संत कबीर जन्म जयन्ती- 15 जून, 2021
संत शिरोमणि कबीर
संत कबीर भारतीय संत परम्परा के महान्
हस्ताक्षर, समाज-सुधारक थे। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरूप रूढ़ियों एवं
आडम्बरों में जकड़ा एवं अधंकारमय था। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांधता से जनता
त्राहि-त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म-बल का हृास हो रहा
था। ऐसे समय में कबीर एक रोशनी बनकर समाज को दिशा दी। वे अध्यात्म की सुदृढ़
परम्परा के संवाहक थे।
कबीर ने सगुण-साकार भक्ति पर जोर दिया है, जिसमें निर्गुण निहित है। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय
का सामान्य से सामान्य व्यक्ति हो या कोई विशिष्ट व्यक्ति हो -सभी में विशिष्ट गुण
खोज लेने की दृष्टि उनमें थी। गुणों के आधार से, विश्वास
और प्रेम के आधार से व्यक्तियों में छिपे सद्गुणों को वे पुष्प में से मधु की
भाँति उजागर करने में सक्षम थे। परस्पर एक-दूसरे के गुणों को देखते हुए, खोजते हुए उनको बढ़ाते चले जाना कबीर के विश्व
मानव या वसुधैव कुटुम्बकम् के दर्शन का द्योतक है। उन्होंने मन, चेतना, दंड, भय, सुख और मुक्ति जैसे
सूक्ष्म विषयों पर भी किसी गंभीर मनोवैज्ञानिक की तरह विचार किया था और व्यक्ति को
अध्यात्म की एकाकी यात्रा का मार्ग सुझाया था। कबीर ने लोगों को एक नई राह दिखाई।
घर-गृहस्थी में रहकर और गृहस्थ जीवन जीते हुए भी शील-सदाचार और पवित्रता का जीवन
जिया जा सकता है तथा आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त किया जा सकता है।
संत कबीर जन्म लहरतारा के पास जेठ पूर्णिमा
को हुआ था। उनके पिता नीरू नाम के जुलाहे थे। वे किसी भी सम्प्रदाय और रूढियों की
परवाह किये बिना खरी बात करते थे। 119 वर्ष की
आयु में उन्होने मगहर में अपना देह त्यागा। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से
मुसलमान थे और युवा अवस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्होंने हिन्दू धर्म
की विशेषताओं को स्वीकारा। कबीर ने हिन्दु, मुसलमान का भेद
मिटाकर हिन्दू भक्तों तथा मुसलमान फकीरों के साथ सत्संग किया और दोनांे की अच्छी
बातों को आत्मसात किया। उनके जीवन में कुरान और वेद ऐसे एकाकार हो गये कि कोई
भेदरेखा भी नहीं रही। कबीर पढ़े लिखे नहीं थे पर उनकी बोली बातों को उनके
अनुयायियों ने लिपिबद्ध किया जो लगभग ८० ग्रंथों के रूप में उपलब्ध है। कबीर ने
भाईचारे, प्रेम और सद्भावना का संदेश दिया है। उनके प्रेरक
एवं जीवन निर्माणकारी उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन अक्षरी, उलट बासी में देखे जा सकते हैं।
महात्मा कबीर ने स्वयं को ही पग-पग पर
परखा और निथारा। स्वयं को भक्त माना और उस परम ब्रह्म परमात्मा का दास कहा। वह
अपने और परमात्मा के मिलन को ही सब कुछ मानते। शास्त्र और किताबें उनके लिये
निरर्थक और पाखण्ड था, सुनी-सुनाई तथा लिखी-लिखाई बातों को मानना या उन
पर अमल करना उनको गंवारा नहीं। इसीलिये उन्होंने जो कहा अपने अनुभव के आधार पर कहा, देखा और भोगा हुआ ही व्यक्त किया, यही कारण है कि उनके दोहे इंसान को जीवन की नई
प्रेरणा देते थे। कबीर शब्दों का महासागर है, ज्ञान का सूरज हंै।
उनके बारे में जितना भी कहो, थोड़ा है, उन पर लिखना या बोलना असंभव जैसा है। सच तो यह है
कि बूंद-बूंद में सागर है और किरण-किरण में सूरज। उनके हर शब्द में गहराई है, सच का तेज और ताप है।
संत शिरोमणि कबीर सर्वधर्म सद्भाव के
प्रतीक थे, साम्प्रदायिक सद्भावना एवं सौहार्द को बल दिया।
उनको हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान प्राप्त था।
दोनों संप्रदाय के लोग उनके अनुयायी थे। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके
शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू
रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। किंतु इसी छीना-झपटी
में जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ
फूलों का ढेर पड़ा देखा। यह कबीरजी की ओर से दिया गया बड़ा ही चमत्कारी और सशक्त
संदेश था कि इंसान को फूलों की तरह होना चाहिए- सभी धर्मों के लिए एक जैसा भाव
रखने वाले, सभी को स्वीकार्य। बाद में वहाँ से आधे फूल
हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने तथा अपनी-अपनी रीति से उनका अंतिम संस्कार
किया।
अध्यात्म के महासूर्य कबीर ने कहा है, ‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’ इस दोहे
में कबीर ने बताया है कि व्यर्थ में हम किसी दूसरे में दोष क्यों ढूंढ़ने लगते हैं? हमें अपने अंदर झांक कर देखना चाहिए कि कहीं
मुझमें कोई गलती तो नहीं। हमारी सबसे बड़ी गलतफहमी हमारी यह सोच होती है कि हम ही
सही हैं, हमसे कभी भूल नहीं हो सकती। दरअसल, यह हमारा अहं है, जो हमें
इस तरह सोचने पर मजबूर करता है। अपनी गलतियों के कारण ही हम दूसरों में दोष खोजते
हैं।
कबीर ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू
को उजागर किया। श्रीकृष्ण,
श्रीराम, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ-ही-साथ
भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा
में कबीर ने भी धर्म की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य
किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके दोहों-विचारों से अस्पर्शित रहा
हो। अपनी कथनी और करनी से मृतप्रायः मानव जाति के लिए कबीर ने संजीवनी का कार्य
किया। इतिहास गवाह है, इंसान को ठोंक-पीट कर इंसान बनाने की घटना कबीर
के काल में, कबीर के ही हाथों हुई। शायद तभी कबीर कवि मात्र
ना होकर युगपुरुष और युगस्रष्टा कहलाए। ‘मसि-कागद’ छुए बगैर ही वह सब कह गए जो श्रीकृष्ण ने कहा, नानक ने कहा, ईसा मसीह ने कहा और
मुहम्मद साहब ने कहा। आश्चर्य की बात, अपने साक्ष्यों के
प्रसार हेतु कबीर सारी उम्र किसी शास्त्र या पुराण के मोहताज नहीं रहे। न तो किसी
शास्त्र विशेष पर उनका भरोसा रहा और ना ही उन्होंने जीवन भर स्वयं को किसी शास्त्र
में बाँधा। कबीर ने समाज की दुखती रग को पहचान लिया था। वे जान गए थे कि हमारे
सारे धर्म और मूल्य पुराने हो गए हैं। नई समस्याएँ नए समाधान चाहती हैं। नए प्रश्न, नए उत्तर चाहते हैं। नए उत्तर, पुरानेपन से छुटकारा पाकर ही मिलेंगे।
कबीर ने धरती और धरती के लोगों की धड़कन को
सुना। धड़कनों के अर्थ और भाव को समझा। इन धड़कनों को वे जितना आत्मसात करते चले, उतना ही उनका जीवन ज्ञान एवं संतता का ग्रंथ बनता
गया। यह जीवन ग्रंथ शब्दों और अक्षरों का जमावड़ा मात्र नहीं, बल्कि इसमें उन सच्चाइयों एवं जीवन के नए
अर्थों-आयामों का समावेश है, जो जीवन को शांत, सुखी एवं उन्नत बनाने के साथ-साथ जीवन को
सार्थकता प्रदान करते हैं। उनके अनुभवों और विचारों ने एक नई दृष्टि प्रदान की। इस
नई दृष्टि को एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कहा जा सकता है। कबीर भारत
की उज्ज्वल गौरवमयी संत परंपरा में सर्वाधिक समर्पित एवं विनम्र संत हैं। वे
गुरुओं के गुरु थे, उनका फकडपन और पुरुषार्थ, विनय और विवेक, साधना
और संतता, समन्वय और सहअस्तित्व की विलक्षण विशेषताएं
युग-युगों तक मानवता को प्रेरित करती रहेगी।
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