हिन्दी उपन्यासों में नारी पात्र
हिन्दी उपन्यासों में नारी पात्र 

हिन्दी उपन्यासों में नारी पात्र

हिन्दी उपन्यासों में नारी पात्र : आज नारी विमर्श के स्तर पर नारी चेतना से संपन्न हिंदी उपन्यास लिखे जा रहे हैं, जिसमें नारी की आत्मा, स्व और अहं ध्वनित है। वास्तव में चेतना का अर्थ विचारों, अनुभूतियों, संकल्पों की आनुषांगिक दशा, स्थिति अथवा क्षमता से है। उसका संबंध नारी की स्वयं की पहचान या किसी भी स्तर पर विषयगत अनुभवों के संगठित स्वरूप से होता है।

हिन्दी उपन्यासों में नारी पात्र

नारी विमर्श और चेतना के विकास का ही परिणाम है कि नारी आज सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यावसायिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में पुरुष के समान ही नहीं बल्कि पुरुष से आगे बढकर अपनी निःशंक सेवाएं दे रही हैं। नारी चेतना का ही चरम है, जहाँ वह यह कहती है- ??मैं उन औरतों में नहीं हूँ, जो अपने व्यक्तित्व का बलिदान करती है, जिनकी कोई मर्यादा और शील नहीं होता है। मैं न उनमें हूँ, जिनके चरित्र पर पुरुष की हवा लगते ही खराब हो जाते हैं और न पति की गुलामी को सच्चरित्रा का प्रमाण मानती हैं। मुझमें आत्मनिर्भरता भी है और आत्मविश्वास भी। मुझे स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता है तो पति और परिवार के साथ सामंजस्य बनाने की शक्ति भी। अतः जीवन के यथार्थ को स्वीकार करने में कोई झिझक भी नहीं है।

नारी के आत्म-बोध, आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी के आधुनिक उपन्यासों में जो नारी चरित्र उभरकर आए हैं उन्हें तीन वर्गों में – उच्च, मध्य और निम्न – विभाजित कर देखा जा सकता है। नारी इनमें से किसी भी वर्ग चरित्र में हो, वह अपनी पहचान बनाती है। पहले वर्ग में यदि वह डॉक्टर, प्राध्यापक, अधिकारी, नेता है तो वह विद्रोह और रुढयों को चुनौती देती हुई महत्त्वाकांक्षिणी के रूप में चित्रित है। मध्यवर्गीय चरित्र के रूप में नारी दोहरे मानदंडों से जूझते हुए झूठी इज्जत के कारण अनेक कष्ट भोगने के लिए बाध्य है, यद्यपि वह शिक्षित है, परंतु समाज की झूठी रूढयों में फँसकर अपनी बौद्विकता से दूर रहकर समाज के अनुरूप खुद को ढालने के लिए विवश है। लेकिन तीसरे वर्ग का नारी चरित्र आज सर्वाधिक सशक्त है, वह विद्रोह और रूढयो को खुलकर चुनौती दे रहा है तथा समाज के बंधनों और मर्यादा की परवाह न करके अपनी आत्मा और स्वाभिमान की रक्षा करता है।

यहीं पर उच्च मध्यवर्गीय चरित्र भी उभरता है। शिक्षित नारी चरित्र समाज और स्वयं के व्यवहार के बीच कहीं खाई पाटता है तो कहीं अहम् की तीव्रता के कारण अपने पारिवारिक संदर्भों और मूल्यों को विघटित करता है। यद्यपि यह चरित्र आर्थिक स्तर पर सुदृढ स्थिति में है और रोजी-रोटी की समस्याएं इन्हें नहीं घेरती हैं। इस वर्ग के पात्रों में प्रमुख नारी चरित्र मालतीदेवी (काली आँधी), महरूख (ठीकरे की मॅगनी), शाल्मली (शाल्मली), शीला भट्टारिका (शीला भट्टारिका) आदि है। इस रूढवादी और विद्रोही नारी चरित्र की परिकल्पना नासिरा शर्मा ने शाल्मली के रूप में की है। वह विवाह के निर्णय से लेकर अंत तक समाज की मर्यादाओं का निर्वाह करती है। पढने की शौकीन शाल्मली विवाहोपरांत प्रशासनिक सेवा में चयन के बाद भी घर-परिवार की मर्यादाओं को ओढे रहती है किंतु प्रत्येक वस्तु के लिए पति के आगे हाथ पसारने के संदर्भ में खुला विरोध करती है। गिरिराज किशोर के उपन्यास तीसरी सत्ता की डॉक्टर शिक्षित होकर रूढयों की शिकार होकर अपने बद्मिजाज एवं पति की क्रूरता के कारण अपने स्वाभिमान गला घोंटकर आत्महंता बन जाती है।२ जबकि ठीकरे की मँगनी की महरुख मुसलिम परिवार की शिक्षिता युवती है। अपने मंगेतर रफत के शोधकार्य हेतु बाहर जाने और किसी अन्य से विवाह कर लेने पर उसमें परिवर्तन आ जाता है और रफत के लौटने पर निकाह के आग्रह को ठुकराकर अपने बाल्यकाल के साथी को शौहर बनाकर सारी रूढयाँ तोडकर दिल्ली चली जाती है।३ काली आँधी की नायिका मालती सामाजिक मर्यादाओं और रूढयों को तोडकर राजनेता के रूप में पद एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करती है तथा अपनी उन्नति के मार्ग में न अपने पति को आने देती है और न अपनी पुत्री लिली को।

आधुनिक हिंदी उपन्यासों में पारंपरिक आदर्शवादी और यथार्थवादी नारी चरित्रों का अभाव नहीं है। ऐसे पात्र पारंपरिक आदर्शवादिता और यथार्थ को एक साथ जीते हैं। पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति तथा वैज्ञानिकता और शिक्षा प्रसार के कारण सामाजिक बंधनों की शिथिलता और स्वतंत्र चिंतन ने मानव व्यक्तित्व में परिवर्तन भी दर्शाया है तथा आदमी का अहम् भी व्यापक हुआ है। परिणामतः नारी की अहंता बढती दिखाई देती है इसलिए इन नारी चरित्रों में नौकरी की ललक, वैवाहिक संबंधों की शिथिलता, पारिवारिक विघटन का उल्लेख समाहित हो गया है। शाल्मली प्रशासनिक सेवा में चयन होने पर अपना वैवाहिक जीवन विघटित पाती है क्योंकि उसकी महत्त्वाकांक्षाएं उसे आगे जाने के लिए प्रेरित करती हैं। उसके अंदर का आदर्शवाद ही पारिवारिक विघटन से उसे बचा पाता है।तीसरी सत्ता की लेडी डॉक्टर के चरित्र की उपलब्धि पारिवारिक जीवन में घुटन और विवशता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।६ परम्पराएं न तो रूढयाँ हैं और न संस्कारों का भार होती हैं और न उन्हें ओढा जाता है। यही कारण है कि परंपरागत मुस्लिम परिवार की महरुख लीक से हटकर आधुनिक बनते बनते अपनी पहचान बना लेती है।

समाज में आदर्श एवं यथार्थ दोनों की अपनी विशेषताएं हैं और उनके बीच ही विसंगतियों का विकास होता है। सामाजिक आदर्श की अपेक्षा यथार्थ की ओर व्यक्ति का झुकाव होता है और वह परंपरागत रूढयों एवं मान्यताओं को तोडने को कटिबद्ध होता है। आधुनिक उपन्यासों के नारी चरित्रों में एक संघर्षात्मक स्थिति का चित्रण उपन्यासकारों ने किया है। महरुख का रफत के साथ विवाह से पहले जाना मुस्लिम परंपरा के विरुद्ध है किंतु बदली हुई परिस्थितियों में शिक्षा देते जाने में परंपरा की परवाह नहीं की है। इसी प्रकार काली आँधी की मालती का घर की दीवारों से बाहर आना, नेता बनना आदि तत्कालीन यथार्थवादी परिस्थितियों की देन है। तभी यह चरित्र सफल नेता के रूप में समाज की उपलब्धि है। शाल्मली का चरित्र भी यथार्थ रूप में उभरता है। वह अपने पति को इज्जत देती है किंतु कर्त्तव्य के बीच में आने पर यथार्थ का बोध कराते हुए कह देती है- सभी औरतें यदि इस प्रकार अर्जी देने लगें तो हो चुका काम। वह पति की नहीं, सरकार की नौकरी है…..।

आधुनिक उपन्यासों में कुछ चरित्र घरेलू, कामकाजी, अंतर्मुखी और वस्तुगत (सब्जेक्टिव) हैं। उच्चमध्यवर्गीय नारी चरित्रों के रूप में उन्हें देखा जा सकता है ये नारी चरित्र शिक्षित, योग्य एवं विकास की संभावनाएं लिए हैं तथा घर और बाहर दोनों को संभाल रखे हैं। पद पाकर भी अपने परिवार के प्रति उनमें सजगता है तो अपने केरियर के प्रति भी और कर्त्तव्य के प्रति भी। तीसरी सत्ता की लेडी डाक्टर कामकाजी होकर भी घरेलू है और अंतर्मुखी है। शाल्मली अपने सरकारी पद और पति एवं परिवार का ध्यान रखती है। वह अपने घर एवं बाहर में सामंजस्य बनाए रखती है तथा अंतर्मुखी है। काली आँधी की मालती का व्यक्त्तित्व राजनीति में बिखरता दिखाई देता है। वह घर और बाहर में सामंजस्य न रखकर बाहर की ओर वस्तुगत जीवन को स्वीकार कर लेती है। अतः उसके दाम्पत्य संबंधों में भी टकराव होता है। मिथिलेशकुमारी मिश्र के उपन्यास शीलाभट्टारिका की शीला का सोच अधिक परिपक्व है तथा नारी चेतना का प्रसार रहते हुए भी वह कामकाजी एवं घरेलू नारी चरित्र है।

मध्यवर्ग के नारी चरित्र मूलतः शिक्षित, पारंपरिक और विद्रोही तो हैं ही, पर इनमें अशिक्षित नारी चरित्र भी हैं। यद्यपि मध्यवर्ग में वर्ग चेतना का रूप सबसे कम लक्षित होता है। इस वर्ग में व्यावसायिक मित्रता, आर्थिक स्थिति और भूमिका में भिन्नता भी द्रष्टव्य है। पर यह वर्ग-चेतना अंतर्मुखी है। आधुनिक उपन्यास के अध्ययन से यह देखा जा सकता है कि इन नारी चरित्रों के पास सीमित साधन होते हुए भी अधिक से अधिक अच्छे ढंग से जीना चाहते हैं तथा वे महत्त्वाकांक्षी भी हैं। कर्क रेखा (शशि प्रभा शास्त्री) की तनु शिक्षित है और भारतीय संस्कारों के पारंपरिक स्वरूप को समझने का प्रयास करती है। शेषयात्रा (उषा प्रियंवदा) की अनुष्का प्रणय के साथ प्रेम-बंधन में बँधती है। वह शिक्षित है और नारी चेतना का विकास उसमें परिलक्षित होता है। शेफाली (शेफाली) शिक्षित एवं भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं के अस्वीकार के साथ अपने व्यक्तित्व को प्रमुखता देती है। इसमें उस नारी चरित्र का विद्रोही रूप उभरकर आता है।

“उम्र एक गलियारे की” (शशि प्रभा शास्त्री) की नायिका सुनंदा शिक्षित परंपरागत एवं विद्रोहिणी नारी है। वह भारतीय परंपराओं का निर्वाह करती है, वहीं आत्मबोध से परिपूर्ण है। शेषयात्रा (उषाप्रियवंदा) की अनुष्का, अंधेरा उजाला (विष्णु पंकज) की तारिका-दोनों ही शिक्षित, पारंपरिक एवं विद्रोहिणी हैं। उनके विद्रोह में परिस्थितियों और परिवेश ही कारण बनते हैं। विवाह भी परंपरा और विद्रोह के स्तर पर उभरता है। नारी चेतना के परिप्रेक्ष्य में इन चरित्रों में नारी चेतना के विकास के समानांतर भारतीय संस्कार एवं परंपराएं भी चरित्र निर्मात्री शक्ति बनती है।

मध्यवर्गीय नारी चरित्रों में घरेलू, कामकाजी, वैयक्तिकता, सामाजिकता आदि का अंतःसंघर्ष उभरता है। मध्यवर्गीय ये नारी चरित्र प्रायः काम-काजी हैं, जो उनके जीवन के लिए मजबूरी है। अतः घर और बाहर दोनों ही क्षेत्रों में काम संभालते-संभालते थक जाती हैं। बेघर (ममता कालिया) की नायिका मानसिक परेशानियों से बचने के लिए घर से निकलकर भागा-दौडी के कारण जीवन का सर्वस्व समाप्त कर लेती है। पतझड की आवाजें (निरूपमा सेवती) की नायिका शिक्षित होने के साथ अपनी विशिष्ट भावनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं के सूप में बॉयफ्रैण्ड की रेस्पेक्ट भी मेंटेन नहीं कर पाती क्योंकि उसकी मध्यवर्गीय नैतिक चेतना चरमराने लगती है।

वैयक्तिकता और सामाजिकता के अंतःसंघर्ष के कारण इच्छाओं और परिस्थितियों का प्रभाव व्यक्तित्व, नैतिकता, वैचारिकता पर पडता है। त्रिकोण (नरेशकुमार शर्मा) की लोरेन, बेघर (ममता कालिया) की नायिका अग्निगर्भा (अमृतलाल नागर) की सीता, एक चिथडा सुख और? मुट्ठीभर रोशनी (दीप्ति कुलश्रेष्ठ) की नायिकाएं वैयक्तिकता ओर सामाजिकता से संघर्ष ही नहीं करती, वरन् अपने अस्तित्व का संघर्ष भी झेलती है। कोरजा (मेहरूनिस्सा परवेज), अंधेरा-उजाला, सत्तरपार के शिखर (पानू खोलिया) प्रतिध्वनियाँ (दीप्ति खंडेलवाल) आदि के नारी चरित्र सामाजिक नैतिकता से मुक्त व्यक्तिगत नैतिकता पर केंदि्रत होती दिखाई देती हैं।

नारी सम्मान और पारस्परिक संबंधों के जटिल अंतर्विरोध, प्रेम के अंतरंग स्वरूप तथा नारी-महत्त्वाकाक्षाओं ने नारी चरित्र में दोहरे व्यक्तित्व का निरूपण करने के लिए उपन्यासकार को बाध्य किया है। मध्यवर्गीय नारी चरित्र एक प्रकार से अंतर्मुखी चेतना का विकास द्रष्टव्य होता है। अतिशिक्षित एवं बौद्धिक होती नारी अपने सम्मान के प्रति अधिक सजग हो उठी है। परिणामतः समाज में पारस्परिक संबंधों में अंतर्विरोध की स्थितियाँ बढ गई है। यही नहीं, बढती हुई नारी चरित्रों की अंतर्मुखता समाज विरोधी स्थिति बनती है। समाज एवं सामाजिकता को गौण करते हुए व्यक्ति को अधिक प्रतिष्ठा चित्रित की गई है। अग्निगर्भा (अमृतलाल नागर) की नायिका अपना सम्मान बनाए रखने में पग-पग पर अंतर्विरोध से गुजरती है। वह अपनी पसंद का जीवन साथी चाहती है तथा परंपरागत मूल्यों, मान्यताओं और बंधनों को नकारती है।

वैयक्तिक रुचि, स्वतंत्र चेतना, महत्त्वाकांक्षाओं का आग्रह, शिक्षा का प्रभाव अति अहंवादिता ने आधुनिक उपन्यासों के नारी चरित्रों को अपेक्षाकृत अधिक द्वन्द्वी और विद्रोही बना दिया है। परिणामतः पारस्परिक संबंधों में अंतर्विरोध झलकता है। अर्थ-प्रधानता के कारण पति-पत्नी संबंध पिता-पुत्री संबंध सभी पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है। अंधेरा-उजाला, कर्करेखा, बेघर, चित-कोबरा, प्रतिध्वनियाँ, शेफाली उपन्यासों में नारी चरित्र नारी-पुरुष संबंधों से कहीं कम दाम्पत्य-संबंधों के रूप में देखते हैं। इन चरित्रों में उभरता विचार मूलतः यही है कि- विवाह अपनी जगह है तथा घर के बाहर के प्रेम संबंध अपनी जगह।? इन चरित्र के निष्कर्ष पर यह निष्कर्ष देखा जा सकता है कि इनके मध्य नारी-पुरुष संबंध भावनात्मक आवेग तक सीमित न होकर शारीरिक अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं के रूप में ही सक्रिय हैं।

आधुनिक हिंदी उपन्यासों में नारी चेतना के परिप्रेक्ष्य में अकेलेपन की अब, स्वतंत्र अस्मिता के संघर्ष के प्रति जागरूकता, विवाह, परिवार और समाज के प्रति उनकी भूमिका तथा मानवीय चेतना की प्रतिष्ठा का चित्रण किया गया है। यह अकेलेपन की स्थिति पाश्चात्य संस्कृति की देन ही है, जो परिवेशजन्य परिस्थिति से उत्पन्न होता है क्योंकि भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुंबकम् का ही चिंतन रहा है। आज पाश्चात्य चिंतन की आयातित मानसिकता ने अकेलेपन का सूत्रपात किया है। आज अतिपरिचयजन्य कुंठाओं की अतिशयता ने पारस्परिक संबंधों को खोखला कर दिया। व्यक्ति से व्यक्ति की दूरी बढा दी गई है। यहाँ हमारे अकेलेपन के मूल में औद्योगीकरण, यांंत्रकता की वृद्धि बढती हुई जनसंख्या, बेकारी, आर्थिक संकट, अराजकता और भोगवादी स्थितियों के कारण भी हैं।

मेरे संधिपत्र (सूर्यबाला), कर्करेखा (शशिप्रभाशास्त्री), अग्निगर्भा (नागर) आदि की नायिकाएं सदैव अजनबी बनी रहती हैं, अकेलेपन से परेशान रहती हैं या फिर अपने को निरर्थक मान लेती हैं। इनके लिए विवाह आपस का एडजस्टमेंट भर है। कर्क रेखा की तनु अकेलेपन में ही गुजार देती है। त्रिकोण की लोरेन पितृसमाज की मुहर बनना दासता बताती है। बेघर की नायिका बिना विवाह के ही शारीरिक संबंध स्थापित करती है। तीसरा पुरुष (प्रफुल्ल प्रभाकर) की नायिका विवाहित होकर भी "शक" के घेरे में बँध कर रह जाती है तथा उसके लिए भावनाएं गौण हो जाती हैं। अग्निगर्भा की सीता मात्र पारिवारिक एवं आर्थिक भोग का साधन है।

आधुनिक काल में नारी के प्रति पुरुष के भाव बदल गया है और नारी ने भी अपने स्वातंय की घोषणा करते हुए समाज से दया नहीं, अपने अधिकारों की माँग की है। वास्तव में आज नारी बढते अजनबीपन, विवाह संबंधों में शिथिलता और परिवार एवं समाज में नारी की स्थिति एवं चेतना का किंचित विकास दिखाई देता हैं मध्यवर्गीय नारी के पास न तो अपना व्यक्तित्व है और न उसे आगे बढाने वाला समाज ही। फिर आर्थिक विषमताएं नारी में क्रोध, खीज, निराशा उत्पन्न करती हैं।

सामाजिक यथार्थ, परंपराओं का नवीनीकरण और आधुनिक-बोध निम्नवर्ग की श्रमशक्ति और उसके शोषण को ही निरुपित करते हैं। महानगरीय सभ्यता के बीच गाँव और कस्बों से आए हुए निम्नवर्ग की जिंदगी पिस जाती है। तभी अनारो (मंजुल भगत) की नायिका आधुनिकता और परंपराओं के बीच जूझती है और अपने वर्ग की समस्त विद्रूपताओं एवं संघर्षों के साथ जीवन को रेखांकित करती है। सेवित्तरी (शैलेश मटियानी) की नायिका सुंदर एवं सुशील है और यथार्थ जीवन जीती है। माटी (बचिंत कौर) की भागवंती जमाने भर की ठोकरें खाती है, पर वह किसी के सामने हाथ नहीं फैलाती है। बसंती (भीष्म साहनी) की नायिका यथार्थ जीवन जीना चाहती है, किसी प्रकार का दबाव वाला नहीं। बुलाकी से विवाह तय किए जाने पर वह दीनू के साथ भाग जाती है, जिसे अपना सर्वस्व मानती है। वास्तव में जीने की अदम्य लालसा उसमें कार्य की प्रखर शक्ति पैदा करती है। निम्न वर्ग के नारी चरित्रों में जीवन मूल्यों एवं नैतिक मर्यादाओं की चिंता नहीं होती है। नैतिक मूल्यों का विघटन, परंपराओं के प्रति विद्रोह, जिजीविषा और अस्तित्व का संघर्ष आधुनिक उपन्यास के नारी चरित्रों में उकेरा गया है क्योंकि नैतिक मान्यताएं उसकी समझ से बाहर हैं। पति द्वारा प्रताडना, पहली पत्नी के होते हुए दूसरी स्त्री ले आना या कुछ रुपयों के लिए अपनी पत्नी को किसी को बेच देना या सोने के लिए बाध्य करना नारी चरित्रों के लिए विशेष परिस्थितियाँ पैदा करती हैं।

बसंती (बसंती) का घर से भागना नैतिक मूल्यों का विघटन है। माटी की भागवंती पति द्वारा प्रताडत है। पति गलत उपयोग कराता है भागवंती का। ढोलन कुंजकली (यादवेंद्र शर्मा चंद्र) की ढोलन का पति अपनी पत्नी के ?जोबन? से कमाकर खाता है और पत्नी का नाच-नंगापन बरदास्त करता है। जनानी ड्योढी (चंद्र) की नायिका को ठाकुर एक बार भोगकर हमेशा के लिए भूल जाते है, पर औरत जनानी ड्योढी में बंद हो जाती है और पुरुष सामीप्य पाने के लिए बाहर से पैसा खर्च कर पुरुषों को बुलाती है। टपरेवाले (कृष्णा अग्निहोत्री) निम्नवर्ग की नारी सुविधा भोगी पुरुष की वासनापूर्ति कर अपने पेट की भूख मिटाती है। डेरेवाले (शैलेश मटियानी) की नारी भी नैतिक मूल्यों का विघटन दर्शाती है क्योंकि देह ही महत्त्व रखती है। डेरेवालों में बेटी सोने का अंडा होती है। नाच्यो बहुत गोपाल (नागर) में निम्नवर्ग (भंगी) के साथ कुलीन लडकी के भागने के पीछे भी परंपराओं के प्रति विद्रोह और अस्तित्व का संघर्ष लिए है।

आधुनिक उपन्यासों में चित्रित नारी चरित्रों में वैयक्तिक रुचि, महत्त्वाकांक्षा स्वतंत्र चेतना, अस्त्तित्व और अस्मिता की पहचान से कहीं अधिक जीवन के दुःखों एवं संघर्षों से परिपूर्ण हैं और उसके समानांतर पीढयों का मोहभंग, टूटन, विघटन, वर्ग संघर्ष की समानांतर चेतना एवं जीवन का अर्थ-बोध उकेरा गया है। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि निम्नवर्गीय नारियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक विद्रोहिणी हैं और समाज की नैतिक मान्यताओं, रुढयों एवं परंपराओं को तोडने में सजग एवं सक्रिय हैं। बसंती, अनारो इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। खुदा सही सलामत है (रवींद्र कालिया) की गुलाबदई आर्थिक रुप से टूटना नहीं चाहती। यह उसके अपने व्यक्तित्व के प्रति चेतना है, उसमें अपना स्वाभिमान है। उसमें मूक विद्रोह भी निहित है। परवर्ती अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि निम्न वर्ग के नारी पात्र अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक उग्र हैं तथा उनमें अपने अधिकारों के प्रति चेतना की तीव्रता है जिसे नारी विमर्श के निकष पर स्वीकार किया जाता है।

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