते हैं। राधा जी के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने
लगते है। दूसरा अर्थ है कि राधा की छाया पड़ने से कृष्ण हरित (प्रसन्न) हो उठते
हैं।
2- कौन भाति रहिहै
बिरदु ब देखिबी मुरारि।
बीधे भोसौं आइकै गीधे गीधहिं तारि॥
बिरद = ख्याति, कीर्ति।
मुरारि = श्रीकृष्ण। बीधे = बिधना, उलझना। गीधे = परक
गये थे, चस्का लग गया था।
हे श्रीकृष्ण, अब देखूँगा कि
तुम्हारा यश किस तरह (अक्षुण्ण) रहता है! (तुम) गीध (जटायु) को तारकर परक गये थे, किन्तु अब मुझसे आनकर उलझे हो-(मुझ-जैसे अधम को तारो, तो जानूँ!)
3 - जगतु जान्यौ
जिहिं सकलु सो हरि जान्यौ नाहिं।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखि न देखी जाहिं॥
इस दोहे के माध्यम से बिहारी लाल जी ईश्वर के
भक्तों को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि, वें अपने आराध्य, जिसने उनको संपूर्ण जगत का ज्ञान कराया है, उसके बारे में जान ले। बिहारी लाल जी कहते हैं कि जिस ईश्वर ने
तुम्हें मनुष्य बनाकर इस संसार में भेजा है, तुमने उस ईश्वर को
जाना ही नहीं है।
यह बात
वैसे ही है जैसे कि हम अपनी आंखों के द्वारा इस संसार के समस्त वस्तुओं को तो देख
सकते हैं, परंतु अपनी उन्हीं आंखों के द्वारा अपनी उस आंख
को नहीं देख पाते हैं जिसके द्वारा हम इस संसार को देखते हैं।
4- दीरघ साँस न लेहि
दुख सुख साईं नहि भूलि।
दई-दई क्यौं करतु है दई दई सु कबूलि॥
दीरघ = लम्बी। साईं = स्वामी, ईश्वर। दई = दैव। दई = दिया है।
दुःख में लम्बी साँस न लो, और सुख में ईश्वर को मत भूलो। दैव-दैव क्यों पुकारते हो? दैव (ईश्वर) ने जो दिया है, उसे कबूल (मंजूर)
करो।
5- बंधु भए का दीन
के को तार्यौ रघुराइ।
तूठे-तूठे फिरत हौ झूठे बिरदु कहाइ॥
का = किस। तूठे-तूठे = संतुष्ट होकर। बिरद =
बड़ाई, कीर्ति।
हे रघुनाथ, तुम किस दीन के बंधु
बने-किसके सहायक हुए, और किसको तारा? झूठमूठ
का विरद बुलाकर-अपनी कीर्ति लोगों से कहला कहलाकर-तुम (नाहक) संतुष्ट बने फिरते
हो!
6 - दियौ सु सोस
चढ़ाइ लै आछी भाँति अएरि।
जापैं सुखु चाहतु लियौ ताके दुखहिं न फेरि॥
आछी
भाँति = अच्छी तरह। अएरि = अंगीकार करके। जापैं = जिसपर, जिसके द्वारा। चाहतु = मन-चाह। ताके = उसके।
अच्छी तरह अंगीकार करके (जो कुछ उसने) दिया है, सो शीश पर चढ़ा ले-दुःख ही दिया तो क्या हुआ, उसे भी अंगीकार कर ले। जिससे मनचाहा सुख लिया, उसके (दिये हुए) दुःख को भी मत फेर-वापस न कर।
7- या अनुरागी चित्त
की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों
उज्जलु होइ॥
गति = चाल। कोइ =
कोई। स्याम-रँग = काला रंग,
कृष्ण का रंग। उज्जल = उज्ज्वल, निर्मल।
इस प्रेमी मन की (अटपटी) चाल कोई नहीं समझता; (देखो तो) यह ज्यों-ज्यों (श्रीकृष्ण के) श्याम-रंग में डूबता है, त्यों-त्यों उजला ही होता जाता है।
8- जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै
राँचै ॥
कवि बिहारी
कहते हैं कि बाहरी दिखावा,
पाखण्ड व्यर्थ है। भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखण्ड से नहीं। जप करना, माला पहनना, छापा और तिलक लगाना इन सब प्रकार के पाखण्डों से ईश्वर की प्राप्ति
नहीं होती है। बल्कि जब तक तेरा मन कच्चा है, तब तक तेरा यह सारा
नाचा अर्थात् पाखण्ड व्यर्थ है, इसलिए विषय-वासनाएँ
मिटाकर और बाहरी आडम्बरों को त्यागकर सच्चे मन से ईश्वर की उपासना करनी चाहिए।
9 - घरु-घरु
डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई।।
भाव:- लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि लोभी
ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है।
लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है
अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।
10 - तजि तीरथ
हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।
जिहिं ब्रज-केलि निकुंज-मग पग-पग होत प्रयाग॥
ब्रज-केलि = ब्रजमण्डल की लीलाएँ। निकुंज-मग =
कुंजों के बीच का रास्ता। प्रयोग = तीर्थराज। निकुंज = लताओं के आपस में मिलकर तन
जाने से उनके नीचे जो रिक्त स्थान बन जाते हैं, उन्हें निकुंज वा
कुंज कहते हैं, लता-वितान।
तीर्थों में भटकना छोड़कर उन श्रीकृष्ण और राधिका
के शरीर की छटा से प्रेम करो, जिनकी ब्रज में की
गई क्रीड़ाओं से कुंजों के रास्ते पग-पग में प्रयाग बन जाते हैं - प्रयाग के समान
पवित्र और पुण्यदायक हो जाते हैं।
11 - कब को
टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक
जग बाय ।।
कवि
बिहारी अपने इस दोहे के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कान्हा मैं
कब से तुम्हे व्याकुल होकर पुकार रहा हूँ और तुम हो कि मेरी पुकार सुनकर भी
मेरीमदद नहीं कर रहे हो, मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप
भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।
12 - तंत्री-नाद
कबित्त-रस सरस राग रति-रंग।
अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग॥
तंत्री-नाद = वीणा की झंकार। रति-रंग = प्रेम का
रंग। अनबूड़े = जो नहीं डूबे। तरे = तर गये, पार हो गये।
वीणा की झंकार, कविता
का रस, सरस गाना और प्रेम (अथवा रति-क्रीड़ा) के रंग में
जो नहीं डूबा-तल्लीन नहीं हुआ (समझो कि) वही डूब गया-अपना जीवन नष्ट किया; और जो उसमें सर्वांग डूब गया-एकदम गर्क हो गया, (समझो कि) वही तर गया-पार हो गया-इस जीवन का यथार्थ फल पा गया।
13 - कनक कनक ते सौं
गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं
पाएं बौराय ।।
इस दोहे
में बिहारी जी कहते हैं कि सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो
खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है, सोने को तो पाते ही
व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।
14 - स्वारथु सुकृतु
न, श्रमु वृथा,देखि
विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।
भाव:- हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से
हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात बिहारी कवि
को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा,-हे बाज़ ! दूसरे
व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत
मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही
व्यर्थ कर देते हो।
15 - नर की अरु
नल-नीर की गति एकै करि जोइ।
जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ॥
नल-नीर = नल का पाी। एकै करि = एक ही समान। गति =
चाल। जोइ =देखी जाती है।
आदमी की और नल के पानी की एक ही गति दीख पड़ती
है। वे जितने ही नीचे होकर चलते हैं उतने ही ऊँचे होते हैं। (आदमी जितना ही नम्र
होकर चलेगा, वह उतना ही अधिक उन्नति करेगा, और नल का पानी जितने नीचे से आयगा, उतना ही ऊपर
चढ़ेगा।)
16 - समै-समै सुन्दर
सबै रूपु-कुरूपु न कोइ।
मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ॥
रुचि =
प्रवृत्ति, आसक्ति। जेती = जितनी। जितै = जिधर। तित तेती =
उधर उतनी ही।
समय-समय
पर सभी सुन्दर हैं, कोई सुन्दर और कोई कुरूप नहीं है। मन की
प्रवृत्ति जिधर जितनी होगी,
उधर उतनी ही आसक्ति होगी।
17 - बसैबुराई जासु
तन ताही कौ सनमानु।
भलौ भलौ कहि छोड़ियै खोटैं ग्रह जपु दानु॥
बुराई = अपकार। सनमनु = आदर। खोटैं = बुरे।
जिसके शरीर में बुराई बसती है-जो बुराई करता है, उसी का सम्मान होता है। (देखिए) भले ग्रहों (चन्द्र, बुध आदि) को तो भला कहकर छोड़ देते हैं-और बुरे ग्रहों (शनि, मंगल आदि) के लिए जप और दान किया जाता है।
18 - सोहत ओढ़ैं पीतु
पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात ।।
इस दोहे
में बिहारी ने श्री कृष्ण के साँवले शरीर की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा है कि, कृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे नीलमणि पहाड़ पर सुबह की सूरज की किरणें पड़ रही हो।
19 - तो पर वारौं
उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै
उरबसी समान ।।
राधा को
ऐसा लग रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की
सखी उन्हें समझाते हुए कहती है ; हे राधिका अच्छे से
जान लो, कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर
देंगे क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।
20 - जुबति जोन्ह
मैं मिलि गई नैंकु न होति लखाइ।
सौंधे कैं डौरैं लगी अली चली सँग जाइ॥
जुबति = जवान स्त्री। जोन्ह = चाँदनी। नैंकु =
तनिक। सौंधे = सुगंध। डौरैं लगी = डोर पकड़े, डोरियाई हुई, आश्रय (सहारे) से। अली = सखी।
नवयौवना (नायिका) चाँदनी में मिल गई-उसका
प्रकाशवान गौर शरीर चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणों में साफ मिल गया-जरा भी नहीं दीख
पड़ी! (अतएव, उसकी) सखी सुगंध की डोर पकड़े-उसके शरीर की सुगंध
का सहारा लेकर-(पीछे-पीछे) साथ में चली गई।
लाल तुम्हारे बिरह की अगिनि अनूप
अपार।
सरसै बरसै नीर हूँ झर हूँ मिटै न झार॥41॥
अनूप = जिसकी उपमा (बराबरी) न हो, अनुपम। अपार
= जिसका पार (अन्त) न हो। सरसै = सरसता है, प्रज्वलित होता
है। झर = झड़ी लगना। झार = ज्वाला।
हे लाल! तुम्हारे विरह की आग अनुपम और अपरम्पार है। पानी बरसने पर
(वर्षा होने पर) भी प्रज्वलित होती है, और झड़ी लगने पर
(आँसुओं के गिरने पर) भी उसकी ज्वाला नहीं मिटती।
कौन सुनै कासौं कहौं सुरति बिसारी
नाह।
बदाबदी ज्यौ लेत हैं ए बदरा बदराह॥42॥
सुरति = स्मृति, याद, सुधि।
बदाबदी = शर्त बाँधकर। ज्यौ लेत हैं = जान मारते हैं। बदरा = बादल। बदराह =
कुमार्गी, बदमाश।
कौन सुनता है, किससे कहूँ। प्रीतम ने सुधि
भुला दी। ये बदमाश बादल बाजी लगाकर जान ले रहे हैं-शर्त लगाकर प्राण लेने पर तुले
हैं (इनसे रक्षा कौन करे?)
बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन
माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥43॥
सघन = घना। सदन = घर। तन = शरीर। छाँहौं = छाया भी।
(छाया या तो) अत्यन्त सघन वन में बैठ रही है (या बस्ती के) घर और
(जीव के) शरीर में घुस गई है। (मालूम पड़ता है) जेठ-मास की (झुलसाने वाली) दुपहरी
देखकर छाया भी छाया चाहती है।
औंधाई सीसी सुलखि विरह बरनि बिललात।
बिचहीं सूखि गुलाब गौ छींटौं छुई न गात॥44॥
औंधाई = उलट (उँड़ेल) दी। बरनि = जलती हुई। बिललात = रोती-कलपती है,
व्याकुल हो बक-झक करती है। छीटौं = एक छींटा भी। गात = देह।
विरह से जलती और बिललाती हुई देखकर (सखियों ने नायिका के शरीर पर
गुलाब-जल की) शीशी उलट दी, (किन्तु विरह की धधकती आँच के
कारण) गुलाब-जल बीच ही में सूख गया, (उसका) एक छींटा भी (विरहिणी
के) शरीर को स्पर्श न कर सका।
जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीति
बहार।
अब अलि रही गुलाब मैं अपत कँटीली डार॥45॥
कुसुम = फूल। सु = वह। बहार = (1) छटा (2)
वसन्त। अलि = भौंरा। अपत = पत्र-रहित। कँटीली डार = काँटों से भरी
डाल।
जिन दिनों तुमने वे (गुलाब के) फूल देखे थे, वह
बहर तो बीत गई-वह वसन्त तो चला गया। अरे भौंरे! अब तो गुलाब में पत्र-रहित कँटीली
डालियाँ ही रह गई हैं।
हौं ही बौरी बिरह-बस कै बौरौ सब गाँउ।
कहा जानि ए कहत हैं ससिहिं सोत-कर नाँउ॥46॥
हौं ही = मैं ही। बौरी = पगली। ससिहिं = चन्द्रमा का। सीत-कर = शीतल
किरणों वाला, शीतरश्मि, चन्द्रमा। नाँउ
= नाम।
विरह के कारण मैं ही पगली हो गई हूँ, सारा
सारा गाँव ही पागल हो गया है। न मालूम क्या जानकर ये लोग (ऐसे झुलसाने वाले)
चन्द्रमा का नाम शीत-कर कहते हैं।
सुनत पथिक-मुँह माह-निसि लुवैं चलति
उहिं गाम।
बिनु बूझैं बिनु ही कहैं जियति बिचारी बाम॥47॥
पथिक = राही, यात्री, मुसाफिर।
लुवैं = लू। उहि गाम = उसी ग्राम (गाँव) में। बिचारी = समझा। जियति = जीती है।
बटोही के मुँह से यह सुनकर कि माघ की रात में भी उस गाँव में लू
चलती है, बिना पूछे और बिना कहे-सुने ही (नायक ने) समझ लिया
कि नायिका (अभी) जीती है (और निस्संदेह उसी की विरह-ज्वाला से मेरे गाँव में ऐसी
हालत है।)
इत आवति चलि जाति उत चली छ-सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरैं-सैं रहै लगी उसासनु साथ॥48॥
इत = इधर। उत = उधर। चली = चलायमान या विचलित होकर या झोंके में
पड़कर = खिंचकर। उसासनु = दुःख के कारण निकली हुई आह-भरी लम्बी साँस, जिसे दीर्घ निःश्वास, शोकोच्छ्वास, निसाँस आदि भी कहते हैं।
(विरह-वश अत्यन्त दुर्बल होने के कारण) लम्बी साँसों के साथ लगी हुई
(नायिका मानो) झूले पर चढ़ी-सी रहती है। (झूला झूलने के समान लम्बी साँसों के झोंक
से झूलती रहती है) फलतः वह (ऊँची साँसों के साथ) विचलित न होकर (कमी) छः-सात हाथ
इधर आ जाती है (और कभी छः सात हाथ) उधर चली जाती है (उसका विरह-जर्जर कृश शरीर
उसीकी लम्बी साँस के प्रबल झोंके से दोलायमान हो रहा है।)
पिय कैं ध्यान गही गही रही वही ह्वै
नारि।
आपु आपुही आरसी लखि रीझति रिझवारि॥49॥
गही-गही = पकड़े। आरसी = आईना। आपु आपु ही =
अपने-आप। रिझवारि = मुग्धकारिणी।
प्रीतम के ध्यान में तत्कालीन रहते-रहते नायिका वही हो रही-उसे
स्वयं प्रीतम होने का भान हो गया। (अतएव) वह रिझानेवाली आप ही आरसी देखती और
अपने-आपपर ही रीझती है-अपने-आपको प्रीतम और अपने प्रतिबिम्ब को अपनी मूर्त्ति
समझकर देखती और मुग्ध होती है।
भौ यह ऐसाई समौ, जहाँ सुखद दुखु देत ।
चैत-चाँद व चाँदनी डारति किए अचेत ॥50॥
( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का वचन
सखी से ( अर्थ )-[ प्रियतम के विरह में ] यह समय ऐसा ही हो गया है [कि] जहाँ (जिसमें)
सुखद [पदार्थ] दुःख देते हैं । [देख, यह] चैत्र [मास] के चंद्रमा की चाँदनी [जो संयोग-समय में सुखद थी, इस समय मुझे] अवेत ( विरह-व्यथा का उद्दीपन कर के दुःखाधिक्य के कारण
चेतनाशून्य) किए डालती है॥
समै पलटि पलटै प्रकृति को न तजै निज
चाल।
भौ अकरुन करुना करौ इहिं कुपूत कलिकाल॥51॥
करुना करौ = करुना+आकरौ = करुणा के भण्डार भी। कुपूत = (कु+पूत)
अपूत, अपवित्र, अपावन, पापी।
समय पलट जाने से-जमाना बदल जाने से-प्रकृति भी बदल जाती है। (फलतः
प्रकृति के वशीभूत होकर) अपनी चाल कौन नहीं छोड़ देता है? इस
पापी कलियुग में करुणा के भंडार (श्रीकृष्ण) भी करुणा-रहित (निष्ठुर) हो गये! (तभी
तो मेरी पुकार नहीं सुनते!)
0 टिप्पणियाँ