मातृभाषा में शिक्षा और शोध बौधिक सम्पदा के लिए लाभदायक |  Matribhasha me shiksha aur shodh boudhik sampada ke liye aavshyak
मातृभाषा में शिक्षा और शोध बौधिक सम्पदा के लिए लाभदायक |  Matribhasha me shiksha aur shodh boudhik sampada ke liye aavshyak 

मातृभाषा में शिक्षा और शोध बौधिक सम्पदा के लिए लाभदायक

मातृभाषा किसी भी इंसान के लिए संवाद का जरिया भर नहीं, बल्कि वह माध्यम भी है जिसके साथ उसकी समृद्ध विरासत जुड़ी होती है। मातृभाषा का संरक्षण भी जरूरी है और उसे शिक्षा का माध्यम बनाकर आने वाली पीढ़ियों को अपनी सांस्कृतिक और बौधिक विरासत से जोडने का प्रयास करना चाहिए।  

शिक्षा की भाषा मातृभाषा हो

जिन देशों में मातृभाषा का पूर्णतया प्रचार है, जिसमें शिक्षा के समस्त कार्य मातृभाषा के ही द्वारा होते हैं, वहां के निवासी मातृभाषा के द्वारा उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं। जिन्हें समस्त विभागों में मातृभाषा के व्यवहार की स्वतंत्रता प्राप्त है, वहां के जनसमुदाय का चरित्र सर्वथा उच्च और पवित्र रखता है। जिसने राष्ट्रीय जीवन के मर्मरूपी बीजमंत्र मातृभाषा को भूला दिया, उसके सुरक्षित रखने का विचार परित्याग कर दिया, जिसने इस तत्वरूपी वस्तु को नष्ट होने दिया, जिसने मातृभाषा का तिरस्कार कर अपने मानसिक और ऐतिहासिक ज्ञान को भुला दिया, उसने अपने जातीय गौरव का नष्ट-भ्रष्ट किया और संसार में मानो अपना अस्तित्व खो दिया। मातृभाषा को तिरस्कृत करना अपने प्राचीन इतिहास को भूल जाना, परंपरा का ज्ञान खो देना मानो अपने पुरखों की कमाई को मिट‌्टी में मिला देना और अपने आप को नपुंसक बना देना है।

राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति मातृभाषा से ही संभव

राष्ट्रीय एवं सामाजिक जागृति मातृभाषा प्रचार के बिना नहीं हो सकती। मातृभाषा के द्वारा जातीय कला कौशल और साहित्य का पुनर्जीवित करना देश समाज के शुभचिंतकों का प्रथम कर्तव्य है। कुछ लोग अपनी मातृभाषा में बातचीत करने में अपनी मानहानि समझते हैं। जिस मातृभाषा ने उन्हें पाला-पोसा है, जिसने उन्हें खाने-पीने, सोने-रहने और बैठने के शब्द सिखाए हैं, जिसने उन्हें बचपन में मां से भात-रोटी मांगने के वाक्य सिखाए हैं, उसकी अवहेलना करने में उन्हें तनिक भी लाज नहीं आती है। यह हमारे लिए शर्म की बात है।

मातृभाषा में शिक्षा और शोध बौधिक सम्पदा के लिए लाभदायक

सामाजिक एवं राष्ट्रीयता के भाव रखनेवालों के कदाचित ही कोई ऐसे हों जिन्हें मातृभाषा से प्रगाढ़ ममता हो। मातृभाषा के प्रचार से सदाचार को किसी विचित्र तथा विलक्षण मानसिक प्रभाव के कारण अत्यंत लाभ होता है। मातृभाषा के द्वारा हम जो सीखते हैं, वह संसार के अन्य किसी भाषा के द्वारा नहीं सीख सकते। आज विदेशी भाषा के द्वारा इतिहास, भूगोल रट-रटकर बेचारे नवयुवक अस्वास्थ्य और दुर्बलता के शिकार हो रहे हैं। किसी भाषा का साहित्य कितना ही धनी क्यों हो, वह मातृभाषा के साहित्य से अिधक आवश्यक और आदरणीय नहीं हो सकता। सर्वसाधारण की उन्नति मातृभाषा के सरल साहित्य के द्वारा हो सकता है।

मातृभाषा इतिहास, विचार और प्राचीन भंडार की कुंजी

मातृभाषा सजीव शब्दों का कोष है, सुहावने चिह्नों का भंडार है। जाति के जीवन की साक्षात मूर्ति है, जातीय शक्ति की प्रतिमा है, जो जाति के विचारों और उसके हृदयस्थित भावों को सुरक्षित रखकर उन्हें दूसरों पर प्रकट करती है। मातृभाषा इतिहास, विचार और प्राचीन भंडार की कुंजी है। हमारा भावी साहित्यिक और मानसिक गौरव उसी मातृभाषा के भविष्य पर निर्भर है। संतान के लिए मस्तिष्क की सफुर्ति को बढ़ाने का उपाय मातृभाषा से बढ़कर दूसरा नहीं है। मातृभाषा हृदय को उत्तेजित करती है, मन की भावना को मजबूत करती है, आत्मा को शुद्ध रखती है। मन और आत्मा में शक्ति का संचार होता है। गिरी हुई जाति के हृदय में जातित्व के भावों को उपजाती है तथा सांसारिक क्षेत्र में उन्नति का पथ परिष्कृत करती है।

बौद्धिक संपदा का अर्थ

विद्वान जेरेमी फिलिप्स के अनुसार बौद्धिक संपदा में ऐसी वस्तुएं आती हैं, जो व्यक्ति द्वारा बुद्धि के प्रयोग से उत्पन्न होती हैं। किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा सृजित कोई मौलिक कृति, डिजाइन, ट्रेडमार्क इत्यादि बौद्धिक संपदा हैं।  भौतिक धन की तरह ही बौद्धिक संपदा का भी स्वामित्व लिया जा सकता है।

स्वामित्व के लिए बौद्धिक संपदा कानून बनाए गए हैं। इसके अंतर्गत कोई अपनी बौद्धिक संपदा का नियंत्रण कर सकता है और साथ ही उसका उपयोग करके बौद्धिक संपदा भी अर्जित कर सकता है। बौद्धिक संपदा का स्वरूप अमूर्त होता है, लेकिन राज्य ने संपत्ति की सामान्य व्याख्या के अंतर्गत इसे मान्यता प्रदान की है।

बौद्धिक संपदा और भारत

भारत सरकार ने 2016 में राष्ट्रीयबौद्धिक संपदा अधिकार नीति को स्वीकृति प्रदान की थी। इस नीति के जरिए ही भारत में इसके संरक्षण और प्रोत्साहन में मदद मिल रही है। इस नीति के अंतर्गत सात लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं।

  • समाज के सभी वर्गों में बौद्धिक संपदा अधिकारों के आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक लाभों के प्रति जागरुकता पैदा करना।
  • बौद्धिक संपदा अधिकारों के सृजन को बढ़ावा देना।
  • मजबूत और प्रभावशाली बौद्धिक संपदा अधिकार नियमों को अपनाना, ताकि अधिकृत व्यक्तियों तथा वृहद लोकहित के बीच संतुलन बना रहे।
  • सेवा आधारित बौद्धिक संपदा अधिकार प्रशासन को आधुनिक और मजबूत बनाना।
  • व्यवसायीकरण के जरिए बौद्धिक संपदा अधिकारों का मूल्य निर्धारण।
  • बौद्धिक संपदा अधिकारों के उल्लंघनों का मुकाबला करने के लिए प्रवर्तन एवं न्यायिक प्रणालियों को मजबूत बनाना।
  • मानव संसाधनों तथा संस्थानों की शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान क्षमताओं को मजबूत बनाना और बौद्धिक संपदा अधिकारों में कौशल निर्माण करना।

गत वर्ष केन्द्रीय वित्त मंत्रालय ने बौद्धिक संपदा नियमों में कुछ संशोधन करते हुए, पेटेंट अधिनियम 1970 के सभी संदर्भों को हटा दिया है।

इस क्षेत्र में भारत सरकार की तत्परता का ही नतीजा है कि नित नए नवोन्मेष सामने आ रहे हैं। इसी के चलते एक ताजा अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक सूचकांक में भारत का स्थान आठ पायदान ऊपर आ सका है।

विश्व में बौद्धिक संपदा

1995 में विश्वव्यापार संगठन का जन्म हुआ और इस अधिकार के संदर्भ में ट्रिप्स इस संगठन का एक समझौता है। यह एक संतुलित तथा सुगम अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा पद्धति के लिए समर्पित है, जो रचनात्मकता, नौकरियों और आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है। संगठन के सभी सदस्य देश इसे मानते हैं और अपने कानून इसी के मुताबिक बनाते हैं। इस अधिकार को संरक्षण और प्रोत्साहन देने के लिए प्रतिवर्ष 26 अप्रैल को विश्व बौद्धिक संपदा दिवसमनाया जाता है।

नई पीढ़ी को प्राचीन ज्ञान भंडार की कुंजी सौपना मातृभाषा से ही संभव

बौद्धिक संपदा संरक्षण के क्षेत्र में साहित्यिक चोरी और अवैध तरीके से नकल किया जाना एक गंभीर खतरा बनता जा रहा है, जिससे किसी बौद्धिक उत्पाद और उसके रचनाकर्ता की मौलिकता और प्रामाणिकता को आर्थिक क्षति पहुंच रही है। यही वजह है कि बौद्धिक संपत्तियों और उसके स्वामियों के हितों के संरक्षण के लिए वैश्विक समुदाय उचित नीतिगत उपाय तथा रक्षा-तंत्र के जरिए अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है।

 ऐसे कई उदहारण सामने आये है जिनमे भारतीय पारंपरिक ज्ञान का पेटेंट विदेशी कंपनियों द्वारा करवाने का प्रयास किया गया। ऐसा हमारे अपनी पारंपरिक ज्ञान के प्रति उपेक्षा के कारण ही हुआ। अगर हम शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में करेंगे तो भारतीय शोध छात्र –छात्राएं ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अपने मौलिक चिंतन और पारंपरिक भारतीय ज्ञान के माध्यम से भारतीय बौद्धिक संपत्तियों और उसके हितों के संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर पायेंगे।

 

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