1. सतगुरु सम को है सगा, साधु सम को दात ।
हरि समान को हितू है, हरिजन सम को जात ॥

प्रसंग: प्रस्तुत दोहा हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक “काव्य शिखर” में संकलित “गुरु” शीर्षक के अंतर्गत संकलित दोहों में से लिया गया है। इसके रचयिता भक्ति कालीन निर्गुण संत कवि “कबीर दास” जी हैं । इस दोहे में कवि ने स्पष्ट किया है कि गुरु के समान कोई नहीं है क्योंकि उसी से ज्ञान प्राप्त करके साधक ईश्वर को प्राप्त करता है।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में गुरु के समान हमारा कोई भी सगा संबंधी नहीं है। ईश्वर की खोज करने वाले (साधु) के समान कोई दाता नहीं है। भाव यह कि सच्चा संत ही देनी है क्योंकि वह अपना समस्त ज्ञान अपने शिष्य को प्रदान कर देता है। कबीरदास जी कहते है कि दयालु ईश्वर के समान हमारा और कोई हितैषी नहीं है और ईश्वर भक्तों से बढ़कर कोई श्रेष्ठ जाति नहीं है। अर्थात प्रभु भक्त ही संसार में सब मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं 

 विशेष:  1. यहां कवि ने गुरु, सच्चे संत, ईश्वर तथा ईश्वर भक्त आदि को संसार में सर्वश्रेष्ठ माना है।
 2.अनुप्रास अलंकार का सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग  किया गया है।
3. दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।
4. सहज, सरल और सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।

2. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार ।
लोचन अनंत उघारिया, अनंत दिखावनहार ॥

  इस दोहे में कबीर दास जी ने गुरु को असीम परमात्मा की अनुभूति करवाने वाला स्वीकार किया है।

 सतगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु की महिमा असीम है। इसका वर्णन करना बहुत कठिन है। गुरु ने उसपर ऐसा उपकार किया है वैसा कोई और व्यक्ति नहीं कर सकता। अर्थात गुरु ने उसे सांसारिक मोहमाया से मुक्ति दिलवाई है। गुरु ने ही ज्ञान द्वारा उसकी भीतरी आंखें अर्थात ज्ञान चक्षु खोले हैं। जिससे वह ब्रह्म को प्राप्त कर सका है। इस प्रकार गुरु ही अनंत, अवर्णनीय परमात्मा से साक्षात करवाने वाला है। भाव यह है कि गुरुजी ज्ञान द्वारा मनुष्य के ज्ञान को दूर कर उसे असीम परमात्मा की अनुभूति करवाता है।

 विशेष: गुरु ही ब्रह्मा प्राप्ति का मार्ग दर्शक है।
 अनुप्रास और श्लेष अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
 भाषा सरल एवं प्रभावशाली है।

3. सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय ।
सात समुंद की मसि करूं, गुरु गुन लिखा न जाए ॥

इस दोहे में कबीर दास जी स्पष्ट करते हैं कि गुरु के गुणों का वर्णन करना सर्वथा असंभव है।

व्याख्या:  कबीरदास जी कहते है कि यदि मैं सारी पृथ्वी को कागज बना लूं , सारे वन-प्रदेशों के पेड़ पौधों को लेखनी बना लूं और सातों समुद्रों को स्याही बनाकर सतगुरु के गुणों का वर्णन लिखने बैठूँ तो भी उसके गुणों को लिखा नहीं जा सकता। कवि के कहने का भाव यह है कि सतगुरु के गुणों का वर्णन करना संभव नहीं है। कबीर दास जी का भाव है कि गुरु के असंख्य गुण हैं, उन गुणों का वर्णन करना सामान्य मानव के लिए संभव नहीं है।

  विशेष:  सतगुरु के महत्व का प्रतिपादन किया गया है।
 अनुप्रास अलंकार का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।
 सहज सरल और सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।
 दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।

4.   कबीर ते नर अंध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ॥

 इस दोहे में कबीर दास जी गुरु के महत्व पर पुनः प्रकाश  डालते हैं।

कबीरदास जी कहते हैं कि वे मनुष्य अज्ञानी और एवं मूर्ख हैं जो गुरु को कुछ और नाम देते हैं । सदगुरु तो वही होता है जो मनुष्य को सच्चा ज्ञान देता है। यदि ईश्वर साधक से नाराज हो जाए, उसका साथ छोड़ दे तो, साधक के पास गुरु का सहारा तो है ही। सच्चा गुरु अपने शिष्य का साथ कभी भी नहीं छोड़ता परंतु यदि सतगुरु साधक से नाराज हो जाए तो उसके लिए संसार में कोई सहारा नहीं है। कहने का भाव है कि गुरु का महत्व ईश्वर से भी बढ़कर है। वही साधक को ईश्वर से मिलाने की योग्यता रखता है

विशेष : गुरु के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
सहज सरल एवं सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।
दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।


5.  दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करें न कोई ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय ॥

इस दोहे में कबीर दास जी ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि हरि स्मरण के बिना मनुष्य को सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।

 जब मनुष्य के जीवन में दुख आता है तो वह ईश्वर के नाम का स्मरण करता है लेकिन सुख की स्थिति में कोई भी ईश्वर का स्मरण नहीं करता। यदि सुख की स्थिति में परमात्मा के नाम का स्मरण किया जाए तो मनुष्य को दुख क्यों प्राप्त होगा ?  अर्थात यदि मानव निरंतर परमात्मा के नाम का स्मरण करता रहे तो वह कभी दुखी नहीं होगा बल्कि उसे हमेशा सुख ही मिलेगा।

 विशेष: यहां कवि ने ईश्वर के नाम  स्मरण पर विशेष बल दिया है।
 अनुप्रास एवं यमक अलंकारों का सुंदर एवं स्वाभाविक प्रयोग है।
 सहज सरल एवं सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।
 दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।

6.  माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहि ।
मनुवा तो चहुं दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहि ॥

 इस दोहे में कबीर दास जी ईश्वर के नाम सुमिरन और मन की एकाग्रता पर बल देते हैं।

 व्याख्या:  कबीरदास जी कहते हैं कि साधक हाथ में माला को फेरता है । उधर उसके मुंह में जीभ फिरती रहती है। अर्थात साधक हाथ से माला के मनको को फेरता हुआ मुख से नाम स्मरण करता रहता है। लेकिन उसका मन ईश्वर से एकाग्र नहीं होता। बल्कि उसका मन दशों दिशाओं में भटकता रहता है। अतः उसे स्मरण की संज्ञा नहीं दी जा सकती। सच्चा स्मरण वही होता है जिसमें मन एकाग्र करके ईश्वर का ध्यान किया जाता है।

  विशेष: यहाँ ईश्वर के नाम स्मरण के लिए मन की एकाग्रता पर बल दिया है।
 अनुप्रास अलंकार का सफल प्रयोग हुआ है।
 सहज सरल एवं सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।
 दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।

7. झूठे सुख को सुख कहें, मानत है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥

इस दोहे में कबीर दास जी संसार की नश्वरता का प्रतिपादन करते हैं । 

कबीर के अनुसार संसार के सारे सुख झूठे एवं नश्वर हैं। लेकिन लोग इन सुखों को पाकर खुश होते हैं और मन में आनंदित होते हैं। कहने का भाव यह है कि सांसारिक सुख-सुविधाएं व्यर्थ एवं क्षणभंगुर हैं। वे संसार को मृत्यु के लिए (चबेना) चनों का भोजन कहते है। कुछ प्राणी तो उसके मुख में जा चुके हैं और कुछ उसकी गोद में पड़े हुए हैं अर्थात अभी जीवित है और कभी भी मृत्यु के मुख में जा सकते हैं।

विशेष:  यहां कवि ने संसार की क्षण भंगुरता का प्रतिपादन किया है और सांसारिक सुखों को झूठा कहा है।
“ जगत चबेना काल का” अभिप्राय एवं सार्थक प्रयोग है। जो  मानव को चेतावनी देता है उसकी मृत्यु कभी भी हो सकती है।
 अनुप्रास अलंकार का सुंदर एवं स्वाभाविक प्रयोग है।
 सहज सरल और सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग है।
 दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।

8.   पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की  जाति ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभाति ॥

 इस दोहे में कबीर दास जी ने मानव जीवन की अस्थिरता का उल्लेख किया है।

 व्याख्या : कवि का कहना है कि संसार में रहने वाले हम लोगों की अवस्था तो पानी के बुलबुले के समान है। जिस प्रकार वे क्षण स्थायी हैं। उसी प्रकार हमारा जीवन में कुछ ही देर का है। प्रातः काल होते ही जैसे तारे छुप जाते हैं वैसे ही एक दिन हम भी समाप्त हो जाएंगे। अर्थात यह संसार तो क्षणिक है लेकिन हम इसे स्थाई मान लेते हैं। लेकिन काल का पहिया निरंतर चलता रहता है। जो यहां आया है वह यहां से जाएगा भी अवश्य। हम जीवन भर परमात्मा का स्मरण नहीं करते और मरने से पूर्व यमराज को देखकर पछताते हैं पर तब कुछ नहीं हो सकता।

 विशेष: जीवन की नश्वरता का सुंदर और सटीक वर्णन हुआ है ।
 उदाहरण एवं उपमा अलंकारों का सहज प्रयोग हुआ है।
 भाषा भावों के अनुकूल एवं सरल है।
 दोहा छंद का सफल प्रयोग हुआ है।

9.  माली आवत देखि कै, कलियाँ करें पुकारि ।
फूली-फूली चुनि लिए, काल्हि हमारी बारि ॥

इस दोहे में कबीर दास जी अन्योक्ति परक शैली में मानव जीवन की नश्वरता का प्रतिपादन करते हैं।

 व्याख्या : माली को आते देख कर कलियाँ पुकार-पुकार कर यह कहती हैं कि उसने खिले हुए सारे फूल चुन लिए हैं, तोड़ लिए हैं। आने वाले दिन अर्थात कल जब हम भी खिलकर फूल बनेंगे तो वह हमें भी तोड़ लेगा । भाव यह है कि आज कुछ लोग मृत्यु का ग्रास बन गए हैं । आने वाले समय में जब हमारी आयु पूर्ण हो जाएगी तो हमें भी संसार से विदा होना पड़ेगा।

विशेष : मानव जीवन की नश्वरता पर प्रकाश डाला गया है।
अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश तथा अन्योक्ति अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है 
सहज, सरल और सामान्य बोलचाल की हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया है।

10.  विरह कमंडल कर लिये, बैरागी दोऊ नैन।
मांगे दरस मधुकरी, छके रहें दिन रैन ॥

 इस दोहे में भक्ति कालीन संत काव्य धारा के प्रमुख कवि कबीर दास जी ने स्पष्ट किया कि बिरही साधक ईश्वर के दर्शन करके ही संतुष्ट होता है।

व्याख्या : कबीर का कहना है कि सच्चा साधक वियोग रूपी कमंडल हाथ में लिए रहता है। उसके दोनों नेत्र विरक्त सन्यासी की तरह घूमते रहते हैं और ईश्वर के दर्शन रूपी मधुकरी अर्थात पके हुए भोजन की भिक्षा मांगते रहते हैं। भिक्षा मिलने के पश्चात साधक के नेत्र रूपी सन्यासी रात-दिन तृप्त रहते हैं। जिस प्रकार कोई सन्यासी मधुकरी प्राप्त करके संतुष्ट हो जाता है। उसी प्रकार साधक के नेत्र भी अपने प्रियतम अर्थात प्रभु के दर्शन करके तृप्त हो जाते हैं।

विशेष : यहां कवि ने मधुकरी का दृष्टांत देकर ईश्वरीय दर्शन के आनंद का वर्णन किया है।
 कुछ सन्यासी ऐसे होते हैं जो केवल पका हुआ भोजन ही स्वीकार करते हैं यहां उन्हीं का दृष्टांत दिया गया है।

11. प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देही लै जाय ॥
 
व्याख्या : यहां कबीर दास जी ने कहा है कि भगवान के प्रति जो प्रेम है वह किसी खेत में नहीं उगता और ना ही किसी बाजार में बिकता है। भगवान का प्रेम सभी को प्राप्त हो सकता है । चाहे वह अमीर हो या गरीब । राजा हो या उसकी प्रजा । उसके लिए सिर्फ एक ही शर्त है कि उसे अपना अहंकार त्यागना होगा । कबीर दास जी के अनुसार हम भगवान के प्रेम को सिर्फ अपना अहंकार त्यागकर ही प्राप्त कर सकते है ।

विशेष : अहंकार को त्यागकर ही प्रभु प्रेम प्राप्त हो सकता है । इसका त्तात्पर्य यह है कि प्रभु भक्ति मे हमारा अहंकार ही सबसे बड़ी बाधा है ।