जग जाँचिए कोउन;जाँचिए जौ,जिय जाँचिए जानकी-जानहि रे।
जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाइ जो जारति† जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषन की, अरु आनु हिये
हनुमानहि रे।
तुलसी भजु दारिद-दोष-दवानल, संकट-कोटि-कृपानहि
रे॥
अर्थ—जग में किसी से न
माँगना चाहिए। जो माँगना ही है तो हृदय में जानकीनाथ से माँगो, जिससे माँगने पर माँग स्वयं नष्ट हो जाती है और जो दुनिया को ज़ोर से
जलाती है अथवा दुनिया का सब सामान इकट्ठा करते हैं अथवा जो जहान के ज़ोर को जला
देते हैं अर्थात् भव-फन्द काट देते हैं। विभीषण की गति को विचार कर देखो और हनुमान
को हृदय में लाना अर्थात् उनका ध्यान धरो। हे तुलसी! दारिद्रा-दोष को अग्नि-रूप और
संकट को कोटि तलवार के समान अथवा करोड़ों संकटों को काटने के लिए तलवार के समान
रामचन्द्र का भजन कर।
भलि भारत भूमि, भले कुल जन्म, समाज सरीर भला लहिकै।
करषा तजिकै, परुषा वरषा, हिम मारुत घाम सदा सहिकै॥
जौ भजै भगवान सयान सोई तुलसी हठ चातक ज्यों गहिकै।
न तो और सबै विष-बीज बये हर-हाटक काम-दुहा नहि कै।
अर्थ―'भारत की अच्छी भूमि में, अच्छे कुल में जन्म पाकर,
समाज और शरीर भी भले पाकर, क्रोध छोड़कर,
वर्षा, बर्फ, हवा और घाम
सदा सहकर जो चातक की तरह हठ करके भगवान् को गहै―अर्थात्
जैसे चातक स्वाती का ही पानी पीता है नहीं तो प्यासा ही रहता है―और
उनका भजन करे वही हे तुलसी! सयाना है अन्यथा और सब तो सोने के हल में कामधेनु जोतकर
विष का बीज बोना है॥
सो जननी,सो पिता,सोइ भाइ,सो भामिनि,सो सुत,सो हित मेरो।
सोई सगो,सो सखा,सोइ सेवक,सो गुरु,सो सुर,साहिब,चेरो॥
सो तुलसी प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ
कहौं बहुतेरो।
जो तजि देह को गेह को नेह सनेह सो राम को होइ सबेरो॥
अर्थ—वही माता है, वही भाई है, वही स्त्री है, वही
पुत्र है, वही मित्र है, वही सगा है,
वही सखा है, वही दास है, वही गुरु है, वही देवता है जो साहब (राम) का दाम है
अथवा वही देवता है, वही साहिब है, वही
चेरा (नौकर) है। कहाँ तक बहुत बनाकर कहूँ, तुलसी को वह प्राण
के तुल्य है, जो घर और देह का मोह छोड़कर जल्दी राम का होवै।
सियराम-सरुपु अगाध अनूप बिलोचन-मीनको जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है॥
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि
को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसीके
मतें इतनो जग जीवनको फलु है॥
श्रीराम और जानकीजी का
अनुपम सौन्दर्य नेत्ररूपी मछलियों के लिये अगाध जल है। कानों में श्रीराम की कथा, मुख से राम का नाम और हृदय में रामजी का ही स्थान है। बुद्धि भी राम में
लगी हुई है, राम ही तक गति है, राम ही
से प्रीति है और राम ही का बल है और सबकी बात तो नहीं कहता, परंतु
तुलसीदास के मत में तो जगत् में जीने का फल यही है॥
झूठो है, झूठो है,
झूठो सदा जगु, संतक हंत जे अंतु लहा है।
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है।।
जानपनीको गुमान बड़ो, तुलसीके बिचार गँवार महा है।
जानकीजीवनु जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यो कहा है।।
अर्थ―यह
जग झूठा है, सदा झूठा है, ऐसा वह
सन्त कहते हैं जिनको इसका अन्त (भेद) मिला है, उसके लिए तू
हे शठ! करोड़ सङ्कट सहता है और सदा हा-हा करता दाँत निकालता है। (अथवा संसार के
लिए करोड़ों संकट सहते हैं और हाहा खाते दाँत निकालते फिरते हैं परंतु मुँह से
संसार को झूठा बताते हैं।)
को भरिहै हरि के रितये, रितवै पुनि को हरि जौ भरिहै।
उथपै तेहि को जेहि राम थपै, थपिहै तेहि को हरि
जौ टरिहै?॥
तुलसी यह जानि हिये अपने सपने नहिं कालहुँ तेँ डरिहै।
कुमया कछु हा न न औरन की जोपै जानकीनाथ मया करिहै॥
अर्थ—हरि के देने पर कौन
(खज़ाना) खाली कर सकता है और हरि के रीते करने पर कौन भर सकता है? उसे कौन उखाड़ सकता है जिसे राम जमावें, उसे कौन जमा
सकता है जिसे राम उखाड़ें। तुलसी यह मन में जानकर काल से स्वप्न में भी नहीं
डरेगा। जो रामचन्द्र कृपा करेंगे तो औरों के किये कुछ भी हानि नहीं हो सकती।
मातु पिता जग जाय तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल
भलाई ।
नीच निरादर भाजन कादर कूकर टूकनि लागि ललाई ।
राम सुभाउ सुन्यो तुलसी प्रभु, सो कह्यो बारक
पेट खलाई ।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई ।।
होश संभालने के पुर्व ही
जिसके सर पर से माता – पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा -सर्वदा के लिए हट
गयी,
होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को
बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन
दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम
प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) बन
गए, वह कैसे समझे कि विधाता ने उसके भाल में भी भलाई के कुछ
शब्द लिखे हैं।
किसबी, किसान-कुल,
बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त,
चढ़त गिरि,
अटत गहन वन अहन अखेटकी॥
ऊंचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही
तें
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी।
तुलसीदास जी कहते हैं कि
श्रमिक-मज़दूर हों, किसान का परिवार हो, व्यापारी हो, भिखारी हो, भाट
हो, नौकर हो, नट हो, चोर हो, अनुचर-गुप्तचर हो या जादूगर हो- सब पेट भरने
के लिए ही काम-धंधा-विद्याएं सीखते हैं, पहाड़ों पर जाते हैं,
भोजन के लिए शिकार करते हैं। पेट भरने के लिए ही लोग अच्छे और बुरे
कर्म करते हैं, धर्मसम्मत और अधर्मपूर्ण कार्य करते हैं और
यहां तक कि अपने बेटे-बेटी को भी बेच देते हैं।
तुलसीदास कहते हैं कि पेट
की आग समुद्री ज्वालामुखी की आग से भी ज्यादा जलाने वाली होती है। पेट की यह आग
केवल ईश्वर की कृपा रूपी बादल से ही बुझाई जा सकती है।
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबैं पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।
शब्दार्थ : बलि =
दान-दक्षिणा। बनिज = व्यापार। सीद्यमान = दुखी। साँकरे = संकट के समय। दारिद-दसानन
= गरीबी का रावण। दबाई = दबाया। दुनी = संसार। दुरित-दहन = पापों को जलाने वाला।
कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि भयानक अकाल जैसा समय आ गया है। किसान
के लिये खेती नहीं है। भिखारी को भीख नहीं मिलती। साधु-संतों को दान-दक्षिणा तक
नहीं मिल पाती। व्यापारी का व्यापार खत्म हो गया। चाकर को कहीं चाकरी नसीब नहीं
है। बेरोजगारी के कारण लोग अत्यंत दुखी और असहाय अवस्था में पहुंच गये हैं।
वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि अब कहां जायें, क्या
करें? वेद और पुराण कहते हैं और संसार में देखा भी गया है कि
जब ऐसी संकटकालीन दषा आती है, तो राम ही रास्ता दिखाते हैं। वे
ही गरीबी के रावण का नाश करते हैं। हे दीनबंधु! इस समय रावण ने संसार को ही अपने
षिकंजे में कस रखा है। पाप सब को जला रहा है। ऐसे में पापों का विनाश करने वाले
प्रभु पधारिये, यह तुलसी आपसे ऐसी विनय करता है।
कीवे कहा, पढ़िबेको कहा फलु, बूझि न बेदको भेदु बिचारें।
स्वारवको परमारवको कलि कामद रामको बिसारे ॥
बाद-विवाद बिषादु बढ़ाई के छाती पराई औ
आपनी जारें।
चारिहुको, छहुको, नवको, दस-आठको
पाठु कुकाठु ज्यों फारें ॥
कीवे = करना चाहिए। कहा = क्या। परमारय
= परमार्थ (मोक्ष)। कामद = कामनाओं को देने वाला। भूलना । विषाटु = विषाद (दुख)।
पराई = दूसरों की। आपनी अपनी। जारें=
जलाना। छहुको = छह शास्त्र सीमांसा, वैशेषिक, वेदान्त,
न्याय एवं योग)। नव = नौ व्याकरण (इन्द्र, चन्द्र,
काशकृत्सन, शाकटायन, पिशालि, अमर, जैनेन्द्र, सरस्वती)। दस-आठ = अठारह पुराण। कुकाठु फारें= बुरे काठ को फाड़ना अर्थात्
व्यर्थ ।
कवि तुलसीदास ने यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य को एकाग्रचित होकर प्रभु
श्रीराम का सुमिरन करना से उसका सब प्रकार का कल्याण सम्भव है। संसार में प्राणी को मानव शरीर
प्राप्त करके स्वयं को धन्य
महिए। उसे कोई भी काम करने से पहले
सोच-विचार करना चाहिए। मुझे क्या करना है, क्या पढ़ना है, मुझे लिगा, इन सब बातों पर विचार करना अपेक्षित है। जो प्राणी वेदों का उचित अध्ययन
नहीं करता, सही विचार ल, उसके जीवन में कोई सार्थकता नहीं रह जाती। इस कलियुग में स्वार्थ और
परमार्थ आदि इच्छाओं को पूरा करने वाले भगवान् श्रीराम को लोग भूल गए हैं। वे
व्यर्थ का वाद-विवाद करते हैं और अपने लिए और दूसरों के लिए कष्ट का कारण बनते हैं अर्थात् वे
वाद-विवाद बढ़ाकर अपने को और औरों को हानि पहुंचाते हैं। चार वेदों, छह
शास्त्रों, नौ
व्याकरणों तथा अठारह पुराणों का अध्ययन करके लोग इस प्रकार समय को नष्ट कर देते
हैं, जैसे कुकाठ को फाड़ने में समय नष्ट हो जाता है। कवि के कहने का भाव
यह है कि वेद-शास्त्रों, व्याकरणों तथा पुराणों का अध्ययन करने से कोई लाभ नहीं है। कलियुग में तो केवल श्रीराम का
नाम ही जीवन के लिए उपयोगी है। अतः हमें श्रीराम की भक्ति ही करनी चाहिए।
धूत कहौ, अवधूत
कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति
बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो
कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।
शब्दार्थ : धूत = त्यागा
हुआ। अवधूत = संन्यासी। सरनाम = विख्यात। मसीत = कस्जिद।
कवि तुलसीदास जी कहते हैं
कि चाहे कोई हमें धूर्त कहे या संन्यासी, राजपूत कहे या
जुलाहा हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें किसी की बेटी से अपना बेटा नहीं
ब्याहना है कि वह अपनी जाति बिगड़ जाने से डरे। तुलसीदास जी कहते हैं कि हम तो
श्रीराम के गुलाम हैं। अब जिसको जो भला लगता हो, वह वही कहने
के लिये स्वतंत्र है।
हमारी तो जीवन शैली ही यह है कि हम भिक्षा मांगकर खाते हैं और
मस्जिद में जाकर सो लेते हैं। हमें किसी से कोई लेना-देना नहीं है।
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