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Mahatma Buddha/Goutam Buddha/Buddh Purnima/महात्मा बुद्ध /बुद्ध पूर्णिमा/ बुद्ध का संदेश/ गौतम बुद्ध |
महात्मा बुद्ध /बुद्ध पूर्णिमा/ बुद्ध का संदेश/ गौतम बुद्ध
गौतम बुद्ध एक प्रकाशस्तंभ हैं, बुद्ध
पूर्णिमा को उनकी जयंती मनाई जाती है, उनको ज्ञान की
प्राप्ति भी पूर्णिमा की चांदनी रात में ही हुई थी और उनका निर्वाण दिवस भी बुद्ध
पूर्णिमा के दिन ही हुआ था। यानी यही वह दिन था जब बुद्ध ने जन्म लिया, ज्ञान पाया, शरीर का त्याग किया था और मोक्ष
प्राप्त किया। बुद्ध को ‘तथागत’ भी
कहा जाता है, जिसका अर्थ है- आत्मज्ञान की साधना से परम
सत्य को पाना। ढाई हजार साल पहले उन्होंने जिस ज्ञान को आत्मसात किया, उस ज्ञान का जो उपदेश उन्होंने अपने अनुयायियों में बांटा, उस संदेश की प्रासंगिकता आज भी है और उसमें कोरोना-मुक्ति के सूत्र
निहित है। चाहे दुःख कोरोना महामारी का हो या अन्य कोई दुःख-दूसरा व्यक्ति कितना
ही बड़ा महाज्ञानी और महात्मा हो, उसे नष्ट नहीं कर सकता।
इसके लिये उन्होंने ‘अप्प दीपो भव’ का मंत्र दिया, यानी स्वयं उजाला बनो, दूसरे की बैशाखी से मंजिल तक नहीं पहुंचा जा सकता।
बुद्ध पूर्णिमा न केवल बौध धर्म के अनुयायियों के लिए बल्कि
सम्पूर्ण मानव जाति के लिये एक महत्वपूर्ण दिन है। अपनी ऊच्च संतता एवं ज्ञान से
बुद्ध सबसे महत्वपूर्ण भारतीय आध्यात्मिक महामनीषी, सिद्ध-संन्यासी,
समाज-सुधारक धर्मगुरु बने। उन्होंने न केवल अनेक प्रभावी
व्यक्तियों बल्कि आम जन के हृदय को छुआ और उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाए। हम
उन्हें धर्मक्रांति के साथ-साथ व्यक्ति एवं विचारक्रांति के सूत्रधार भी कह सकते
हैं। उनकी क्रांतिवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं वरन् धार्मिक,
सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन
की प्रेरणा भी है, जिसने असंख्य मनुष्यों की जीवन दिशा को
बदला। उनकी प्रेरणाएं कोरोना महाव्याधि में रोशनी का काम कर रही है। उन्होंने ‘दुःख निरोध’ का उपदेश देते हुए कहा था कि यह
संसार दुःखों एवं कष्टों से भरा है, किन्तु दुःखों का अंत
संभव है और इसी जन्म में संभव है, जिसे उन्होंने निर्वाण
कहा है।
बुद्ध संन्यासी बनने से पहले कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ
थे। शांति की खोज में वे 27 वर्ष की उम्र में
घर-परिवार, राजपाट आदि छोड़कर चले गए थे। भ्रमण करते हुए
सिद्धार्थ काशी के समीप सारनाथ पहुंचे, जहाँ उन्होंने
धर्म परिवर्तन किया। यहाँ उन्होंने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे कठोर तप किया।
कठोर तपस्या के बाद सिद्धार्थ को बुद्धत्व यानी ज्ञान की प्राप्ति हुई और वह महान
संन्यासी गौतम बुद्ध के नाम से प्रचलित हुए और अपने ज्ञान से समूचे विश्व को
ज्योतिर्मय किया। बुद्ध ने जब अपने युग की जनता को धार्मिक-सामाजिक, आध्यात्मिक एवं अन्य यज्ञादि अनुष्ठानों को लेकर अज्ञान में घिरा देखा,
साधारण जनता को धर्म के नाम पर अज्ञान में पाया, नारी को अपमानित होते देखा, शुद्रों के प्रति
अत्याचार होते देखे-तो उनका मन जनता की सहानुभूति में उद्वेलित हो उठा। वे महलों
में बंद न रह सके। उन्होंने स्वयं प्रथम ज्ञान-प्राप्ति का व्रत लिया था और वर्षों
तक वनों में घूम-घूम कर तपस्या करके आत्मा को ज्ञान से आलोकित किया।
उन्होंने अपने
जीवन के प्रत्येक क्षण को जिस चैतन्य एवं प्रकाश के साथ जीया है, वह भारतीय ऋषि परम्परा के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। स्वयं ने
सत्य की ज्योति प्राप्त की, प्रेरक जीवन जीया और फिर जनता
में बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलन्द की। लोकजीवन को ऊंचा उठाने के उन्होंने जो
हिमालयी प्रयत्न किये, वे अद्भुत और आश्चर्यकारी हैं।
उन्होंने अपने ज्ञान का सार व्यक्त करते हुए कहा कि हर दुःख की कोई वजह होती है।
कोरोना महामारी के विश्वस्तर पर इतने विकराल होने का सबसे अहम कारण मनुष्य की
अज्ञानता, भोगवादी जीवनशैली, अनुशासनहीनता
एवं विकृत खानपान है। बुद्ध कहते हैं कि जिन चीजों में लोग सुख ढूंढ़ते हैं,
उनके मूल में आखिरकार दुःख ही दुःख निकलता है। मौजूदा वक्त में
कोरोना संकट के संक्रमण के दौर में भी देखा जाये तो जो व्यक्ति खुद को जितना
ज्यादा भोग-विलास, सुविधावाद एवं नशीले पदार्थों में डूबकर
सुखों की तलाश में लगा है, उसका अंत उतना ही अधिक दुःखभरा
एवं पीड़ादायक होना निश्चित है। इसलिये व्यक्ति को अपनी जीवनशैली को सात्विक एवं
नशामुक्त बनाना जरूरी है।
इस तरह संन्यासी बनकर गौतम बुद्ध ने अपने आप को आत्मा और
परमात्मा के निरर्थक विवादों में फँसाने की अपेक्षा समाज कल्याण की ओर अधिक ध्यान
दिया। उनके उपदेश मानव को दुःख एवं पीड़ा से मुक्ति के माध्यम बने, साथ-ही-साथ सामाजिक एवं संासारिक समस्याओं के समाधान के प्रेरक
बने, जो जीवन को सुन्दर बनाने एवं माननीय मूल्यों को
लोकचित्त में संचरित करने में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। यही कारण है कि उनकी
बात लोगों की समझ में सहज रूप से ही आने लगी। महात्मा बुद्ध ने मध्यममार्ग अपनाते
हुए अहिंसा युक्त दस शीलों का प्रचार किया तो लोगों ने उनकी बातों से स्वयं को सहज
ही जुड़ा हुआ पाया। उनका मानना था कि मनुष्य यदि अपनी तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर
ले तो वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने पुरोहितवाद पर करारा
प्रहार किया और व्यक्ति के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया।
गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया और अत्यन्त कुशलता से
बौद्ध भिक्षुओं को संगठित किया और लोकतांत्रिक रूप में उनमें एकता की भावना का
विकास किया। इसका अहिंसा एवं करुणा का सिद्धांत इतना लुभावना था कि सम्राट अशोक ने
दो हजार वर्ष बाद इससे प्रभावित होकर बौद्ध मत को स्वीकार किया और युद्धों पर रोक
लगा दी। इस प्रकार बौद्ध मत देश की सीमाएँ लांघ कर विश्व के कोने-कोने तक अपनी
ज्योति फैलाने लगा। आज भी इस धर्म की मानवतावादी, बुद्धिवादी
और जनवादी परिकल्पनाओं को नकारा नहीं जा सकता और इनके माध्यम से भेद भावों से भरी
व्यवस्था पर जोरदार प्रहार किया जा सकता है। यही बौद्ध धर्म कोरोना संकट में आज भी
दुःखी, पीड़ित एवं अशान्त मानवता को शान्ति एवं स्वस्थता
प्रदान करने में सक्षम है। ऊँच-नीच, भेदभाव, जातिवाद पर प्रहार करते हुए यह लोगों के मन में धार्मिक एकता का विकास
कर रहा है। विश्व शान्ति एवं परस्पर भाईचारे का वातावरण निर्मित करके कला, साहित्य और संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करने में इसकी
महत्वपूर्ण भूमिका है।
महात्मा बुद्ध सामाजिक क्रांति के शिखर पुरुष थे। उनका दर्शन
अहिंसा और करुणा का ही दर्शन नहीं है बल्कि क्रांति का दर्शन है। उन्होंने केवल
धर्म तीर्थ का ही प्रवर्तन ही नहीं किया बल्कि एक उन्नत और स्वस्थ समाज के लिए नये
मूल्य-मानक गढ़े। उन्होंने प्रगतिशील विचारों को सही दिशा ही नहीं दी बल्कि उनमें
आये ठहराव को तोड़कर नयी क्रांति का सूत्रपात किया। बुद्ध ने कहा -पुण्य करने में
जल्दी करो, कहीं पाप पुण्य का विश्वास ही न खो दे।
समााजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे
उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है। ऐसा करके ही हम एक स्वस्थ समाज का
निर्माण कर सकेंगे। बुद्ध ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। इस
दृष्टि से सभी समस्याओं का उत्स है-राग और द्वेष। व्यक्ति अपने स्वार्थों का पोषण
करने, अहं को प्रदर्शित करने, दूसरों
को नीचा दिखाने, सत्ता और सम्पत्ति हथियाने के लिए विषमता
के गलियारे में भटकता रहता है।
बुद्ध ने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने
जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले,
स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप
तपा। जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर
का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति,
समाधि एवं उत्तम स्वास्थ्य का मार्ग है। उन्होंने अप्प दीपो भव-
अपने दीपक स्वयं बनने की बात कही। क्योंकि दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी
स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित
हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? कैसे कोरोना से मुक्ति दिलाने में सक्षम हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न
अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे
मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित, स्वस्थ, समतामूलक एवं कोरोनामुक्त हो सकता है। जरूरत है कोरोना मुक्ति एवं
संतुलित समाज निर्माण के लिए महात्मा बुद्ध के उपदेशों को जीवन में ढालने की।
बुद्ध-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही समाज को स्वस्थ
बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक बुद्ध को सीमित न बनाएं, बल्कि
बुद्ध को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें।
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