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Adikalin Sahity ki rajnitik samajik dharmik sanskritik sahityik parishthiyan/आदिकाल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियां |
आदिकाल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियां
जिस देश का जैसा समाज होगा उसका साहित्य भी वैसा ही होगा। क्योंकि साहित्य समाज को और समाज साहित्य को प्रभावित करते हैं। समाज की परिस्थितियों में यदि परिवर्तन होगा तो उसके साहित्य में भी परिवर्तन होगा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा साहित्य के आदिकाल का समय संवत 1050 से सोमवार 1375 तक निर्धारित किया गया है। अतः आदिकालीन हिंदी साहित्य के जन्म और विकास की कहानी भारत की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक परिस्थितियों की रोचक कहानी हैं :-
राजनीतिक परिस्थितियां
यह काल राजनीतिक दृष्टि से
अव्यवस्था, ग्रहकलह तथा पराजय का युग
था। विदेशी आक्रमणकारियों के प्रवाह और भारतीय सामंतों की पारस्परिक कलह भावना ने
भारतीय जनता को त्रस्त और उदासीन बना दिया था। सम्राट हर्षवर्धन (सन 606 से 643) की मृत्यु के पश्चात उत्तरी भारत में केंद्रीय शक्ति का पतन
हो गया था। राजसत्ता बिखर गई । समूचा उत्तरी भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो
गया।
10वीं शताब्दी में गजनी के राज्य पर महमूद गजनवी बैठा। उसने भारत पर अनेक आक्रमण किए। पंजाब, कांगड़ा, मथुरा, कन्नौज, ग्वालियर और कलिंजर को लूट कर वापस गजनी पहुंचा। उसके बाद सौराष्ट्र के सोमनाथ के मंदिर को लूट कर वहां की अपार धनराशि अपने साथ ले गया। उसका एकमात्र लक्ष्य था, भारत की अपार धनराशि लौटकर गजनी ले जाना।
11वीं शताब्दी में दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान, कन्नौज में गहड़वालों के शक्तिशाली राजपूत राज्य थे। परंतु इनमें एकता का अभाव था। गजनी में तुर्कों का प्रभुत्व समाप्त करके मोहम्मद गोरी ने अपना राज्य स्थापित किया । उसके पश्चात भारत विजय का निश्चय किया । अनेक बार पराजित होने के पश्चात उसने पहले पृथ्वीराज चौहान को और बाद में जयचंद को हराकर भारत में अपने राज्य की स्थापना की। राजपूतों की पराजय का मुख्य कारण उनकी आपसी फूट थी अन्यथा उनमें वीरता की कमी नहीं थी । इस प्रकार आदि काल में भारत की राजनीतिक स्थिति गृह-कलह से युक्त थी।
सामाजिक परिस्थितियां
राजनीतिक परिस्थितियों की तरह ही सामाजिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। हिंदू समाज अनेक जातियों और उप जातियों में बंट गया था। वर्ण व्यवस्था में और अधिक कट्टरता आने लगी थी । छुआछूत के नियम कड़े होते चले जा रहे थे । समाज रुढियों का शिकार बन गया था।
यह युग सामंती वीरता और वंश-कुलीनता
का था। अपनी वीरता और
बलिदान भावना को प्रदर्शित करने के लिए राजपूत परस्पर युद्ध करते रहते थे। राजपूत नारियां भी राजपूत पुरुषों से किसी प्रकार से
पीछे नहीं थी। जौहर उनके आत्म
बलिदान और शौर्य का प्रतीक था । स्वयंवर उस युग की एक सामाजिक विशेषता थी। परंतु कभी-कभी यही स्वयंवर युद्ध के कारण भी बन जाते
थे ।
राजपूत कूटनीतिक और दूरदर्शी नहीं थे। वे वंश परंपरा की भावनाओं को लेकर गृह क्लेश में ही उलझे रहते थे । उनमे भोग विलास के प्रति आसक्ति अधिक थी। राजा और सामंतों में बहू-पत्नी की प्रथा थी। नारी भोग विलास की सामग्री समझी जाती थी। यथा राजा तथा प्रजा की युक्ति के अनुसार जनसामान्य का मनोबल भी गिर चुका था।
तत्कालिक हिंदी साहित्य में इस सामाजिक अवस्था का चित्र पूर्णरूपेण उपलब्ध होता है। शासक और शासित के बीच बहुत बड़ी खाई बन चुकी थी । राजा लोगों के कल्याण के प्रति बिल्कुल चिंतित नहीं थे। अपने सुख समृद्धि में व्यस्त थे। युद्धों में व्यस्त रहते थे। राजपूतों में आपसी संघर्ष, जनता की उदासीनता और आत्मरक्षा की चिंता के कारण विदेशियों ने समूचे उत्तर भारत को पराजित करके गुलाम कर लिया था।
धार्मिक परिस्थितियां
इस युग में वैदिक और पौराणिक धर्म के समान बौध और जैन धर्म भी अपने वास्तविक रूप को छोड़ चुके थे। शंकराचार्य के प्रबल प्रहारों के फलस्वरूप बौध धर्म भी जंत्र, मंत्र, तंत्र की सिद्धियों के जाल में फस गया था। बौद्ध धर्म महायान, मंत्रयान, शहजयान, महायान आदि अनेक शाखाओं में बट गया । यह सब अपने आदर्श रूप को त्याग चुके थे और सिद्धियां प्राप्त करने के लिए गुप्त साधना में जुटे हुए थे। विशेषकर ये लोग जनता को चमत्कार प्रदर्शन के नाम पर ठगने में लगे हुए थे।
जैन संप्रदाय भी इस प्रकार के तांत्रिक उपासना का प्रचार करने लगा। इस प्रकार से समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इन वामाचारियों के चंगुल में फंसा हुआ था।
पहले तो नाथयोगी भी वज्रयानियों की उपासना करने लगे थे। परंतु गुरु गोरख नाथ ने नाथ संप्रदाय में योग की प्रतिष्ठा तथा संयम और सदाचार का प्रतिपादन किया । परंतु तत्कालीन राजपूतों में अभी भी ब्राह्मणों और पुरोहितों का मान बना हुआ था। दूसरी और हिंदुओं में आचार, विचार, व्रत पूजा, प्रार्थना पद्धति अभी भी चल रही थी। इसी काल में मुस्लिम धर्म का आगमन तो भारतवर्ष में हो गया था। लेकिन उसका प्रचार-प्रसार बाद में हुआ। इस प्रकार आदिकालीन युग की सामाजिक परिस्थितियां भी राजनीतिक और सामाजिक परिवेश की तरह दूषित थी।
सांस्कृतिक प्रस्तुति
आदिकाल को हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के परस्पर मिल का मिलन का युग कहा जा सकता है। हर्षवर्धन के समय हिंदू-संस्कृति अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर चुकी थी। संगीत, मूर्ति और भवन निर्माण आदि कलाएं पूर्ण अवस्था में थी। पर ये सभी कलाएं धर्म आश्रित थी । भुनेश्वर, खुजराहो, पूरी, सोमनाथ, वेल्लोर, कांची तथा आबू के मंदिर कला अद्भुत विभूतियां थी। इतिहासकार अलबरूनी और आक्रमणकारी महमूद गजनी इन मंदिरों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए थे।
यद्यपि अरब और फारस में बहुत पहले सूफी मत का जन्म हो चुका था। परंतु उसके उदार स्वभाव का प्रवेश अभी तक भारत में नहीं हुआ था। इसका परिणाम यह हुआ कि आक्रांताओं के साथ आई मुस्लिम संस्कृति और भारतीय संस्कृति में परस्पर संशय और संदेह का वातावरण बना हुआ था। फिर भी धीरे-धीरे हिंदू संस्कृति मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित होने लगी। विशेषकर भारत के उत्सव, पर्व, त्योहारों, वेशभूषा, आहार, विवाह आदि पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव पड़ा।
साहित्यिक परिस्थितियां
आदिकाल में साहित्य निर्माण की तीन धाराएं प्रवाहित थी। (1)संस्कृत साहित्य, (2) प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य तथा (३) हिंदी साहित्य । संस्कृत में ज्योतिष, दर्शन और समृति ग्रंथों पर टीकाए भीतरी कलह और संघर्षों के बावजूद लिखी जाती रही। संस्कृत नाटक, कविता आदि के क्षेत्र में अब केवल पांडित्य प्रदर्शन और अलंकार चमत्कार पर बल दिया जाने लगा। धारा नगरी का शासक भोज प्रकांड विद्वान था। उसके यहां अनेक कवि और आचार्य आश्रित थे । आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, शिवेंद्र, विश्वनाथ भवभूति आदि इस काल की महान विभूतियां थी । कल्हण ने राजतरंगिणी लिखकर संस्कृत साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की।
प्राकृत और अपभ्रंश के अंतर्गत भी काफी साहित्य का निर्माण हुआ। जैन कवियों ने संस्कृत के पुराणों को नवीन रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। इसी प्रकार सिद्धों ने अपभ्रंश और हिंदी में अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया । नाथों ने संयम और सदाचार के महत्व पर प्रकाश डाला। विद्यापति ने अलौकिक श्रृंगार प्रधान तथा प्रशस्ति मूलक रचनाएं लिखी। डिंगल और पिंगल में चारण, भाट, कवियों ने रासो काव्य भी इसी काल में लिखें। अमीर खुसरो द्वारा रचित काव्य भी इसी काल का है।
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