अमर बलिदानी वीर हकीकत राय | Amar Balidani Veer Haqiqat Rai
अमर बलिदानी वीर हकीकत राय | Amar Balidani Veer Haqiqat Rai

अमर बलिदानी वीर हकीकत राय | Amar Balidani Veer Haqiqat Rai

वीर हकीकत राय : मात्र 14 साल की उम्र में वीर हकीकत राय अपना बलिदान देकर हमेशा के लिए अमर हो गए। वीर हकीकत राय ने अपने धर्म को अपने जीवन से बड़ा माना और धर्म की रक्षा के लिए अपनी जिंदगी को कुर्बान कर दिया।

वीर हकीकत राय

वीर हकीकत राय का जन्म स्यालकोट के एक धनाढ्य परिवार में हुआ था। वह कुशाग्र बुद्धि के थे। चार-पांच वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतिहास और संस्कृत का पर्याप्त अध्‍ययन कर लिया था। उन्हें 10 वर्ष की आयु में फारसी की पढ़ाई के लिए मदरसे में भेजा गया। मदरसे में पढ़ाई के दौरान एक बार उन्हें कक्षा की बागडोर उन्हें संभालने को दी गई। इस पर मदरसे के दूसरे छात्रों ने विरोध कर दिया और वीर हकीकत राय पर धर्म के लेकर तमाम गलत आरोप लगा दिए। बात बढ़ी तो बच्चों के बीच का यह विवाद धर्म की लड़ाई बन गया। मदरसे के जिम्मेदार लोगों ने भी वीर हकीकत राय का पक्ष जानने के बजाए दूसरे बच्चों का पक्ष लिया।

यह मामला नगर शासक के पास पहुंचा तो निर्णय सुनाया गया कि बालक अपना धर्म परिवर्तन कर ले अन्यथा इसका वध कर दिया जाएगा। वीर हकीकत राय ने धर्म परिवर्तन के बजाए अपना सिर देना स्वीकार कर लिया। बसंत पंचमी के दिन 14 वर्षीय हकीकत राय को मृत्युदंड दे दिया गया। उनके बलिदान का समाचार सुनकर उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी चिता में कूदकर सती हो गईं। लाहौर के पास वीर हकीकत राय की समाधि बनी हुई है।

वीर हकीकत राय की कहानी (विस्तार से )

यू तो सभी लोग इस नश्वर जगत में पैदा होते है, जीते हैं, और अन्त में मर जाते हैं; पर उन्ही का जीना और मरना सार्थक होता है, जो देश, जाति और धर्म के लिये जीते और मरते हैं । वास्तव में ऐसे ही मनुष्य सच्चे वीर हैं, क्योंकि उनका अन्त हो जाने पर भी उनकी अमर किर्ति, उनकी शहादत को कभी नहीं भुलायी जा सकती है । वे स्वयं मरकर जाति को अमर कर जाते हैं ।

ऐसे ही वीरात्मा शहीदों में बालक हकीकत राय का भी नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है । इस वीर बालक ने अपनी जान, धर्म के लिये कुर्बान कर दी; पर धर्म हाथ से न जाने दिया । यह क्षत्रिय १२ सम्वत् १७७६ में वागमल वंश मे माता कौराल से जन्मा था । इस वींर बालक ने बाल्य काल से ही धार्मिक शिक्षा खूब पायी थी । ग्यारह वर्ष की आयु में वह फारसी पढ़ने के लिये मुसलमान मौलवी के यहाँ गये थे ।

जब जिस जाति का राज्य होता है, तब वह जाति अपने धार्मिक सिद्धान्तों को ही सर्वोत्तम समझती है । उस समय इस देश भारत में मुसलमानो का शासन था, जो अपने इस्लाम धर्म को ही सबसे अच्छा और मुक्तिदाता समझते थे । शान्तिप्रिय हिन्दू लोग जबरदस्ती तलवार के बल से मुसलमान बनाये जाते थे और जो मुसलमान नहीं बनते थे, वे निर्दयता के साथ मार डाले जाते थे । मुसलमान बनने वालों के लिये बड़े-बड़े प्रलोभन थे, कि मरने के बाद बिहिश्त में हूर और गुलाम लोग आनन्द भोग के लिये मिलेंगे, मुसलमान होने पर अच्छी-अच्छी सरकारी नौकरियाँ मिलेंगी । इन प्रलोभनों में भी जो हिन्दू नहीं फॅसते, वे फिर मार डाले जाते थे । वीर बालक हकीकत राय के सामने भी यही समस्या उपस्थित थी ।

एक दिन मुसलमान बालको से कुछ ऐसा ही धार्मिक विवाद छिड़ गया, जिसमें उसे श्रीरामचन्द्रजी और श्रीकृष्णजी का अपवाद सुनना पड़ा । श्रीराम और श्रीकृष्ण के परम भक्त हकीकत राय से वह निन्दा न सुनी गयी और उसने भी साहस-पूर्वक मुसलमानो को वैसा ही उत्तर दिया । उसी समय कई क्रूर मुल्ला लोग भी वहाँ आ गये । हकीकत राय के मुख से इस्लाम की निन्दा सुनकर वे बड़े नाराज हुए; यहाँ तक कि उसकी जान लेने के लिये उतारू हो गये ।

उस समय के न्यायाधीश काज़ी के सामने हकीकत राय का मामला पेश हुआ, क़ाज़ी ने मौलवियों से परामर्श करके कहा, कि "इस लड़के ( हकीकत राय ) ने रसूल और कुरान की तौहीनी की है, इसलिये अगर यह अपनी भूल के लिये पश्चात्ताप करके दीन इस्लाम कबूल कर ले, तो इसे माफी दी जा सकती है; नहीं तो शरीअत के मुताबिक इसके प्राण लिये जायेगे।"

यह मामला सियालकोट में हुआ था; पर जिन क़ाज़ी और मुल्लो ने उस अबोध बालक को प्राणदंड की आज्ञा सुनायी, वे सब ऐसे नीच थे, कि पवित्र इहिसा में उनके कलंकित नाम भी नहीं आने चाहिये ।

हकीकत राय ने धैर्य से वह दंड आज्ञा सुनी, पर उसके माथे पर शिकन तक नहीं पड़ी । उस समय उस वींर बालक की माता वहाँ रोती हुई पहुची और उसे बहुत समझाया, कि – “हाय बेटा । क्या किया जाये ? अरे बेटा ! तू माफी माँग ले और मूसलमान होकर ही जीवित रह, जिसमें मैं कभी-कभी तुझे देखकर अपनी ऑखें तो ठंडी कर लूँगी। "

पर वह वींर बालक अमरत्व का बीज अपनी आत्मा में धारण किये हुए मृत्यु का प्याला पीने को तैयार था । उसने निर्भीकतापूर्वक कहा,-"अरी माता ! मैं धर्मक्षेत्र में खड़ा हुआ, धर्म की उपासना ही सदा करता रहा हूँ । तूने ही मुझे प्राचीन पवित्र ऋषि-मुनियों की गाथाएँ सुनाकर धर्म के लिये तैयार किया था ? अब मैं उस पवित्र धर्म के मार्ग से कदापि विचिलत न होऊँगा । मैं इस्लाम कदापि स्वीकार न करूंगा, धर्म के लिये एक प्राण क्या यदि ऐसे हज़ारों प्राण भी मुझे बलि चढ़ाने पड़े, तो भी मैं खुशी से उसके लिये तैयार रहूँगा ।"

इसके बाद मामला लाहौर के नवाब के सामने आया । नवाब ने भी हकीकत राय को बड़े-बड़े प्रलोभन दिये । हूर और गिलमा का दृश्य दिखाया, फिर तलवार का भय भी दिखाया, पर उस बालक ने अपना निर्णय न बदला । नवाब, काजी और मुल्ला सबने ही इस्लाम और कुरान के बड़े गुण-गान किये, पर वह बालक घृणा के साथ उनका उपहास करता रहा । माता ने भी बालक को बहुत समझाया, पर उस बालक ने एक न सुनी । वह मुसलमानो और मुल्लाओ को अपना गला दिखाता और कहना, कि- “जल्दी इसे काट लो, जिसमें तुम्हारा दीन इस्लाम अधूरा न रह जाये ।"

माता के साथ बालक के सम्बन्धी और हिन्दू लोग सभी रो रहे थे, पर वीर हकीकत राय प्रसन्न चित्त से खड़ा होकर जल्लाद के वार की प्रतीक्षा कर रहा था ।

अन्त मे वह समय भी आ गया जब साक्षात् राक्षस की तरह भयानक जल्लाद अपनी तलवार उस बालक की कोमल गर्दन पर चलाया । वार में उसका सिर कटकर गिर गया ।

त्राहि-त्राहि मच गयी ! उस निर्पराध, अबोध बालक हकीकत राय को मारकर मुसलमानों ने अपने शासन का जनाज़ा तैयार करने में एक और कील ठोंकी ।

“वाहे गुरु को फ़तह” कहता हुआ, बालक हकीकत राय अपने धर्म पर कुर्बान हो गया । इसके बाद लाहौर मे हकीकत राय की समाधि बनाया गयी । मुसलमानों का अत्याचारी शासन भी अब न रहा, पर धर्म के लिये बलिदान होने वाले हकीकत राय का नाम अब तक विद्यमान है, और जब तक इस पृथ्वीतल पर हिन्दू जाति जीवित है, तब तक उस राम-कृष्ण के प्यारे भक्त हकीकत राय का भी नाम अमर रहेगा ।

इसे भी पढ़ें : गुरु का महत्व पर निबंध | Guru ka mahatav par nibandh