12. जा घट प्रेम न संचरे,
सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिन प्रान॥
प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इसमें कवि ने ईश्वर के प्रति प्रेम का उल्लेख किया है।
व्याख्या: कवि का कथन है कि जिस
मानव के हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं होता, उस मानव का हृदय शमशान
के समान है। वह लौहार की चमड़े की धोकनी के समान है। जो प्राण के बिना ही सांस
लेती है। कहने का तात्पर्य है कि ईश्वरीय प्रेम से ही मानव सही अर्थों में मानव
बनता है।
13. कबीर संगत साध की,
हरे और की व्याधि।
संगत बुरी कुसाध की, आठों पहर उपाधि॥
प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इस दोहे में कवि ने सज्जन लोगों की संगति करने और
दुर्जनों से बचने की सलाह दी है।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते कि
संतों की संगति करने से दूसरों के दुख भी दूर हो जाते हैं। भाव यह है कि साधु जन
हमेशा कुछ अच्छा ही उपदेश देते हैं। लेकिन दुर्जन का संग बहुत बुरा होता है। वह
आठों पहर कष्ट ही देता है। अतः हमें साधुजनों की संगति करनी चाहिए और दुर्जनों से
सदा दूर रहना चाहिए।
विशेष: (1) यहां सज्जनों की
संगति करने और दुर्जनों से दूर रहने का उपदेश दिया गया है।
(2) अनुप्रास
अलंकार का सुंदर व स्वाभाविक प्रयोग किया गया है।
(3) सहज,
सरल और सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।
(4) दोहा
छंद का सफल प्रयोग हुआ है।
14. कबीर संगत साध की,
ज्यों गंधी का बास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी बास सुबास॥
प्रसंग: प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इस दोहे में कबीरदास जी साधुजनों की संगति की तुलना गंधी की
सुगंध के साथ करते हैं वे कहते हैं कि-
व्याख्या: संतजनों की संगति
सुगंधित पदार्थ यानी इत्र बेचने वाले गंधी की सुगंध के समान होती है। यहां गंधी
हमें कुछ भी नहीं देता तो भी कम से कम हमारे पास सुगंध तो छोड़ जाता है। भाव यह है
कि संतो की संगति मनुष्य के लिए सदा कल्याणकारी होती है।
विशेष: (1) साधुओं
की संगति के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
(2) समूचे दोहे में अनुप्रास अलंकार दर्शनीय है।
(3) गंधी का दृष्टांत सार्थक है।
(4) सहज सरल सामान्य बोलचाल की हिंदी का प्रयोग किया गया
है।
(5) दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।
15. तेरा साईं तुज्झ में,
जो पुहुपन में वास।
कस्तूरी के मिरग ज्यों, फिरि
फिरि ढूंढे घास॥
प्रसंग: प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इस दोहे में कबीर दास जी स्पष्ट करते हैं कि ईश्वर सर्वत्र
व्याप्त है। अतः हमें उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है।
व्याख्या: तुम्हारा स्वामी
अर्थात ईश्वर तुम्हारे ह्रदय में ऐसे ही निवास करता है जैसे फूलों में सुगंध निवास
करती है। लेकिन तुम्हारी स्थिति तो उस मृग के समान है, जिसकी
नाभि में कस्तूरी होती है। लेकिन वह बार-बार घास में कस्तूरी को खोजता फिरता है।
भाव यह है कि परमात्मा घट-घट में व्याप्त है। उसे किसी और जगह ढूंढने की आवश्यकता
नहीं है। उसे ज्ञान द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
विशेष: (1) कवि ने ईश्वर की
सर्व-व्यापकता पर प्रकाश डाला है।
(2) पुनरुक्ति प्रकाश, उपमा तथा
दृष्टांत अलंकार अमका सुंदर प्रयोग है।
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित एवं भावाअभिव्यक्ति
में समर्थ है।
(4) दोहा छंद का सफल प्रयोग किया गया है।
16. जो तिल माही तेल है,
ज्यों चकमक में आगि।
तेरा साईं तुज्झ में, जागि
सकै तो जागि॥
प्रसंग: प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इस दोहे में कबीर दास जी स्पष्ट करते हैं कि ईश्वर सर्वत्र
व्याप्त है। अतः उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं
कि हे साधक जैसे तिलों में तेल होता है और चकमक पत्थर में आग होती है। उसी प्रकार
तुम्हारा स्वामी अर्थात ईश्वर भी तुम्हारे हृदय में निवास करता है। वह कहीं बाहर
नहीं है। प्रत्येक प्राणी के मन में ईश्वर है। इस दोहे दोहे का भाव यह है कि ईश्वर
हमारे घट-घट में व्याप्त है। उसे हम ज्ञान द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
विशेष: (1) ईश्वर
संसार के कण-कण में विद्यमान है। उसे ज्ञान द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।
(2) दृष्टांत अलंकार का प्रयोग है।
(3) तिल और चकमक के उदाहरण सर्वथा सार्थक एवं साभिप्राय हैं।
(4) भाषा सरल, सहज और भावानुकूल है।
(5) दोहा छंद का सफल प्रयोग किया गया है।
17. जो तो को कांटा बुवै,
ताहि बोव तू फूल।
तोहि
फूल को फूल है, वा को है तिरसूल॥
प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इस दोहे में कबीर दास जी इस बात पर बल देते हैं कि हमें
दूसरों का भला ही करना चाहिए।
व्याख्या: कबीरदास जी कहते हैं
कि जो कोई व्यक्ति तुम्हारे लिए कांटे बोता है। तो उसे फूल प्रदान कर अर्थात जो
तुम्हें दुख-कष्ट आदि देता है। आप उसे सुख दे, उसका भला करें। तुम्हारे
लिए तो उसके बोये हुए कांटे भी फूल बन जाएंगे। लेकिन तुम्हारे लिए बोए गए कांटे
उसके लिए त्रिशूल के समान कष्टदायी बन जाएंगे। भाव यह है कि मनुष्य को सदा दूसरों
का भला ही करना चाहिए, बुरा नहीं।
विशेष: (1) दूसरों का भला करने
में ही सच्चा सुख है।
(2) अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
(3) भाषा सरल, सहज एवं भावानुकूल
है।
(4) दोहा छंद का सफल प्रयोग किया गया है।
18. दुर्बल को न सताइये,
जा की मोटी हाय।
बिना जीव की स्वांस से, लौह भसम
हुवै जाये॥
प्रसंग: प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। इस दोहे में कबीर दास जी दीन-हीन तथा कमजोर को कभी भी कष्ट
न देने का उपदेश देते हैं।
व्याख्या: दीन-हीन अथवा कमजोर
व्यक्ति को कभी भी सताना नहीं चाहिए अर्थात उसे कभी भी पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए।
क्योंकि उसकी हाय बड़ी प्रभावशाली होती है। कमजोर एवं गरीब का शाप बड़ा ही घातक
होता है। बिना प्राणी के स्वास से भी लोहा तक जलकर राख हो जाता है। लौहार झोंकनी
की सांसो से लोहे को भी जला देता है फिर जीवित प्राणी की आह तो और भी भयंकर हो सकती
है। अतः उसे कभी भी दुखी नहीं करना चाहिए।
विशेष:(1) यहां
कवि द्वारा कमजोर एवं दुर्बल व्यक्ति को पीड़ा न पहुंचाने की सलाह दी गई है।
(2) दृष्टांत अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
(3) दोहा छंद का सफल प्रयोग किया गया।
(4) शब्द सरल एवं
भावों के अनुकूल है।
19. ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय॥
प्रसंग:
प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं। यहां कवि मधुर वाणी बोलने का उपदेश देता हुआ कहता है कि-
व्याख्या: हमें ऐसी वाणी बोलनी
चाहिए जो हमारे मन के अहंकार को नष्ट कर दे। भाव यह है कि हमें विनम्र एवं मधुर
भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। ऐसी मीठी वाणी औरों को शीतलता तो पहुंचाती ही है
स्वयं को भी प्रफुल्लित करती है।
विशेष: (1) यहां
कवि ने मन के दर्प को नष्ट करने वाली वाणी के प्रयोग पर बल दिया है।
(2) अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
(3) भाषा सरल, सहज एवं भावानुकूल
है।
(4) शब्द चयन सर्वथा उचित एवं भाव अभिव्यक्ति में
समर्थ है।
(4) दोहा छंद का सफल प्रयोग किया गया है।
20. पाहन को क्या पूजिये,
जो नहिं देइ जवाब।
अंधा
नर आसामुखी,
यों ही होय खराब॥
प्रसंग: प्रस्तुत दोहा हमारी
हिंदी की पाठ्यपुस्तक "काव्य-शिखर" में संकलित 'प्रेम' के दोहों में से उद्धृत है। इसके रचयिता
भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि "कबीरदास"
जी हैं।यहां कवि मूर्ति पूजा का खंडन करता हुआ कहता है कि-
व्याख्या: पत्थर को पूजने से
क्या लाभ क्योंकि वह कभी भी उत्तर नहीं देता अर्थात मूर्ति-पूजा करना व्यर्थ है।
एक अज्ञानी व्यक्ति फिर भी आशावान होकर दुखी होता रहता है। भाव यह है कि मूर्ति
(पत्थर की) पूजा से मनुष्य को लाभ नहीं होता। लेकिन वह फिर भी मन में आशा रखकर
पत्थर की पूजा में लगा रहता है। इससे उसे केवल कष्ट की ही प्राप्ति होती है।
विशेष: (1) यहां कवि ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया है।
(2) भाषा सरल सहज एवं भावानुकूल है।
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित एवं भाव अभिव्यक्ति में
समर्थ है।
(4) दोहा छंद का सफल प्रयोग किया गया है।
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