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Veer Damodar Savarkar jivan parichay /Veer Savarkar ki jivni /वीर दामोदर सावरकर पर निबंध |
नया भारत बनाने, भारत को नये सन्दर्भों
के साथ संगठित करने, राष्ट्रीय एकता को बल देने की
चर्चाओं के बीच भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर सेनानी, महान देशभक्त, ओजस्वी वक्ता, दूरदर्शी राजनेता, इतिहासकार, एक बहुत निराले साहित्यकार-कवि और प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक
दामोदर सावरकर की जयंती और उनका जीवन-दर्शन आधार-स्तंभ एवं प्रकाश-किरण है। अग्रिम
पंक्ति के स्वतंत्रता सेनानी सावरकरजी प्रेरणाएं एवं शिक्षाएं इसलिये प्रकाश-स्तंभ
हैं कि उनमें नये भारत को निर्मित करने की क्षमता है। उन्होंने एक भारत और मजबूत
भारत की कल्पना की जिसे साकार करने का संकल्प हर भारतीय के मन में है।
हम आजाद हो
गये, लेकिन हमारी मानसिकता एवं विकास प्रक्रिया अभी भी
गुलामी की मानसिकता को ओढ़े हैं। शिक्षा से लेकर शासन व्यवस्था की समस्त प्रक्रिया
अंग्रेजों की थोपी हुई है, उसे ही हम अपनाये जा रहे हैं। जीवन
का उद्देश्य इतना ही नहीं है कि सुख-सुविधापूर्वक जीवन व्यतीत किया जाये, शोषण एवं अन्याय से धन पैदा किया जाये, बड़ी-बड़ी
भव्य अट्टालिकाएं बनायी जाये और भौतिक साधनों का भरपूर उपयोग किया जाये। उसका
उद्देश्य है- निज संस्कृति को बल देना, उज्ज्वल आचरण,
सात्विक वृत्ति एवं स्व-पहचान। भारतीय जनता के बड़े भाग में
राष्ट्रीयता एवं स्व-संस्कृति की कमी को दूर करना ही सावरकरजी के जन्म एवं जीवन का
ध्येय था। वे विश्वभर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। उनका नाम ही भारतीय
क्रांतिकारियों के लिए उनका संदेश था। उनकी पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता
के समान थीं।
वीर सावरकर (Veer Savarkar) का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में 28
मई 1883 में हुआ था। वह अपने माता पिता
की चार संतानों में से एक थे। उनके पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर था, जो गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में जाने जाते थे, वे अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। लेकिन उन्होंने अपने बच्चों को
अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के अनुकरणीय प्रसंगों, रामायण, महाभारत, महाराणा
प्रताप, वीर शिवाजी आदि महापुरूषो के प्रसंग भी सुनाया
करते थे। सावरकर का बचपन भी इन्हीं बौद्धिकता के साथ-साथ स्व-संस्कृति के वातावरण
में बीता। सावरकर अल्प आयु से ही निर्भीक होने के साथ-साथ बौद्धिक रूप से भी
संपन्न थे। उनकी माता का नाम राधाबाई था। जब विनायक 9 साल
के थे, तब ही उनकी माता का देहांत हो गया था। बचपन से ही
वे पढ़ाकू थे। बचपन में उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखी थीं। उन्होंने शिवाजी
हाईस्कूल, नासिक से 1901 में
मैट्रिक की परीक्षा पास की। आजादी के लिए काम करने के लिए उन्होंने एक गुप्त
सोसायटी बनाई थी, जो ‘मित्र मेला’
के नाम से जानी गई। 1905 के बंग-भंग के
बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फग्र्युसन कॉलेज, पुणे में पढ़ने के दौरान भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण
देते थे। तिलक की अनुशंसा पर 1906 में उन्हें श्यामजी
कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। ‘इंडियन सोसियोलॉजिस्ट’
और ‘तलवार’ में
उन्होंने अनेक लेख लिखे, जो बाद में कोलकाता के ‘युगांतर’ में भी छपे। वे रूसी क्रांतिकारियों
से ज्यादा प्रभावित थे। लंदन में रहने के दौरान सावरकर की मुलाकात लाला हरदयाल से
हुई। लंदन में वे इंडिया हाउस की देखरेख भी करते थे। मदनलाल धींगरा को फांसी दिए
जाने के बाद उन्होंने ‘लंदन टाइम्स’ में भी एक लेख लिखा था। उन्होंने धींगरा के लिखित बयान के पर्चे भी
बांटे थे।
वीर सावरकर (Veer Savarkar) जैसे बहुत कम क्रांतिकारी एवं देशभक्त होते हैं जिनके
तन में जितनी ज्वाला हो उतना ही उफान मन में भी हो। उनकी कलम में चिंगारी थी,
उसके कार्यों में भी क्रांति की अग्नि धधकती थी। वीर सावरकर ऐसे
महान सपूत थे जिनकी कविताएं एवं विचार भी क्रांति मचाते थे और वह स्वयं भी महान्
क्रांतिकारी थे। उनमें तेज भी था, तप भी था और त्याग भी
था। वीर सावरकर हमेशा से जात-पात से मुक्त होकर कार्य करते थे। राष्ट्रीय एकता और
समरसता उनमें कूट कूट कर भरी हुई थी। रत्नागिरी आंदोलन के समय उन्होंने जातिगत
भेदभाव मिटाने का जो कार्य किया वह अनुकरणीय था। वहां उन्होंने दलितों को मंदिरों
में प्रवेश के लिए सराहनीय अभियान चलाया। महात्मा गांधी ने तब खुले मंच से सावरकर
की इस मुहिम की प्रशंसा की थी, भले ही आजादी के माध्यमों
के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था।
1909 में लिखी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ
इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश
सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया। वीर सावरकर 1911 से 1921 तक अंडमान जेल में रहे। 1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी।
जेल में ‘हिन्दुत्व’ पर शोध
ग्रंथ लिखा। 1937 में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने
गए। 1943 के बाद वे दादर, मुंबई
में रहे। 9 अक्टूबर 1942 को भारत
की स्वतंत्रता के लिए चर्चिल को समुद्री तार भेजा और आजीवन अखंड भारत के पक्षधर
रहे। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की
दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद
की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के
बाद पुनः लिखा। 26 फरवरी 1966 को
भारत के इस महान क्रांतिकारी का निधन हुआ। उनका संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति
के लिए संघर्ष की प्रेरणास्पद दास्तान है।
नया भारत निर्मित करते हुए उसके इतिहास में सच्चाई के
प्रतिबिम्बों को उभारने पर बल देना ही वीर सावरकर की जन्म-जयन्ती मनाने का
वास्तविक उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि भारत के इतिहास को
धूमिल किया गया, धुंधलाया गया है, अन्यथा भारत का इतिहास दुनिया के लिये एक प्रेरणा है, अनुकरणीय है। क्योंकि भारत एक ऐसा शांति-अहिंसामय देश है जिसका न कोई
शत्रु है और न कोई प्रतिद्वंद्वी। सम्पूर्ण दुनिया भारत की ओर देख रही है, उसमें विश्व गुरु की पात्रता निरन्तर प्रवहमान रही है, हमने कोरोना महामारी के एक जटिल एवं संघर्षमय दौर में दुनिया के सभी
देशों के हित-चिन्तन का भाव रखा, सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास मंत्र के द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी ने साबित किया कि वसुधैव कुटुम्बकम- दुनिया एक परिवार है, यही वीर सावरकर का दर्शन ही मानवता का उजला भविष्य है। इसी विचार पर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आगे बढ़ रहा है, वह एक अनोखा और
दुनिया का सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन है। यह भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे मुखर,
सबसे प्रखर आवाज है, इस आवाज को वीर
सावरकर ने संगठित किया। देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता
उसका मूल उद्देश्य है। जैसे-जैसे संघ का वैचारिक, सांस्कृतिक,
सामाजिक प्रभाव देश और दुनिया में बढ़ रहा है, वैसे-वैसे हिंदुत्व और राष्ट्र के प्रति समर्पित इस संगठन के बारे में
जानने और समझने की ललक लोगों के बीच बढ़ती जा रही है।
एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय व्यक्तित्व होते हुए भी वीर
सावरकर ने भारतीय राजनीति की दिशा को राष्ट्रीयता की ओर कैसे परिवर्तित किया है,
यह समझने के लिए भी उनके जीवन-दर्शन को पढ़ना आवश्यक है। भारत की
हिंदू अस्मिता, हिंदू समाज की उत्पत्ति व संघटन, विवाह, माता-पिता द्वारा संतान का पालन-पोषण,
आपसी सौहार्द, सामाजिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता, आर्थिक स्थितियां, कृषि, जीवनशैली तथा ऐसे ही अन्य अनेक विषयों पर उनके जीवन-दर्शन से मार्ग
प्रशस्त होता है। सावरकर एक मात्र ऐसे भारतीय थे जिन्हें एक ही जीवन में दो बार
आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। काले पानी की कठोर सजा के दौरान सावरकर को
अनेक यातनाएं दी गयी। अंडमान जेल में उन्हें छः महिने तक अंधेरी कोठरी में रखा
गया। एक -एक महिने के लिए तीन बार एकांतवास की सजा सुनाई गयी। सात-सात दिन तक दो
बार हथकड़ियां पहनाकर दीवारों के साथ लटकाया गया। इतना ही सावरकर को चार महिनों तक
जंजीरों से बांध कर रखा गया।
इतनी कठोर यातनाएं सहने के बाद भी सावरकर (Veer Savarkar) ने अंग्रेजों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया। सावरकर जेल में रहते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। यह भी अजीब विडंबना है कि इतनी कठोर यातना सहने वाले योद्धर के साथ तथाकथित इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया। किसी ने कुछ लिखा भी तो उसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया। 82 वर्ष की उम्र में 26 फरवरी 1966 को वीर सावरकर का निधन हो गया। भले ही आज वीर सावरकर हमारेे बीच में नहीं है लेकिन उनकी प्रखर राष्ट्रवादी सोच हमेशा राष्ट्र एवं राष्ट्र के लोगों के दिलो में जिन्दा रहेगी ऐसे भारत के वीर सपूत वीर सावरकर को हम सभी भारतीयों को हमेशा गर्व रहेगा।
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