हिंदी साहित्य के आदिकाल की प्रमुख विशेषताएं/प्रवृतियां
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल के साहित्य में वीरगाथात्मक रचनाओं की प्रचुरता के कारण हिंदी साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल कहा। परन्तु इस काल में सिद्ध, नाथ, जैन साहित्य भी रचा गया। अतः शुक्ल जी का नामकरण अब महत्वहीन है। आदिकाल नाम ही अधिक तर्क-संगत प्रतीत होता है। इस काल में अपभ्रंश के अतिरिक्त हिंदी में भी साहित्य रचा गया जिस की विशेषताएं निम्नलिखित प्रकार से है-
1. संदिग्ध रचनाएं:
इस काल में उपलब्ध होने वाली प्राय: सभी वीर-गाथात्मक रचनाओं की प्रमाणिकता संदेह की दृष्टि से देखी जाती है। इस काल में रचित चार ग्रंथ प्राप्त हुए हैं- खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो तथा परमाल रासो। इन रचनाओं में अनेक शताब्दियों तक परिवर्तन और परिवर्धन होते रहे हैं। उदाहरण के लिए बीसलदेव रासो का कवि अपने को बीसलदेव का समकालीन मानता है। परंतु इस काव्य में उन घटनाओं को भी समाहित करते हैं जो बीसलदेव के बहुत बाद गठित हुई है। परमाल रासो का स्वरूप आल्हा से काफी बदला हुआ है।खुमान रासो में 16वीं शताब्दी तक की घटनाएं समाविष्ट हैं । पृथ्वीराज रासो की भी लगभग यही स्थिति है। इस प्रकार इन ग्रंथों के मूल रूप को पहचानना बड़ा कठिन कार्य है।
2. ऐतिहासिकता का अभाव:
कहने को तो ये रचनाएं (खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो तथा परमाल रासो) ऐतिहासिक है, क्योंकि इनमें इतिहास-प्रसिद्ध चरित्र-नायकों को लिया गया है, परंतु इनमें तथ्यों का नितांत अभाव है। इन कवियों ने अपनी कविताओं में घटनाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। इन कविताओं में पात्रों से संबंधित जो तिथि और संवत् लिखे हैं वह भी इतिहास से मेल नहीं खाते।
3. युद्ध वर्णनों में सजीवता:
इस युग के चारण कवि कलम और तलवार दोनों के धनी थे। वे आवश्यकता पड़ने पर स्वयं युद्ध भूमि में लड़ते थे। इसलिए उनके काव्य में युद्दों के सजीव वर्णन मिलते हैं। उस समय के कवि का यह परम कर्तव्य था कि वह अपने आश्रय दाता राजाओं को युद्ध के लिए उत्तेजित करें। इस संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है, “निरंतर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करना भी एक वर्ग के लिए आवश्यक हो गया था। चारण इसी श्रेणी के लोग थे। उनका कार्य ही था अपने आश्रयदाता के युद्ध में भाग की घटना योजना का आविष्कार करना”। इन कवियों ने काव्य में युद्ध का वर्णन किसी सुंदरी की कल्पना के आधार पर निश्चित किया है। ऐसे वर्णनों में वीर और श्रृंगार रसों का सुंदर सामंजस्य देखा जा सकता है।
4. आश्रय दाताओं का यशोगान:
प्राय सभी रासो कवि आश्रित कवि थे। अतः उन्होंने रासो ग्रंथों में नायक कि धर्म-वीरता, युद्ध-कौशल आदि का वर्णन ओजस्वी भाषा में किया है। इन कवियों का लक्ष्य अपने चरित्र नायक की श्रेष्ठता का प्रतिपादन तथा अपने उनके शत्रु राजा की हीनता दिखाना था।
5. राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव:
चारण कवियों में “जिसका खाना उसी का गाना” की प्रवृत्ति थी। उन दिनों सौ-पचास गांवों को ही अपना समझा जाता था। उसमें ऐसे कवि भी हुए हैं जिन्होंने देश-द्रोही जयचंद की प्रशंसा में काव्य लिखें। फिर उन दिनों राष्ट्र शब्द का प्रयोग आज के व्यापक अर्थ में नहीं होता था। एक राज्य के राजकवि को दूसरे राज्य के पतन पर दुख नहीं होता था। अगर उस समय आज की तरह राष्ट्रीयता का व्यापक रूप होता तो आज देश की स्थिति अलग होती।
6. रसों का प्रयोग:
आदिकाल में रचित वीरगाथात्मक रचनाओं में वीर रस और श्रृंगार रस का सुन्दर समिश्रण है।वीर रस का तो इतना परिपाक हुआ है कि उस युग में बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी के लिए युद्ध में दो हाथ दिखाने का उत्साह था। उस समय की वीरता का आदर्श निम्नलिखित पंक्तियों से स्पष्ट होता है:
बारह बरस लै कूकर जिए, और तेरह लै
जिये सियार।
बरस अठारह क्षत्री जिए, आगे जीवन को धिक्कार।।
इन कवियों ने युद्ध का कारण किसी नारी को बताया। इसलिए इसमें वीर रस और श्रृंगार रस का सुंदर समन्वय स्थापित किया जा सका। श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का संयोग और वियोग में से संयोग पक्ष का वर्ण अधिक मार्मिक बन पड़ा है। बीसलदेव रासो में संयोग और वियोग दोनों के पर्याप्त उदाहरण हैं। इन कवियों में श्रृंगार और वीर रस के अतिरिक्त रूद्र, भयानक तथा अद्भुत रसों का भी समावेश देखा जा सकता है।
7. वस्तु वर्णन:
इन चारण कवियों ने कथा विकास की ओर बहुत कम ध्यान दिया है। उनकी रुचि अनेक प्रकार के वर्णन में ही रवि रही है। उनकी रचनाओं में रण-सज्जा, आक्रमण, युद्ध, शत्रु-विजय, विवाह, नख-शिख वर्णन, जल आखेट के व्यापक वर्णन मिलते हैं। इन कवियों ने प्राय नाम परिगणन शैली को ही अपनाया है।
8. प्रकृति वर्णन:
आदिकालीन साहित्य में प्रकृति के दो ही रूपों का वर्णन मिलता है- आलंबन रूप और उद्दीपन रूप। नगर, नदी, पर्वत आदि के वर्णन द्वारा प्रकृति के स्वतंत्र चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। जहां प्रकृति वर्णन में नाम परिगणन शैली को अपनाया गया है वहां काव्य नीरस एवं शुष्क बन गया है। अन्यत्र प्रकृति के उद्दीपन का ही चित्रण है।
9. काव्य रूप:
इस काल की वीर गाथाएं प्रबंध और मुक्तक दोनों रूपों में मिलती हैं। प्रथम रूप का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ बीसलदेव रासो है। इसमें विरह का सुन्दर वर्णन है। पृथ्वीराज रासो प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है। इन दो रूपों के अतिरिक्त अन्य तीसरा काव्य रूप नहीं मिलता। इस काल में न तो नाटक लिखने का प्रचलन था न ही गद्द लेखन का।
10. जनजीवन से अछूता काव्य:
आदिकाल मूलतः एक सामंती युग था। प्रत्येक राजा अथवा सामंत के आश्रित कवि होते थे। राग दरबारी कवि अपने स्वामी को खुश रखने के लिए ही काव्यों की सृष्टि करते थे। उसे यह स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती थी कि वह अपनी रचनाओं में जनसाधारण की व्यथा कथा को वाणी दे। पृथ्वीराज रासो हो या परमाल रासो इन सभी वीरगाथात्मक रचनाओं में आश्रय दाताओं के चरित्रात्मक वर्णन है। अतः इस युग का समूचा काव्य जनजीवन से अछूता काव्य है।
11. डिंगल और पिंगल
इन कवियों में डिंगल और पिंगल दो भाषाओं में रचनाएं लिखी। उन दिनों यह दोनों राजस्थान की साहित्यिक भाषाएं थी। इन भाषाओं में वीरता के अनुरूप शब्द योजना दर्शनीय है। इस युग के कवियों ने संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों के साथ-साथ अरबी, फारसी, पंजाबी और ब्रज शब्दों का भी प्रयोग किया है।
12. रासो ग्रंथ:
इस काल की प्राय सभी वीरगाथात्मक रचनाओं के साथ ‘रासो’ शब्द का प्रयोग है। ‘रासो’ शब्द ‘काव्य’ का ही पर्यायवाची है। मूल रूप से यह एक छंद मात्र था जिसका प्रयोग साहित्य में संदेश रासक आदि ग्रंथों में मिलता है। तत्पश्चात इसका प्रयोग गेय रूप में होने लगा। कालांतर में इसका प्रयोग चरित काव्य तथा कथा काव्य के लिए होने लगा। रासो नाम से चरित काव्य में से कुछ का उपयोग अधिकतर गाने के लिए होने लगा। कालांतर में इसका रूप परिवर्तित हो गया। आल्हा खंड इसका प्रसिद्ध उदाहरण है।
13. छंद व अलंकार योजना:
अपभ्रंश साहित्य के समान इस काल के कवियों में छंदों का विविध रूपों में प्रयोग किया है। दोहा, तोटक, कवित्त, रोला, कुंडलियां आदि छंदों का सफल प्रयोग हुआ है। रासो काव्य में अलंकारों का भी सफल प्रयोग हुआ है। शब्द अलंकारों के साथ-साथ अर्थालंकारों का चमत्कार भी दर्शनीय है। यह अलंकार प्रयोग पूर्णतः स्वाभाविक एवं अनुकूल है। शब्द अलंकारों में अब तक का सर्वाधिक प्रयोग है। सादृश्य मूलक अलंकारों में परंपरागत उपमानों का ही सफल प्रयोग हुआ है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति अलंकारों के प्रयोग में इन कवियों ने विशेष सफलता प्राप्त की है।
14. धार्मिक साहित्य:
आदिकाल में रचित साहित्य भले ही
धार्मिक है। लेकिन वह तत्कालीन जनता की चित्तवृत्ति का प्रतीक है। अनंतकालीन
प्रवृत्तियों का विवेचन करते समय इनकी अवहेलना नहीं की जा सकती। सर्वप्रथम जैन
कवियों ने अपनी धार्मिक रचनाओं के द्वारा हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दिया है। स्वयंभू जैन
साहित्य के आधार स्तंभ है। इसी प्रकार से पुष्पदंत, मुनि, रामसिंह, धनपाल आदि
भी जैन साहित्य के प्रमुख कवि हैं।
इसके अतिरिक्त सिद्ध साहित्य अभी इसी युग का साहित्य है। सिद्ध लोग बौद्धों से ही विकसित है। सरहपा, लोईपा आदि प्रसिद्ध कवि हैं। भाषा विज्ञान की दृष्टि से इस साहित्य का विशेष महत्व है।
आदिकाल के धार्मिक साहित्य की तीसरी मुख्य काव्यधारा नाथ साहित्य है। सिद्ध लोगों के विकार ग्रस्त होने के फलस्वरूप ही नाथधारा का जन्म हुआ। सिद्ध लोग धीरे-धीरे वामाचार और तंत्र विद्या के शिकार बन गए थे। अतः नाथधारा के कवियों ने समाज सुधार का काम अपने हाथों में ले लिया। गुरु गोरखनाथ इस काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं। नाथधारा ने ही आगे चलकर भक्ति काल के संत कवियों को प्रभावित किया।
15. लौकिक काव्य:
आदिकालीन धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त कुछ लौकिक साहित्य भी रचा गया । अपभ्रंश भाषा में अब्दुल रहमान का संदेशरासक एक महत्वपूर्ण रचना है। इसके अतिरिक्त विद्यापति की पदावली और कीर्तिपताका भी इसी काल की रचनाएं हैं। अलौकिक काव्य में अमीर खुसरो का नाम भी विशेष स्थान रखता है। जिसकी पहेलियां आज भी लोकप्रिय है।
इसे भी पढ़ें:
हिंदी साहित्यके
आदिकाल की प्रमुख विशेषताएं/प्रवृतियां
आज़ादी का अमृत महोत्सव पर निबंध
आधुनिक हिंदीकविता की
विभिन्न काव्य धाराओं का संक्षिप्त परिचय
0 टिप्पणियाँ