नर हो, न निराश करो मन को निबंध/नर हो, न निराश करो मन को-अनुछेद लेखन /Nar ho na nirash karo man ko motivational essay in Hindi
‘नर’ शब्द का सामान्य अर्थ पुरुष होता है। वस्तुतः नर और पुरुष एक शब्द के
व्यंजन है। पुरुष का अर्थ भी नर है और नर का अर्थ पुरुष,
किंतु ‘नर’ शब्द पर यदि गंभीरता या
सूक्ष्मता से सोचा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘नर’ शब्द के लाक्षणिक या व्यंजक प्रयोग से पुरुष की विशेषता को व्यक्त किया
जाता है।
पुरुष के पुरुषत्व तथा श्रेष्ठ वीरत्व के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए
‘नर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इन सभी
व्यंजक तथ्यों के प्रकाश में जब हम इस शीर्षक पंक्ति ‘नर हो, न निराश करो मन को’ के अर्थ और भाव विस्तार को
विवेचन करते हैं तो मानव जीवन के अनेक पक्ष स्वत: उजागर होने लगते हैं। मनुष्य के
पुरुषत्व और पुरुषार्थ की महिमा जगमगा उठती है।
इस पंक्ति को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई हमें चुनौती भरे
शब्दों में या ललकार भरी ध्वनि में कह रहा हो- वाह ! कैसे पुरुष हो तुम ! या अच्छे
नर हो। तुम सांसारिक जीवन की छोटी-छोटी कठिनाइयों से ही घबरा उठते हो क्योंकि अभी
तक तुमने जीवन की बाधाओं का सामना करना सीखा ही नहीं है। यों चिल्लाने लगे या
घबराकर बोलने लगे कि जैसे आसमान टूट पड़ेगा अथवा जमीन फट जाएगी। तुम पुरुष हो और
वीरता तुम्हारे पास है।
एक बार की असफलता से इतनी निराशा। उठो और निराशा त्याग कर
परिस्थितियों का डटकर सामना करो। हमें एक छोटी सी चींटी से सबक सीखना चाहिए। जब वह
चावल का दाना या कोई वस्तु अपने मुंह में लेकर अपने बिल की ओर जा रही होती है तो
उसका मार्ग रोक कर देखो, या उसके मुंह का दाना या भोजन छीन
कर देखो, वह किस प्रकार छटपटाती है और बार-बार उस दाने को
प्राप्त करने का प्रयास करती है।
वह जब तक निरंतर संघर्ष करती रहेगी, जब तक दाना प्राप्त करके अपने बिल तक नहीं पहुंच जाती। एक और मनुष्य है
जो थोड़ी सी छोटी सी असफलता पर निराश होकर बैठ जाता है।
‘नर’ अर्थात बुद्धि और बल से परिपूर्ण मनुष्य
प्राणियों में श्रेष्ठ कहलाने वाला है। वह यदि जीवन में आने वाले संघर्ष या
कठिनाइयों से मुंह फेर कर और निराश होकर बैठ जाए तो उसकी श्रेष्ठता के कोई मायने
नहीं रह जाएंगे। उसे प्रकृति से हर छोटे-बड़े प्राणी से प्रेरणा लेनी चाहिए। यदि
वह संघर्ष करना छोड़ देगा और निराश होकर बैठ जाएगा तो संसार में उसका विकास कैसे
होगा। इस प्रकार की उन्नति के मार्ग ही बंद हो जाएंगे।
इसलिए मनुष्य को अपने नरत्व
को सिद्ध करना होगा। उसे निराशा त्याग कर अपने हृदय में उत्साह और साहस भरकर जीवन
पथ को प्रशस्त करना होगा। यदि निराशा ही जीवन का तथ्य होती तो अब तक संसार में जो
विकास हुआ है वह कभी संभव न हो पाता। नरता का पहला लक्षण ही आगे बढ़ना है, संघर्ष करते रहना है।
नदियों की धारा की भांति मनुष्य का भी यही लक्ष्य होना चाहिए। जिस प्रकार धारा सागर में मिलकर ही विश्राम लेती है। उसी प्रकार नर को भी लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात ही दम लेना चाहिए। चट्टान भी धारा के मार्ग में आकर उसका रास्ता रोकने का प्रयास करती है। क्या कभी उस धारा को चट्टान रोक सकी? क्योंकि अपने प्रबल प्रवाह सेवा चट्टान को किनारे लगा कर अपना रास्ता बना लेती है।
नदियों की धारा की भांति मनुष्य का भी यही लक्ष्य होना चाहिए। जिस प्रकार धारा सागर में मिलकर ही विश्राम लेती है। उसी प्रकार नर को भी लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात ही दम लेना चाहिए। चट्टान भी धारा के मार्ग में आकर उसका रास्ता रोकने का प्रयास करती है। क्या कभी उस धारा को चट्टान रोक सकी? क्योंकि अपने प्रबल प्रवाह सेवा चट्टान को किनारे लगा कर अपना रास्ता बना लेती है।
इस कार्य के लिए किसी की सहायता नहीं मांगती। बहुत बड़ी चट्टान के मार्ग
में आ जाने पर धारा भले ही थोड़ी देर के लिए रुकी हुई सी प्रतीत होती है, किंतु वह कुछ ही क्षणों में अपना दूसरा रास्ता मार्ग खोज लेती है और फिर
उसी प्रभाव से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगती है।
पुरुष को भी जीवन पद्धति या कार्यशैली ऐसी होनी चाहिए। नर को भी समस्याओं के आने पर अपनी योजना बनाकर उनका सामना करना चाहिए और उस पर सफलता प्राप्त करनी चाहिए, तभी वह नर कहलाने योग्य बन सकता है।
पुरुष को भी जीवन पद्धति या कार्यशैली ऐसी होनी चाहिए। नर को भी समस्याओं के आने पर अपनी योजना बनाकर उनका सामना करना चाहिए और उस पर सफलता प्राप्त करनी चाहिए, तभी वह नर कहलाने योग्य बन सकता है।
समस्याएं सामने आने पर माथे पर हाथ रखकर तथा निराश
होकर बैठ जाने से उसके जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होती। वह तभी नर कहलाएगा जब वह
समस्याओं पर पैर रखकर आगे बढ़ जाएगा। इसे ही सच्चे अर्थों में जीवन कहते हैं तथा
यही नर के नरत्व को व्यक्त करता है।
नर होकर निराश बैठना, यह उसके लिए शुभ नहीं है।
निराश होकर बैठ जाने और हिम्मत हार जाने वाले मनुष्य की स्थिति वैसी ही होगी जैसी
मणि विहीन सर्प की होती है। मणि ही सर्प की चमक का कारण होती है। उसी प्रकार
हिम्मत और उत्साह ही मानव जीवन को सार्थकता प्रदान करने वाले तत्व हैं।
जब मनुष्य
उनको त्याग कर बैठ जाता है तो वह ‘नर’
कहलाने का अधिकार भी खो देता है। ऐसा होना उसके लिए नरता से पतित होने, अपने आपको कहीं का भी नहीं रहने देने के समान होता है। इसलिए कहा गया है
कि नर हो कर मन को निराश न करो।
मनुष्य को किसी भी स्थिति में निराश नहीं होना चाहिए। निराशा जीवन में अंधकार भर देती है। इससे मनुष्य को कोई मार्ग नहीं सूझ सकता। इसके विपरीत निराशा को त्यागकर आशावान और आस्थावान होकर मनुष्य समस्याओं से जूझता है तो उसका मार्ग स्वत: ही प्रकाशित होता है और वह आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है।
मनुष्य को किसी भी स्थिति में निराश नहीं होना चाहिए। निराशा जीवन में अंधकार भर देती है। इससे मनुष्य को कोई मार्ग नहीं सूझ सकता। इसके विपरीत निराशा को त्यागकर आशावान और आस्थावान होकर मनुष्य समस्याओं से जूझता है तो उसका मार्ग स्वत: ही प्रकाशित होता है और वह आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है।
संघर्ष और प्रयास में जो आनंद अनुभव
होता है वह अमृत के समान होता है। संघर्ष को त्याग कर यदि हम निराशा का दामन पकड़
लेंगे तो उसके आनंद से भी हाथ धो बैठेंगे। अत: स्पष्ट है कि नर की नरता निराशा को
त्याग कर संघर्ष करने में ही दिखाई देती है। इस पंक्ति का प्रमुख लक्ष्य ही निरंतर
संघर्ष करना, गतिशील बने रहना, उत्साह
और आनंद का संदेश देना है। इन्हीं से नर की नरता सार्थक होती है।
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