Baalroop Varnan / Kavitawali कवितावली /Tulsidas /राम का बाल रूप वर्णन / राम का वन गमन वर्णन /BA Hindi Literature First Year Chapter 3 / Baalroop Varnan / Kavitawali

 


(श्रीराम के बालरूप की झाँकी)


श्री अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से।।
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।।
सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरूह -से बिकसे।1


पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
नवनीत कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ।
अरबिंदु से आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन -भृंग पिएँ।
मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ।2


तनकी दुति स्याम सरोरूह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दुरि धरैं।
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यों किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन -मंदिर में बिहरैं।3



बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खेलनकी।
चपला चमकैं घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलनकी।।
घुँघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी।
नेवछावरि प्रान करैं तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी।4


पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ।
लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ।
तुलसी अस बालक सों नहिं नेहु कहा जप जाग समाधि किएँ।
नर वे खर सूकर स्वान समान कहै जगमें फलु कौन जिएँ।5

 

(श्रीराम का वनगमन)

 

पुर ते निकसी रघुवीर वधू, धरि धीर दये मग में डग द्वै।

झलकीं भलि भाल कनी जल की,पुटि सूखि गये मधुराधर वै।

फिर बूझत हैं चलनो अब केतिक,पर्ण कुटी करिहौ कित ह्वै।

तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।

 

जल कों गए लक्खनु, हैं लरिका,परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।

पोंछि पसेउ बयारि करौं , अरु पांय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े।

तुलसी रघुबीर प्रिया-श्रम जानि कै ,बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।

जानकी नाहकौ नेहु लख्यौ,पुलकौ तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।

 


बनिता बनी स्यामल गौर के बीच ,बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।

मग -जोगु न कोमल, क्यों चलिहै, सकुचाति मही पदपंकज छ्वै।

तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।

सब भाँति मनोहर मोहनरूप, अनूप हैं भूपके बालक द्वै।

 

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछीसी भौंहैं।
तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं।
पुँछति ग्रामवधू सिय सों "कही साँवरे से, सखि! रावरे को हैं"?

 

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैँ जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछु मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मानो मंजुल कंज कली॥


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