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प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियां |
प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियां:
Pragatiwadi Sahitya ki visheshtayen
समाज और समाज से जुड़ी समस्याओं यथा गरीबी,अकाल,स्वाधीनता,किसान-मजदूर,शोषक-शोषित संबंध और इनसे उत्पन्न विसंगतियों पर
जितनी व्यापक संवेदनशीलता इस धारा की कविता में है,वह अन्यत्र नहीं मिलती। यह काव्यधारा अपना संबंध
एक ओर जहां भारतीय परंपरा से जोड़ती है वहीं दूसरी ओर भावी समाज से भी। वर्तमान के
प्रति वह आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि अपनाती है। प्रगतिवादी काव्यधारा की प्रमुख
प्रवृत्तियां इस प्रकार हैं:-
1. सामाजिक यथार्थवाद : इस काव्यधारा के कवियों ने समाज और उसकी
समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। समाज में व्याप्त सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक,राजनीतिक विषमता
के कारण दीन-दरिद्र वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि के
प्रसारण को इस काव्यधारा के कवियों ने प्रमुख स्थान दिया और मजदूर,कच्चे घर,मटमैले बच्चों को अपने काव्य का विषय चुना।
*****
ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
तू सब चीजों का कर्त्ता,तू हीं सब चीजों से दूर
ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
*****
श्वानों को मिलता वस्त्र दूध,भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर,जाड़ों की रात बिताते हैं
युवती की लज्जा बसन बेच,जब ब्याज चुकाये जाते हैं
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा
द्रव्य बहाते है
पापी महलों का अहंकार देता मुझको
तब आमंत्रण ---दिनकर
2. मानवतावाद का प्रकाशन : वह मानवता की
अपरिमित शक्ति में विश्वास प्रकट करता है और ईश्वर के प्रति अनास्था प्रकट करता है;धर्म उसके लिए
अफीम का नशा है -
जिसे तुम कहते हो भगवान-
जो बरसाता है जीवन में
रोग,शोक,दु:ख दैन्य अपार
उसे सुनाने चले पुकार
3.क्रांति का आह्वाहन: प्रगतिवादी कवि
समाज में क्रांति की ऐसी आग भड़काना चाहता है,जिसमें मानवता के विकास में बाधक समस्त रूढ़ियां
जलकर भस्म हो जाएं-
देखो मुट्ठी भर दानों को,तड़प रही कृषकों की काया।
कब से सुप्त पड़े खेतों से,देखो 'इन्कलाब' घिर आया॥
*****
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल पुथल मच जाए
4. शोषकों के प्रति आक्रोश: प्रगतिवाद दलित
एवं शोषित समाज के 'खटमलों'-पूंजीवादी सेठों,साहूकारों और राजा-महाराजाओं–के शोषण के चित्र उपस्थित कर उनकी मानवता का
पर्दाफाश करता है-
ओ मदहोश बुरा फल हो,शूरों के शोणित पीने का।
देना होगा तुझे एक दिन,गिन-गिन मोल पसीने का॥
5.शोषितों को प्रेरणा : प्रगतिवादी कवि
शोषित समाज को स्वावलम्बी बनाकर अपना उद्धार करने की प्रेरणा देता है-वह शोषित में शक्ति देखता
है और उसे क्रांति में पूरा विश्वास है। इस प्रकार प्रगतिवादी कवि को शोषित की
संगठित शक्ति और अच्छे भविष्य पर आस्था है-
मैंने उसको जब-जब देखा- लोहा देखा
लोहा जैसा तपते देखा,गलते देखा,ढ़लते देखा
मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा ...केदारनाथ अग्रवाल
6. रूढ़ियों का विरोध- इस धारा के कवि
बुद्धिवाद का हथौड़ा लेकर सामाजिक कुरीतियों पर तीखे प्रहार कर उनको चकनाचूर कर
देना चाहते हैं-
गा कोकिल ! बरसा पावक कण
नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन ...पंत
7. तत्कालीन समस्याओं का चित्रण : प्रगति का उपासक
कवि अपने समय की समस्याओं जैसे-बंगाल का अकाल आदि की ओर आंखें खोलकर देखता है और उनका यथार्थ रूप
उपस्थित कर समाज को जागृत करना चाहता है-
बाप बेटा बेचता है
भूख से बेहाल होकर,
धर्म धीरज प्राण खोकर
हो रही अनरीति,राष्ट्र सारा देखता है
एक भिक्षुक की यथार्थ स्थिति –
वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ
पर आता ...निराला
8.मार्क्सवाद का समर्थन: इस धारा के कुछ
कवियों ने मात्र साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स का तथा उसके सिद्धांतों का
समर्थन करने हेतु प्रचारात्मक काव्य ही लिखा है-
साम्यवाद के साथ स्वर्ण-युग करता मधुर पदार्पण
और साथ ही साम्यवादी देशों का
गुणगान भी किया है-
लाल रूस का दुश्मन साथी! दुश्मन सब इंसानों का
9.नया सौंदर्य बोध: प्रगतिवादी कवि
श्रम में सौंदर्य देखते हैं। उनका सौंदर्य-बोध सामाजिक मूल्यों और नैतिकता से रहित नहीं
है। वे अलंकृत या असहज में नहीं, सहज सामान्य जीवन और स्थितियों में सौंदर्य
देखते हैं। खेत में काम करती हुई किसान नारी का यह चित्र इसी तरह का है-
बीच-बीच में सहसा उठकर खड़ी हुई वह
युवती सुंदर
लगा रही थी पानी झुककर सीधी करे
कमर वह पल भर
इधर-उधर वह पेड़ हटाती,रुकती जल की धार बहाती
10. व्यंग्य : सामाजिक,आर्थिक वैषम्य का चित्रण करने से रचना में
व्यंग्य आ जाना स्वाभाविक है। व्यंग्य ऊपर-ऊपर हास्य लगता है किंतु वह अंतत: करुणा उत्पन्न
करता है। इसीलिए सामाजिक व्यंग्य अमानवीय-शोषण सत्ता का
सदैव विरोध करता है। प्रगतिशील कवियों में व्यंग्य तो सबके यहां मिल जाएगा किंतु नागार्जुन इस क्षेत्र
में सबसे आगे हैं। एक देहाती मास्टर दुखरन, उसके शिष्यों और मदरसे की यह तस्वीर नागार्जुन
ने इस प्रकार खींची है-
घुन खाए शहतीरों पर की बारह खड़ी
विधाता बांचे
फटी भीत है,छत है चूती,आले पर बिस्तुइया नाचे
लगा-लगा बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पांच तमाचे
इसी तरह से दुखरन मास्टर गढ़ता है
आदम से सांचे।
11. प्रकृति : मानव समाज की भांति प्रकृति के क्षेत्र में भी
प्रगतिवादी कवि सहज स्थितियों में सौंदर्य देखता है। उसका सौंदर्य बोध चयनवादी
नहीं। प्रगतिवादी कवियों ने प्रकृति और ग्राम जीवन के अनुपम चित्र खींचे हैं
जिनमें रूप-रस-गंध-वर्ण के बिम्ब
उभरे हैं।नागार्जुन का 'बादल को घिरते देखा है',केदारनाथ अग्रवाल का 'बसंती हवा' और त्रिलोचन का 'धूप में जग-रूप सुंदर' उत्कृष्ट
कविताएं हैं।
12.प्रेम – प्रगतिवादी कवियों ने प्रेम को सामाजिक-पारिवारिक रूप में देखा है। वर्ग-विभक्त समाज में
प्रेम सहज नहीं हो पाता। प्रेम वर्ग-भेद,वर्ण-भेद को मिटाता है। प्रगतिवादी कवि प्रेम की पीड़ा का एकांतिक चित्र करते
हैं। किंतु वह वास्तविक जीवन संदर्भों में होता है। अत: उनका एकांत भी समाजोन्मुख होता है; जैसे त्रिलोचन का यह अकेलापन-
आज मैं अकेला हूं,अकेले रहा नहीं जाता
जीवन मिला है यह,रतन मिला है यह
फूल में मिला है या धूल में मिला
है यह
मोल-तोल इसका अकेले कहा नहीं जाता
आज मैं अकेला हूं
13. नारी-चित्रण :प्रगतिवादी कवि के लिए मजदूर तथा किसान के समान
नारी भी शोषित है,जो युग-युग से सामंतवाद की कारा में पुरुष की दासता की
लौहमयी जंजीरों से जकड़ी है। स्वतंत्र व्यक्तित्व खो चुकी है और केवल मात्र
रह गई है पुरुष की वासना तृप्ति का उपकरण। इसलिए वह उसकी मुक्ति चाहता है-अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व खो चुकी है और केवल मात्र रह गई है पुरुष की वासना
तृप्ति का उपकरण। इसलिए वह उसकी मुक्ति चाहता है-
योनि नहीं है रे नारी! वह भी मानवी प्रतिष्ठित
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित
अधिकांश प्रगतिवादियों का नारी-प्रेम उच्छृंखल और स्वछंद है-
मैं अर्थ बताता द्रोहभरे यौवन का
मैं वासना नग्न को गाता उच्छृंखल
प्रगतिवादी कवि ने नारी के सुकोमल सौंदर्य की उपेक्षा करके उसके स्थुल शारीरिक
सौंदर्य को ही अधिक उकेरा है। उसने नारी की कल्पना कृषक बालाओं व मजदूरनियों में
की है।
14.साधारण कला पक्ष :प्रगतिवाद जनवादी है। अत:
वह जन-भाषा का प्रयोग
करता है। उसे ध्येय को व्यक्त करने की चिंता है। काव्य को अलंकृत करने की चिंता
नहीं। अत: वह कहता है-
तुम वहन कर सको जन-जन में मेरते विचार।
वाणी!मेरी चाहिए क्या तुम्हें अलंकार॥
छंदों में भी अपने स्वछंद दृष्टिकोण के अनुसार उन्होंने मुक्तक छंद का ही
प्रयोग किया है-
खुल गए छंद के बंध,प्रास के रजत पाश ....पंत
प्रगतिवादी कविता में नए उपमानों को लिया गया है और वे सामान्य जन जीवन और लोक-गीतों से ग्रहण किए गए हैं-
कोयल की खान की मजदूरिनी सी रात।
बोझ ढ़ोती तिमिर का विश्रांत सी
अवदात॥
मशाल,जोंक,रक्त,तांडव,विप्लव,प्रलय आदि नए प्रतीक
प्रगतिवादी साहित्य की अपनी सृष्टि हैं। प्रगतिवादी कवि का कला संबंधी दृष्टिकोण
भाषा,छंद,अलंकार,प्रतीकों तथा
वर्णित भावों से स्पष्ट हो जाता है। वह कला को स्वांत:
सुखाय या कला
कला के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए,बहुजन के लिए
अपनाता है। वह कविता को जन-जीवन का प्रतिनिधि मानता है।
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