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राजस्थान की रजत बूँदें-Rajasthan ki rajat bunden class 11 |
राजस्थान की रजत बूँदें/Rajasthan ki rajat bunden class 11/NCERT Solutions Rajasthan ki rajat bunden class 11NCERT Solutions for Class 11 Hindi Core – पूरक
पाठ्यपुस्तक – राजस्थान की रजत बूँदें
अनुपम मिश्र का जन्म 1948 ई. में
महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ। ये पर्यावरण प्रेमी हैं तथा पर्यावरण संबंधी कई
आंदोलन से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे हैं। इन्होंने लोगों को पर्यावरण के प्रति
जागरूक करने का अभियान भी छेड़ा है। ये 1977 ई. से गाँधी
शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण कक्ष से संबद्ध रहे हैं। इन्होंने पर्यावरण संबंधी
मुद्दों पर कई पुस्तकें लिखी हैं।
पाठ का सारांश
यह रचना राजस्थान की जल-समस्या का समाधान मात्र नहीं है, बल्कि यह जमीन की अतल गहराइयों में जीवन की पहचान है। यह
रचना धीरे-धीरे भाषा की ऐसी दुनिया में ले जाती है जो कविता नहीं है, कहानी नहीं है, पर पानी की हर
आहट की कलात्मक अभिव्यक्ति है। लेखक राजस्थान की रेतीली भूमि में पानी के स्रोत
कुंई का वर्णन करता है। वह बताता है कि कुंई खोदने के लिए चेलवांजी काम कर रहा है।
वह बसौली से खुदाई कर रहा है। अंदर भयंकर गर्मी है।
गर्मी कम करने के लिए बाहर खड़े लोग बीच-बीच में मुट्ठी भर
रेत बहुत जोर से नीचे फेंकते हैं। इससे ताजी हवा अंदर आती है और गहराई में जमा
दमघोंटू गर्म हवा बाहर निकलती है। चेलवांजी सिर पर काँसे, पीतल या अन्य किसी धातु का बर्तन टोप की तरह पहनते हैं, ताकि चोट न लगे। थोड़ी खुदाई होने पर इकट्ठा हुआ मलवा
बाल्टी के जरिए बाहर निकाला जाता है। चेलवांजी कुएँ की खुदाई व चिनाई करने वाले
प्रशिक्षित लोग होते हैं। कुंई कुएँ से छोटी होती है, परंतु गहराई कम नहीं होती। कुंई में न सतह पर बहने वाला
पानी आता है और न भूजल।
मरुभूमि में रेत अत्यधिक है। यहाँ वर्षा का पनी शीघ्र भूमि
में समा जाता है। रेत की सतह से दस पंद्रह हाथ से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर
की पट्टी चलती है। इस पट्टी से मिट्टी के परिवर्तन का पता चलता है। कुओं का पानी
प्रायः खारा होता है। पीने के पानी के लिए कुंइयाँ बनाई जाती हैं। पट्टी का तभी
पता चलता है जहाँ बरसात का पानी एकदम नहीं समाता। यह पट्टी वर्षा के पानी व गहरे
खारे भूजल को मिलने से रोकती है। अत: बरसात का पानी रेत में नमी की तरह फैल जाता
है। रेत के कण अलग होते हैं, वे चिपकते नहीं।
पानी गिरने पर कण भारी हो जाते हैं, परंतु अपनी जगह
नहीं छोड़ते। इस कारण मरुभूमि में धरती पर दरारें नहीं पड़तीं वर्षा का भीतर समाया
जल अंदर ही रहता है। यह नमी बूंद-बूंद करके कुंई में जमा हो जाती है।
राजस्थान में पानी को तीन रूपों में बाँटा है- पालरपानी
यानी सीधे बरसात से मिलने वाला पानी है। यह धरातल पर बहता है। दूसरा रूप पातालपानी
है जो कुंओं में से निकाला जाता है तीसरा रूप है-रेजाणीपानी। यह धरातल से नीचे
उतरा, परंतु पाताल में न मिलने वाला पानी रेजाणी है। वर्षा
की मात्रा ‘रेजा’ शब्द से मापी
जाती है जो धरातल में समाई वर्षा को नापता है। यह रेजाणीपानी खड़िया पट्टी के कारण
पाताली पानी से अलग रहता है अन्यथा यह खारा हो जाता है। इस विशिष्ट रेजाणी पानी को
समेटती है कुंई। यह चार-पाँच हाथ के व्यास तथा तीस से साठ-पैंसठ हाथ की गहराई की
होती है। कुंई का प्राण है-चिनाई। इसमें हुई चूक चेजारो के प्राण ले सकती है।
हर दिन की खुदाई से निकले मलबे को बाहर निकालकर हुए काम की
चिनाई कर दी जाती है। कुंई की चिनाई ईट या रस्से से की जाती है। कुंई खोदने के
साथ-साथ खींप नामक घास से मोटा रस्सा तैयार किया जाता है, फिर इसे हर रोज कुंई के तल पर दीवार के साथ सटाकर गोला बिछाया
जाता है। इस तरह हर घेरे में कुंई बँधती जाती है। लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई
में रस्से की एक कुंडली का सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा
चाहिए। इस तरह करीब चार हजार हाथ लंबे रस्से की जरूरत पड़ती है।
पत्थर या खींप न मिलने पर चिनाई का कार्य लकड़ी के लंबे
लट्ठों से किया जाता है। ये लट्ठे, अरणी, बण, बावल या कुंबट के पेड़ों की मोटी टहनियों से बनाए
जाते हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर एक-दूसरे में फँसाकर सीधे खड़े किए जते हैं तथा
फिर इन्हें खींप की रस्सी से बाँधा जाता है। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही काम
समाप्त हो जाता है और कुंई की सफलता उत्सव का अवसर बनती है। पहले काम पूरा होने पर
विशेष भोज भी होता था। चेजारो की तरह-तरह की भेंट, वर्ष-भर के
तीज-त्योहारों पर भेंट, फसल में हिस्सा आदि दिया जाता था, परंतु अब सिर्फ मजदूरी दी जाती है।
जैसलमेर में पालीवाल ब्राह्मण व मेघवाल गृहस्थी स्वयं
कुंइयाँ खोदते थे। कुंई का मुँह छोटा रखा जाता है। इसके तीन कारण हैं। पहला रेत
में जमा पानी से बूंदें धीरे-धीरे रिसती हैं। मुँह बड़ा होने पर कम पानी अधिक फैल
जाता है, अत: उसे निकाला नहीं जा सकता। छोटे व्यास की कुंई में
पानी दो-चार हाथ की ऊँचाई ले लेता है। पानी निकालने के लिए छोटी चड़स का उपयोग
किया जाता है। दूसरे, छोटे मुँह को ढकना सरल है। तीसरे, बड़े मुँह से पानी के भाप बनकर उड़ने की संभावना अधिक होती
है। कुंइयों के ढक्कनों पर ताले भी लगने लगे हैं। यदि कुंई गहरी हो तो पानी खींचने
की सुविधा के लिए उसके ऊपर घिरनी या चकरी भी लगाई जाती है। यह गरेड़ी, चरखी या फरेड़ी भी कहलाती है।
खड़िया पत्थर की पट्टी एक बड़े क्षेत्र में से गुजरती है।
इस कारण कुंई लगभग हर घर में मिल जाती है। सबकी निजी संपत्ति होते हुए भी यह
सार्वजनिक संपत्ति मानी जाती है। इन पर ग्राम पंचायतों का नियंत्रण रहता है। किसी
नई कुंई के लिए स्वीकृति कम ही दी जाती है, क्योंकि इससे
भूमि के नीचे की नमी का अधिक विभाजन होता है। राजस्थान में हर जगह रेत के नीचे
खड़िया पत्थर नहीं है। यह पट्टी चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर आदि क्षेत्रों में है। यही कारण है कि
इस क्षेत्र के गाँवों में लगभग हर घर में एक कुंई है।
शब्दार्थ
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न/
अन्य हल प्रश्न/
1.
वैश्विक तापमान वृदधि रोकने में आप अपना योगदान किस
प्रकार दे सकते हैं? 2
2.
चेलवांजी कौन हैं? उनके व्यक्तित्व
से आप कौन-कौन से मूल्य ग्रहण कर सकते हैं? 2
3.
अपना सिर बचाए रखने के लिए चेलवांजी को आप क्या-क्या
उपाय बता सकते हैं? 1
उत्तर –
2.
चेलवांजी अत्यंत परिश्रमी एवं कुशल कारीगर हैं जो
कुंई बनाते हैं। इनके व्यक्तित्व से हम परिश्रमशीलता, कार्य में निपुणता, लगन, सामूहिकता, परोपकार जैसे
मूल्य ग्रहण कर सकते हैं।
(ख) कुंई एक और अर्थ
में कुएँ से बिलकुल अलग है। कुआँ भूजल को पाने के लिए बनता है पर कुंई भूजल से ठीक
वैसे नहीं जुड़ती जैसे कुआँ जुड़ता है। कुंई वर्षा के जल को बड़े विचित्र ढंग से
समेटती है-तब भी जब वर्षा ही नहीं होती! यानी कुंई में न तो सतह पर बहने वाला पानी
है, न भूजल है। यह तो ‘नेति-नेति’ जैसा कुछ पेचीदा मामला है। मरुभूमि में रेत का विस्तार और
गहराई अथाह है। यहाँ वर्षा अधिक मात्रा में भी हो तो उसे भूमि में समा जाने में
देर नहीं लगती। पर कहीं-कहीं मरुभूमि में रेत की सतह के नीचे प्राय: दस-पंद्रह हाथ
से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की एक पट्टी चलती है। यह पट्टी जहाँ भी है, काफी लंबी-चौड़ी है पर रेत के नीचे दबी रहने के कारण ऊपूर
से दिखती नहीं है।
प्रश्न
1.
अपने आसपास जल का प्रदूषण एवं अपव्यय रोकने के लिए आप
क्या-क्या करना चाहेंगे? 2
2.
भू-जल स्तर गिरने का क्या कारण है? इसके प्रति आप लोगों को कैसे जागरूक कर सकते हैं? 2
3.
वर्षा के जल का संग्रह करने के लिए आप क्या-क्या उपाय
अपनाएँगे? 1
उत्तर –
2.
लगातार भू-जल का दोहन तथा कम वर्षा के कारण भू-जल
स्तर गिरता जा रहा है। इसे रोकने के लिए मैं भू-जल का दोहन कम करने की सलाह दूँगा
तथा वर्षा-जल को छतों पर रोककर गहरे गड्ढों में उतारने के लिए प्रेरित करूंगा।
ताकि पानी रिसकर जमीन में समा सके। इसके अलावा कृषि प्रणाली में सुधार तथा कम पानी
चाहने वाली फसलें उगाने के लिए जागरूकता फैलाऊँगा।
3.
वर्षा के जल का संग्रह करने के लिए मैं लोगों को अधिक
से अधिक तालाब बनाने और पुराने तलाबों की सफाई करने के लिए प्रेरित करूंगा। साथ ही
लोगों से अनुरोध करूंगा कि वे अपनी-अपनी छतों पर टंकी बनाकर वर्षा के पानी को
संग्रह करें और भाप बनकर उड़ने से पहले सुरक्षित उन्हें जमीन पर उतारें।
(ग) पर यहाँ बिखरे
रहने में ही संगठन है। मरुभूमि में रेत के कण समान रूप से बिखरे रहते हैं। यहाँ
परस्पर लगाव नहीं, इसलिए अलगाव भी नहीं होता। पानी गिरने पर कण थोड़े
भारी हो जाते हैं पर अपनी जगह नहीं छोड़ते। इसलिए मरुभूमि में धरती पर दरारें नहीं
पड़तीं। भीतर समाया वर्षा का जल भीतर ही बना रहता है। एक तरफ थोड़े नीचे चल रही पट्टी इसकी रखवाली करती है तो दूसरी तरफ ऊपर रेत के
असंख्य कणों का कड़ा पहरा बैठा रहता है। इस हिस्से में बरसी बूंद-बूंद रेत में समा
कर नमी में बदल जाती है। अब यहाँ कुंई बन जाए तो उसका पेट, उसकी खाली जगह चारों तरफ रेत में समाई नमी को फिर से बूंदों
में बदलती है। बूंद-बूंद रिसती है और कुंई में पानी जमा होने लगता है-खारे पानी के
सागर में अमृत जैसा मीठा पानी।
प्रश्न
1.
पानी की बढ़ती समस्या से निपटने में यह गदयांश आपकी
मदद कैसे कर सकता है? लिखिए। 2
3.
यह गदयांश आपके लिए क्या संदेश छोड़ जाता है? 1
उत्तर –
1.
पानी की समस्या दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। इसका
भीषण रूप हमें गर्मियों में देखने को मिलता है। यह गद्यांश हमें पानी को संरक्षित
करने, व्यर्थ में बर्बाद न करने तथा प्रदूषित न करने की सीख
दे जल समस्या से निपटने में हमारी मदद करता है।
2.
धरती में चल रही पट्टी जिस तरह भूमिगत जल की रखवाली
करती है उसी प्रकार इसे बनाए रखने के लिए मैं वर्षा के जल को जमीन में उतारने का
प्रयास करूंगा तथा भू-जल दोहन को रोकने के लिए लोगों को जागरूक करूगा।
3.
यह गद्यांश पानी को बचाए रखने बनाए रखने तथा प्रदूषित
होने से बचाने का संदेश छोड़ जाता है। संक्षेप में जल ही जीवन है।
(घ) कुंई की सफलता
यानी सजलता उत्सव का अवसर बन जाती है। यों तो पहले दिन से काम करने वालों का विशेष
ध्यान रखना यहाँ की परंपरा रही है, पर काम पूरा होने
पर तो विशेष भोज का आयोजन होता था। चेलवांजी को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी
जाती थी। चेजारो के साथ गाँव का यह संबंध उसी दिन नहीं टूट जाता था। आच प्रथा से
उन्हें वर्ष-भर के तीज-त्योहारों में, विवाह जैसे मंगल
अवसरों पर नेग, भेंट दी जाती और फसल आने पर खलियान में उनके नाम से
अनाज का एक अलग ढेर भी लगता था। अब सिर्फ मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज आ
गया है।
प्रश्न
1.
आपके विचार से कुंई की सफलता उत्सव का अवसर क्यों बन
जाती है? लिखिए। 2
2.
सजलता बनाए रखने के लिए आप लोगों को जागरूक करने के
लिए क्या-क्या करेंगे? 2
3.
आच प्रथा बनाए रखने के विषय में आपकी क्या राय है? इस प्रथा से आपको क्या सीख मिलती है? 1
उत्तर –
1.
राजस्थान में जहाँ के लोगों को पानी की भीषण कमी का
सामना करना पड़ता है वहाँ कुंई लोगों को अमृत के समान मीठा पानी देती है और ‘जल ही जीवन है’ को चरितार्थ करती
है। इसलिए कुंई की सफलता उत्सव मनाने जैसा अवसर बन जाता है।
2.
सजलता बनाए रखने के लिए हम लोगों को पानी बर्बाद न
करने, अत्यधिक वृक्ष लगाने, वृक्षों को कटने
से बचाने तथा वर्षा का जल बचाने के लिए लोगों को जागरूक करेंगे।
3.
मेरी राय में आच प्रथा बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।
यह प्रथा जहाँ सामाजिक समरसता बढ़ाने का काम करती है, वहीं चेलवांजी जैसे कलाकारों का सम्मान एवं स्वाभिमान बनाए
रखती है। यह प्रथा ऐसी कलाओं को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है।
(ड) निजी और
सार्वजनिक संपत्ति का विभाजन करने वाली मोटी रेखा कुंई के मामले में बड़े विचित्र
ढंग से मिट जाती है। हरेक की अपनी-अपनी कुंई है। उसे बनाने और उससे पानी लेने का
हक उसका अपना हक है। लेकिन कुंई जिस क्षेत्र में बनती है, वह गाँव-समाज की सार्वजनिक जमीन है। उस जगह बरसने वाला पानी
ही बाद में वर्ष-भर नमी की तरह सुरक्षित रहेगा और इसी नमी से साल-भर कुंइयों में
पानी भरेगा। नमी की मात्रा तो वहाँ हो चुकी वर्षा से तय हो गई है। अब उस क्षेत्र
में बनने वाली हर नई कुंई का अर्थ है, पहले से तय नमी
का बँटवारा। इसलिए निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में बनी कुंइयों पर ग्राम
समाज का अंकुश लगा रहता है। बहुत जरूरत पड़ने पर ही समाज नई कुंई के लिए अपनी
स्वीकृति देता है।
प्रश्न
1.
कुंइयों पर ग्राम-समाज के नियंत्रण को आप कितना सही
मानते हैं और क्यों? लिखिए। 2
2.
‘गोधूलि बेला में कुंइयों के आसपास की नीरवता मुखरित
हो उठती हैं”-के आलोक में बताइए कि कुंइयाँ समाज में किन मूल्यों
को जीवित रखे हुए हैं और कैसे? 2
3.
पानी की समस्या कम करने में आप अपना योगदान कैसे दे
सकते हैं? 1
उत्तर –
1.
कुंइयों पर ग्राम-समाज के नियंत्रण को मैं पूर्णतया
सही मानता हूँ। ग्राम-समाज द्वारा इन कुंइयों पर अपना नियंत्रण रखने से उस अमृत
तुल्य जल का लोगों में समान बँटवारा हो जाता है। ऐसा न होने पर वहाँ सबलों का
आधिपत्य स्थापित होगा और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति होगी।
2.
गोधूलि बेला से पूर्व कुंइयों के आसपास नीरवता छाई
रहती है किंतु इस बेला में यहाँ पानी लेने औरतें या पुरुष आ जाते हैं। कुंइयों के
मुँह पर लगी घिरनियों का मधुर संगीत गूँज उठता है। लोग पानी लेते हैं और कुंइयों
को अगले दिन तक के लिए बंद कर दिया जाता है। इस प्रकार ये कुंइयाँ सामाजिक समरसता, समानता सहयोग तथा पारस्परिकता जैसे मूल्यों को जीवित रखे
हुई हैं।
3.
पानी की समस्या को कम करने के लिए मैं जल के अपव्यय
को रोककर, अधिकाधिक वृक्ष लगाकर तथा पानी को कई प्रकार से
(जैसे-सब्जियाँ धोकर उसी पानी को पौधों में डालना) उपयोग कर अपना योगदान दे सकता
हूँ।
बीस-पच्चीस हाथ की गहराई तक जाते-जाते गर्मी बढ़ती जाती है
और हवा भी कम होने लगती है। तब ऊपर से मुट्ठी-भरकर रेत तेजी से नीचे फेंकी जाती है
ताकि ताजा हवा नीचे जा सके और गर्म हवा बाहर आ सके। चेजार सिर पर काँसे, पीतल या किसी अन्य धातु का एक बर्तन टोप की तरह पहनते हैं
ताकि ऊपर से रेत, कंकड़-पत्थर से उनका बचाव हो सके। किसी-किसी स्थान पर
ईट की चिनाई से मिट्टी नहीं रुकती तब कुंई को रस्से से बाँधा जाता है। ऐसे स्थानों
पर कुंई खोदने के साथ-साथ खींप नामक घास का ढेर लगाया जाता है। खुदाई शुरू होते ही
तीन अंगुल मोटा रस्सा बनाया जाता है।
एक दिन में करीब दस हाथ की गहरी खुदाई होती है। इसके तल पर
दीवार के साथ सटाकर रस्से का एक के ऊपर एक गोला बिछाया जाता है और रस्से का आखिरी
छोर ऊपर रहता है। अगले दिन फिर कुछ हाथ मिट्टी खोदी जाती है और रस्से की पहली दिन
जमाई गई कुंडली दूसरे दिन खोदी गई जगह में सरका दी जाती है। बीच-बीच में जरूरत
होने पर चिनाई भी की जाती है। कुछ स्थानों पर पत्थर और खींप नहीं मिलते। वहाँ पर
भीतर की चिनाई लकड़ी के लंबे लट्ठों से की जाती है लट्ठे अरणी, बण, बावल या कुंबट के पेड़ों की मोटी टहनियों से बनाए
जाते हैं। इस काम के लिए सबसे अच्छी लकड़ी अरणी की है, परंतु इन पेड़ों की लकड़ी न मिले तो आक तक से भी काम किया
जाता है। इन पेड़ों के लट्ठे नीचे से ऊपर की ओर एक-दूसरे में फैसा कर सीधे खड़े
किए जाते हैं। फिर इन्हें खींप की रस्सी से बाँधा जाता है। यह बँधाई कुंडली का
आकार लेती है। इसलिए इसे साँपणी कहते हैं। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही काम रुक
जाता है और इस क्षण नीचे धार लग जाती है। चेजारो ऊपर आ जाते हैं कुंई बनाने का काम
पूरा हो जाता है।
1.
रेत में जमी नमी से पानी की बूंदें धीरे-धीरे रिसती
हैं। दिनभर में एक कुंई में मुश्किल से दो-तीन घड़े पानी जमा होता है। कुंई के तल
पर पानी की मात्रा इतनी कम होती है कि यदि कुंई का व्यास बड़ा हो तो कम मात्रा का
पानी ज्यादा फैल जाएगा। ऐसी स्थिति में उसे ऊपर निकालना संभव नहीं होगा। छोटे
व्यास की कुंई में धीरे-धीरे रिस कर आ रहा पानी दो-चार हाथ की ऊँचाई ले लेता है।
2.
कुंई के व्यास का संबंध इन क्षेत्रों में पड़ने वाली
तेज गर्मी से भी है। व्यास बड़ा हो तो कुंई के भीतर पानी ज्यादा फैल जाएगा और भाप
बनकर उड़ने से रोक नहीं पाएगा।
3.
कुंई को और उसके पानी को साफ रखने के लिए उसे ढककर
रखना जरूरी है। छोटे मुँह को ढकना सरल होता है। कुंई पर लकड़ी के ढक्कन, खस की पट्टी की तरह घास-फूस या छोटी-छोटी टहनियों से बने
ढक्कनों का प्रयोग किया जाता है।
कुंई खोदने में वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई जाती है। चेजारो
के सिर पर धातु का बर्तन उसे चोट से बचाता है। ऊपर से रेत फेंकने से ताजा हवा नीचे
जाती है तथा गर्म हवा बाहर निकलती है, फिर कुंई की चिनाई
भी पत्थर, ईट, खींप की रस्सी या
अरणी के लट्ठों से की जाती है। यह खोज आधुनिक समाज को चमत्कृत करती है।
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