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Chandra
Gahna Se Lautati Ber Class 9 : चन्द्र गहना से
Chandra Gahna Se Lautati Ber Class 9 ,
Explanation Of Chandra Gahna Se
Lautati Ber Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 14 , Chandra Gahna Se Lautati
Ber Class 9 Summary , चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ / अर्थ कक्षा 9 हिंदी क्षितिज भाग 1 अध्याय 14 , चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश
Chandra Gahna Se Lautati Ber Class 9 Summary
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का सारांश
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता के कवि केदारनाथ अग्रवाल जी हैं। इस कविता में कवि ने बसंत ऋतु का बहुत सुंदर वर्णन किया हैं। फाल्गुन माह में बसंत ऋतु का आगमन होता हैं। और बसंत ऋतु के आने से प्रकृति की सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं। ठीक उसी समय कवि चन्द्र गहना नामक एक गाँव से लौट रहे थे।
लौटते वक्त रास्ते में उन्हें सुंदर-सुंदर हरे-भरे खेत दिखाई दिए जिसमें सरसों , अलसी , चने के पौधों में सुंदर फूल खिले हुए थे। और चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी। उन सुंदर प्राकृतिक दृश्यों को देखकर कवि के कल्पनाशील मन को ऐसा लग रहा था मानो जैसे प्रकृति ने कोई स्वयंवर रचाया हो।
कवि कहते हैं कि शहरों में भले ही प्रेम कम फलता-फूलता हो लेकिन इस निर्जन स्थान पर , इस प्राकृतिक वातावरण में प्रेम भरपूर फल-फूल रहा है। कवि पोखर (तलाब) की तरफ देखते हैं तो पोखर में सीधी पड़ती सूरज की किरणों किसी चांदी के खंबे जैसी प्रतीत होती है और पोखर के पानी में हल्की -हल्की लहरें भी आ रही है।
सारस की याद आते ही कवि कहते हैं कि सारस हमेशा जोड़े में रहते हैं। अब कवि का मन करता है कि वह उड़ कर चुपचाप उस जगह पर पहुंच जाएं , जहां सारस का जोड़ा बैठा हुआ आपस में प्रेम की बातें कर रहा है और वह चुपचाप उस प्रेम कहानी को सुनना चाहते हैं।
Explanation Of Chandra Gahna Se Lautati Ber Class 9
चंद्र गहना से लौटती बेर कविता का भावार्थ
काव्यांश 1. देख आया चंद्र गहना
देख आया चंद्र गहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खड़ा है।
कवि चंद्र गहना नामक एक गांव से लौट रहे हैं। लौटते वक्त रास्ते पर पड़ने वाले खेतों के प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर कवि उसकी सुंदरता पर मोहित होकर एक खेत की मेंड़ (
दो खेतों के बीचों-बीच थोड़ा ऊँचा स्थान) पर अकेले बैठ कर खेतों की शोभा को देखने लग जाते है।
कवि को ऐसा आभास होता है जैसे प्रकृति ने किसी स्वयंवर का आयोजन किया हो। बालिस्त भर (22.5 सेंटीमीटर) के एक ठिगने (छोटा) से चने के पौधे पर खिले गुलाबी फूल को देखकर कवि को ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे कोई छोटा सा , नाटा सा आदमी अपने सिर पर गुलाबी पगड़ी बांधे दूल्हा बनकर खड़ा हो। यहाँ पर कवि ने चने के पौधे का मानवीकरण किया हैं
काव्यांश 2. पास ही मिलकर उगी है
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सर पर चढ़ा कर
कह रही, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।
चने के पौधे के पास ही उगे एक अलसी के पौधे को कवि एक ऐसी नवयुवती के रूप में देख रहे हैं जिसका पतला शरीर है और लचीली कमर है और जिसमें नीले रंग का फूल खिला हैं । कवि कहते हैं कि पास पर ही एक पतले शरीर व लचीली कमर वाली हठीली अलसी भी उगी हैं जिसने अपने बालों में नीले रंग का फूल सजा रखा हैं। (उस समय अलसी की खेती नहीं की जाती थी। यह खुद-ब-खुद उग जाती थी। इसीलिए कवि ने इसे हठीली कहा हैं।लेकिन आजकल इसकी खेती की जाती हैं।)
उस अलसी के नीले फूल को देखकर कवि को ऐसा लग रहा है जैसे वह कह रही हो , जो मेरे बालों में लगे इस नीले फूल को सबसे पहले छुएगा , उसे वह अपना हृदय (दिल) दे देगी। यहाँ पर कवि ने अलसी के पौधे का मानवीकरण किया हैं
काव्यांश 3. और सरसों की न पूछो
और सरसों की न पूछो-
हो गयी सबसे सयानी ,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं स्वयंवर हो रहा है ,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि सरसों के बारे में तो पूछो ही मत। वह तो इतनी सयानी हो गई है कि उसने तो अपने हाथ खुद ही पीले कर लिए हों। और सजधज कर दुल्हन के रूप में ब्याह मंडप में आ गई है। और साथ ही कवि को ऐसा लग रहा हैं जैसे फाल्गुन का महीना भी फाग (शादी ब्याह के वक्त गाये जाने वाले शगुन गीत) गाते हुए इस ब्याह में शामिल होने आ चुका है। यहाँ पर कवि ने सरसों के पौधे का मानवीकरण किया हैं
कवि आगे कहते हैं कि मैं इस पूरे प्राकृतिक स्वयंबर को देख रहा हूं जिसमें सरसों दुल्हन और चना दूल्हा बनकर ब्याह मंडप में बैठे हैं। और जब हल्की-हल्की हवा चलती हैं तो पेड़ पौधों , खेतों पर खड़ी फसलों व फूल-पत्तों के हिलने से कवि को ऐसा लग रहा है मानो प्रकृति भी अपना प्रेम भरा आंचल हिला कर , इस स्वयंवर के प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही हैं । या उनको अपना आशीर्वाद दे रही हैं।
काव्यांश 4. इस विजन में
इस विजन में ,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वो भी लहरियाँ।
इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि शहर की भीड़भाड़ वाली जगह में प्रेम का अभाव है। वहां लोगों के दिलों में प्रेम कम पनपता हैं। जबकि इस निर्जन स्थान पर प्रेम की भूमि बहुत अधिक उपजाऊ है। यहाँ प्रेम बहुत अधिक पनप रहा हैं। यानि शहर से दूर इस निर्जन स्थान पर कवि को हर जगह प्रेम ही प्रेम दिखायी दे रहा है।
कवि जिस जगह पर बैठे हैं वहाँ से नीचे की ओर एक छोटा सा पोखर (तालाब) है जिसमें छोटी-छोटी लहरें उठ रही हैं और उस पोखर की तलहटी पर भूरे रंग की धास-पूस उगी हैं। कवि को ऐसा लग रहा हैं जैसे वह धास-पूस भी पानी की लहरों के साथ लहरा रही हैं यानि पानी की लहरों के साथ वह भी हिल रही है।
काव्यांश 5. एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्भा
एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्भा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुप चाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
इन पंक्तियों में सूरज की किरणें पोखर के पानी में बीचो-बीच पडने से कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे पोखर के बीच कोई चांदी का खंभा रखा हो जिसकी जगमगाहट से आँखों चौंधिया रही हो। यह कवि की कल्पना है।
कवि आगे कहते हैं कि वही पोखर के किनारे पड़े पत्थर चुपचाप पानी पीते जा रहे हैं और इतना पानी पीकर भी उनको संतुष्टि नहीं मिल पा रही है। न जाने इनकी प्यास कब बुझेगी। यहाँ पत्थरों का मानवीकरण किया हैं।
काव्यांश 6. चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,
चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान-निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले को डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
उपरोक्त पंक्तियों में कवि पोखर के किनारे रहने वाले पक्षियों की बात कर रहे हैं। कवि कहते हैं कि एक बगुला अपनी टांग पानी में डुबाये चुपचाप ध्यान मग्न होकर खड़ा है और जैसे ही उसे कोई मछली दिखाई देती है तो वह अपनी ध्यान व नींद मुद्रा को त्याग कर सीधे पानी में अपनी चोंच डालकर मछली को पकड़कर निगल लेता है।
और काले माथे वाली एक चालक चिड़िया जिसके सफेद पंख हैं। वह जैसे ही पानी में मछली को देखती हैं तो तेजी से पानी के अंदर जाकर , झपट्टा मारकर एक सफेद चतुर मछली को अपनी पीली चोंच में दबाकर दूर आसमान में उड़ जाती है।
काव्यांश 7. और यहीं से-
औ’ यहीं से-
भूमि ऊंची है जहाँ से-
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,
जाना नहीं है।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि के आसपास कही थोड़ी सी ऊंची जगह हैं , जहां रेल की पटरियों है। उसे देखकर कवि कहते हैं कि उस ऊंची भूमि / जमीन से रेलवे लाइन जा रही है पर अभी ट्रेन के आने का समय नहीं हुआ है। इसीलिए यहां मैं आजाद हूँ। मुझे कहीं जाने की जल्दी भी नहीं है या मेरा अभी कही जाने का विचार भी नहीं है। इसीलिए मैं निश्चिंत होकर इस स्थान की सुंदरता को और थोड़े समय के लिए देख सकता हूं।
काव्यांश 8. चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर उधर रीवां के पेड़
कांटेदार कुरूप खड़े हैं।
भावार्थ –
कवि को सामने चित्रकूट की चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां दिखाई दे दी हैं। कवि कहते हैं कि चित्रकूट की ये कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां दूर-दूर तक फैली हुई दिखाई दे रही हैं। और वहां की भूमि बंजर हैं और उस बंजर भूमि पर रीवा के कांटेदार और बेहद बदसूरत पेड़ खड़े दिखाई दे रहे हैं।
काव्यांश 9. सुन पड़ता है
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें ;
सुन पड़ता है।
वनस्थली का हृदय चीरता ,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों ;
मन होता है-
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची-प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि को तोते का मधुर मीठा स्वर टें-टें करता हुआ सुनाई दे रहा है और साथ में ही सारस का स्वर टिरटों – टिरटों कभी ऊँचा तो कभी धीमा सुनाई पड रहा हैं। उसे सुनकर कवि को ऐसे प्रतीत होता है मानो वह जंगल का सीना चीरता हुआ निकल रहा हो।
चूंकि सारस हमेशा जोड़े में रहते हैं। इसीलिए कवि का मन कर रहा हैं कि वो भी सारस के साथ अपने पंख फैलाकर , उड़ कर उस जगह पहुंच जाए , जहां सारस अपनी जोड़ीदार के साथ रहते हैं। और वो उन हरे हरे खेतों में बैठ कर , चुपके से उनकी प्रेम कहानी सुनना चाहते हैं।
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