प्रेमचंदोत्तर उपन्यास , Premchandottar upanyaas
प्रेमचंदोत्तर उपन्यास , Premchandottar upanyaas

 प्रेमचंदोत्तर उपन्यास

1. प्रेमचंद के निधन (1936) से स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) तक

(क) सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यास :

इस चरण में उपन्यास साहित्य काफ़ी समृद्ध हुआ। यह एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित होने लगा। उपन्यासकारों ने न सिर्फ़ समाज के विभिन्न रूपों, प्रवृत्तियों, आदि का विस्तृत प्रत्यक्षीकरण किया बल्कि साथ ही साथ उसके निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न किया। गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम तो चल ही रहा था। मज़दूरों का अन्दोलन भी बढ रहा था। धीरे-धीरे राजनीति में वामपंथी विचारधारा का ज़ोर बढता गया। साहित्यकारों में भी हलचल दिखाई दी। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। प्रेमचंद जी इसके सभापति हुए। फलस्वरूप साहित्य के संघटित रूप से आंदोलन और प्रचार शुरु हुआ, जिसे आगे चलकर प्रगतिवादी साहित्य नाम दिया गया।

मानवतावादी लेखक मनुष्य को पशु-सामान्य धरातल से ऊपर का प्राणी मानता है। वह त्याग और तप को मनुष्य का वास्तविक धर्म मानता है। वह विश्वास करता है हालाकि मनुष्य में बहुत पशु-सुलभ वृत्तियां रह गई हैं, फिर भी वह पशु नहीं है। वर्षों की साधना से उसने अपने भीतर त्याग, तप, सौंदर्य-प्रेम और पर-दुख-कातरता जैसे गुणों का विकास किया है। ये गुण ही मनुष्य की निशानी हैं। उसके भीतर संभावनाएं अनेक हैं। इसी मर्त्यलोक को अद्भुत अपूर्व शांतिस्थल बनाने की क्षमता इस मनुष्य में है।

प्राचीन धर्मभावना में मनुष्य को परलोक में सुखी बनाने का संकल्प था। मानवतावदी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से प्राचीन धर्मभावना के विपरीतगामी था। परिणामस्वरूप आचारों, विश्वासों और क्रियाओं के मूल्य में अंतर आया। ईश्वर और मोक्ष को मानना गौण बात हो गई, मनुष्य को इसी लोक में सुखी बनाना मुख्य।

यह परम्परा मूलतः प्रेमचंद की ही परम्परा है, जिसमें सामाजिक यथार्थ के चित्रण को और मनुष्य के चतुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल दिया गया है। प्रेमचंद जी का सेवासदन’, ‘निर्मला’ और गोदान’ पारस्परिक संबंधों की मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखने वाले उपन्यास हैं। प्रेमचंद ने अपने एक मौजी पात्र से कहलवाया है,

जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है इस पर तो मुझे हंसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार है जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहां जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है, और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष और उपासना है ज्ञानी कहता है होठों पर मुस्कराहट न आवे, आंखों में आंसू न आवे। मैं कहता हूं, अगर तुम हंस नहीं सकते, रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्हू है।”

विश्वंभर नाथ कौशिक 

विश्वंभर नाथ कौशिक के उपन्यासों में प्रेमचंद के ही सिद्धांत दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे ‘मां’ और ‘भिखारिणी’। ‘कौशिक’ जी का जन्म 1891 में अम्बाला छावनी के निकट हुआ था। चार वर्ष की अवस्था में ही उनके कानपुर निवासी बाबा ने उन्हें दत्तक पुत्र बना लिया था। उनकी शिक्षा मैट्रिक तक ही हुई थी। घर पर ही उन्होंने हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन किया था। वे पहले उर्दू में लिखते थे। बाद में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से हिन्दी में लिखने लगे। उनकी सबसे पहली कहानी ‘रक्षाबन्धन’ 1911 में ‘सरस्वती’ मे प्रकाशित हुई थी। उनके कहानी संग्रह हैं : चित्रशाला, मणीमाला, गल्प मन्दिर, और कल्लोल। ‘दुबे जी का चिट्ठा’ उनकी हास्य-रस की रचना है।

कौशिक जी के अतिरिक्त इस युग के उपन्यासकारों में सियारामशरण गुप्त, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, प्रतापनारायण श्रीवास्तव (‘विदा’, ‘विकास’, ‘विजय’)अमृतलाल नागर (बूंद और समुद्र, सुहाग के नुपूर), विष्णु प्रभाकर, उदय शंकर भट्ट, आचार्य चतुर सेन शास्त्री (हृदय की प्यास)भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, तीन वर्ष)भगवती प्रसाद वाजपेयी, शिवपूजन सहाय, वृन्दावन लाल वर्मा, उषा देवी मित्रा, चण्डी प्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमण सिंहअयोध्या सिंह उपाध्याय, ऋषभ चरण जैन, श्रीनाथ सिंह, अवधनारायण, गोविन्दवल्लभ पंत, अनूपलाल मंडल, नरोत्तम दास नागर, उदयशंकर भट्ट, राहुल सांकृत्यायन (सिंह सेनापति, जय यौधेय), मोहनलाल महतो वियोगी, धर्मेन्द्र, अंचल आदि ने भी उपन्यास लिख कर साहित्य की श्रीवृद्धि की।

भगवती प्रसाद वाजपेयी 

का जन्म कानपुर के मंगलपुर नामक गांव में संवत्‌ १९५६ (1899 ई.) मे हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। मिडल पास करने के बाद गाम के ही विद्यालय में पढाने लगे। किन्तु विद्याध्ययन नहीं छोड़ा। कुछ दिनों बाद नौकरी छोड़ होमरूल लीग पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष हो गए। यहां अंग्रेज़ी का ज्ञान प्राप्त किया। संसार नामक अखबार में पहले प्रूफ़रीडर का कम संभाला बाद में उसके प्रमुख संपादक भी हो गए। कुछ समय तक पुस्तक प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता भी रहे। सिनेमा के लिए गीत और संवाद भी लिखा। उनका मानना था कि आज के मानव की मुक्ति पीड़ा में नहीं है, जीवन की आर्थिक विषमताओं को दूर करने में है।
उनकी प्रमुख रचनाएं हैं,

1. उपन्यास : प्रेमपथ, मीठी चुटकी, अनाथ पत्नी, त्यागमयी, प्रेम निर्वाह, पतिता की साधना, पिपासा, दो बहनें, निमन्त्रण, गुप्त धन, चलते-चलते, पतवार, धरती की सांस, मनुष्य और देवता।

2. कहानी संग्रह : मधुपर्व, दीप, मालिका, हिलोर, पुष्करिणी, खाली बोतल, मेरे सपने, ज्वार भाटा, कला की दृष्टि, उपहार, अंगारे, उतार-चढ़ाव।

3. नाटक : छलना।

4. कविता संग्रह : ओस के बूंद।

5. बाल साहित्य : आकास-पाताल की बातें, बालकों के शिष्टाचार, शिवाजी, बालक प्रह्लाद, बालक ध्रुव, हमारा देश, नागरिक शास्त्र की कहानियां, प्रौढ़ शिक्षा की योजना।

6. संपादित : प्रतिनिधि कहानियां, हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियां, नव कथा, नवीन पद्य संग्रह, युगारम्भ।

शिवपूजन सहाय

सामाजिक यथार्थ के चित्रण और मनुष्य के चातुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल देने वालों उपन्यास के परम्परा में शिवपूजन सहाय का नाम भी आता है। शिवपूजन सहाय का जन्म 1893 में बिहार के शाहाबाद ज़िले के उनवास गांव में हुआ था। हाई स्कूल की परीक्षा पास कर हिन्दी शिक्षक नियुक्त हो गए। हिन्दी की पत्रिकाओं ‘मतवाला’, ‘बालक’, ‘आदर्श’, ‘समन्वय’, ‘गंगा’, ‘जागरण’ और ‘साहित्य’ का सम्पादन कार्य किया। छपरा के राजेन्द्र कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। 1960 में पद्मभूषण से सम्मनित किया गया। देहावसान 1963 में हुआ।

इनकी भाषा सहज और स्वाभाविक है। बोल-चाल के व उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ है। भाषा में अनुप्रासों व भाषण कला के दर्शन होते हैं।

इनकी प्रमुख रचनाएं हैं,

1. कहानी संग्रह : विभूति

2. जीवनियां : अर्जुन, भीष्म

3. उपन्यास : देहाती दुनिया

4. संस्मरण : बिहार का विहार

5. शिवपूजन रत्नावली चार खण्डों में।


सियारामशरण गुप्त (जन्म 1896) के ‘गोद’, ‘अंतिम आकांक्षा’, और ‘नारी’ में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें व्यक्तिगत चिंतन और अनुभूति स्पष्ट है।

प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘विजय’, ‘विकास’, ‘बयालीस’, ‘विदा’, ‘बेकसी का मज़ार’ और ‘विसर्जन’ जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

प्रतापनारायण श्रीवास्तव के उपन्यासों की कथावस्तु से भारतीय आदर्श की झलक मिलती है। उनके उपन्यासों में यदि प्रेमचंद जैसी उपदेशात्मकता है तो प्रसाद जैसी दार्शनिकता भी है। वे आध्यात्मिक स्तर पर गांधीवाद, दृदय-परिवर्तन और आत्मपीड़न के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं।

स्वच्छंदतावादी उपन्यास 

मानवतावादी दृष्टि के उदर से ही उपन्यास के क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शोषण से विद्रोह करनेवाली स्वच्छंदतावादी प्रेमधारा का भी जन्म हुआ। इस काल के उपन्यासों का स्वर शोषित के प्रति सहानुभूति का है। यह विश्वास जताया गया कि जो शोषित है वह यदि शोषण मुक्त हो जाएगा तो उसमें सब प्रकार के सद्गुणों का विकास हो जाता है।
 

वृन्दावन लाल वर्मा 

इस परम्परा में वृन्दावन लाल वर्मा ने यदि हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों की नींव डाली तो ठीक इसके विपरीत चण्डी प्रसाद हृदयेश ने कल्पना प्रधान-भाव-मूलक उपन्यासों का प्रणयन किया। बाह्य और आभ्यांतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करने वाले सुंदर और अलंकृत पदविन्यासयुक्त उपन्यास ‘मंगल प्रभात’ उल्लेखनीय है।

वृन्दावनलाल वर्मा का जन्म झांसी के मऊ रानी पुर नामक गांव में 9 जनवरी 1889 में हुआ। पिता अयोध्या प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम में मारे गए। परदादी द्वारा सुनाई गई वीरों की कथाएं उनके मन पर अंकित हो गईं। पुरातत्व, मनोविज्ञान, साहित्य, मूर्तिकला, चित्रकला, सितारवादन आदि में रुचि रखने वाले वर्मा जी शिकार के भी शौकीन थे। वकालत छोड़ झांसी में ही रहकर उन्होंने साहित्य साधना की। उनके उपन्यासों के कथानक आदर्श एवं रोमांस की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। जिसमें सांस्कृतिक चेतना राष्ट्रीय गौरव और अतीत के दिनों के कारनामों की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है। इनका देहावसान 23 फ़रवरी 1969 को हुआ। वर्मा जी की प्रमुख रचनाएं

1. ऐतिहासिक उपन्यास : गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई, मुसाहिब जू, कचनार, मृगनैनी, छत्रसाल, सत्रह सौ उन्नीस, ललिता दिव्य, माधवजी सिंधिया टूटे कांटे, अहिल्या बाई।

2. सामाजिक उपन्यास : लगन, प्रेम की भेंट, कुंडली-चक्र, संगम, प्रत्यागत, हृदय की हिलोरें, कभी न कभी, अचल मेरा कोई, अमर बेल, सोना।

3. कहानी संग्रह : हरश्रृंगार, कलाकार का दण्ड, दबे पांव, शरणागत, तोषी।

4. नाटक : सेनापति, ऊदल, फूलों की दीवाली, कश्मीर का कांटा, झांसी की रानी, हंस मयूर, पूर्व की ओर, वीरबल, जहां दाराशाह, धीरे-धीरे, राखी की लाज, बांस की फांस, लो भाई पंचों लो, पीले हाथ, पायल, मंगल सूत्र, सगुन, खिलौनो की खोज, नीलकण्ठ, कनेर, विस्तार, देखादेखी, केवट।

इस परम्परा में जयशंकर प्रसाद (तितली), निराला (अप्सरा, अलका, प्रभावती), भगवती चरण वर्मा (तीन वर्ष, चित्रलेखा), और उषा देवी मित्रा (प्रिया) का योगदान उल्लेखनीय है।

हालाकि प्रेमचंद्रोत्तर काल में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ह्रास हो गया था लेकिन यह ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी मर नहीं सकती। विद्वानों का तो यह भी मानना है कि यह प्रवृत्ति मन्मथनाथ गुप्त, यशपाल और राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों में भी मौज़ूद है। वैसे किसी रचना में किसी प्रवृत्ति का होना एक बात है और उसका प्रधान होना दूसरी बात।

इसे भी पढ़ें : दुर्गा भाभी जीवन परिचय - Biography of Durga Bhabhi in Hindi