सूरदास के पद / BA 1st Sem /Surdas ke pad 

सूरदास के विनय पद 

अबिगत गति कछु कहति न आवै।

ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥1॥

 

प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ।

अति-गम्भीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राइ।

तिनका सौं अपने जन कौ गुन मानत मुरू-समान।

सकुचि गनत अपराध-समुद्रहिं बूंद-तुल्य भगवानं

बदन-प्रसन्न कमल सनमुख है देखत हॉ हरि जैसें।

बिमुख भए अकृपा न निमिष हूँ, फिरि चितयौं तो तैसे।

भक्त-विरह कातर करूनामय, डोलत पाछै लागे।

सूरदास ऐसे स्वामी कौं देहिं पीठि सो अभागे॥2॥

 

जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं ।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं।
या देही कौ गरब न करियै, स्‍यार-काग-गिध खैहैं।
तीननि मैं तन कृमि, कै बिष्‍टा, कै ह्वै खाक उड़ैहैं।
कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा, कहँ रँग-रूप दिखैहैं।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं॥3॥

 

घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धरि खै‍हैं।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्‍यौ, देवी-देव मनैहैं।
तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरि बिखरैहैं।
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहैं।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कौं, जम की मार सो खैहैं।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गँवैहैं॥4॥


प्रभु हौं सब पतितन कौ टीकौ ।

और पतित सब दिवस चारि के, हौं तौ जनमत ही कौ ।

बधिक अजामिल गनिका तारी और पूतना ही कौ ।

मोहिं छाँड़ि तुम और उधारे, मिटै सूल क्यौं जी कौ ।

कोऊ न समरथ अघ करिबे कौं, खैंचि कहत हौं लीको ।

मरियत लाज सूर पतितन में, मोहुँ तैं को नीकौ ! ॥5॥

 

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सौं कहा छिपी करुणामय, सबके अन्तर्जामी।
जो तन दियौ ताहि विसरायौ, ऐसौ नोन-हरामी।
भरि भरि द्रोह विषै कौ धावत, जैसे सूकर ग्रामी।
सुनि सतसंग होत जिय आलस , विषियिनि संग विसरामी।
श्री हरि-चरन छांड़ि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी।
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितन मैं नामी।
सूरदास प्रभु ऊधम उधारन सुनिये श्रीपति स्वामी ॥6॥

जनम सिरानौ अटकैं-अटकैं।
राज-काज, सुत-बित की डोरी, बिनु विवेक फिरयौ भटकैं।
कठिन जो गाँठि परी माया की, तोरी जाति न झटकें।
ना हरि-भक्ति, न साधु-समागम, रह्यौ बीचहीं लटकैं।
ज्‍यौं बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कैं।
सूरदास सोभा क्‍यौं पावै, पिय बिहीन धनि मटकैं।।7।।

 

मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै ।

जैसें उड़ि जहाज को पच्छी; फिरि जहाज पर आवै ।

कलम-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्वावै ॥

परम गंग कौं छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।

सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥8॥

 

अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥1॥

 

प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ।

अति-गम्भीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राइ।

तिनका सौं अपने जन कौ गुन मानत मुरू-समान।

सकुचि गनत अपराध-समुद्रहिं बूंद-तुल्य भगवानं

बदन-प्रसन्न कमल सनमुख है देखत हॉ हरि जैसें।

बिमुख भए अकृपा न निमिष हूँ, फिरि चितयौं तो तैसे।

भक्त-विरह कातर करूनामय, डोलत पाछै लागे।

सूरदास ऐसे स्वामी कौं देहिं पीठि सो अभागे॥2॥

 

जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं ।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं।
या देही कौ गरब न करियै, स्‍यार-काग-गिध खैहैं।
तीननि मैं तन कृमि, कै बिष्‍टा, कै ह्वै खाक उड़ैहैं।
कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा, कहँ रँग-रूप दिखैहैं।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं॥3॥

 

घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धरि खै‍हैं।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्‍यौ, देवी-देव मनैहैं।
तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरि बिखरैहैं।
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहैं।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कौं, जम की मार सो खैहैं।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गँवैहैं॥4॥

 

प्रभु हौं सब पतितन कौ टीकौ ।

और पतित सब दिवस चारि के, हौं तौ जनमत ही कौ ।

बधिक अजामिल गनिका तारी और पूतना ही कौ ।

मोहिं छाँड़ि तुम और उधारे, मिटै सूल क्यौं जी कौ ।

कोऊ न समरथ अघ करिबे कौं, खैंचि कहत हौं लीको ।

मरियत लाज सूर पतितन में, मोहुँ तैं को नीकौ ! ॥5॥


मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सौं कहा छिपी करुणामय, सबके अन्तर्जामी।
जो तन दियौ ताहि विसरायौ, ऐसौ नोन-हरामी।
भरि भरि द्रोह विषै कौ धावत, जैसे सूकर ग्रामी।
सुनि सतसंग होत जिय आलस , विषियिनि संग विसरामी।
श्री हरि-चरन छांड़ि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी।
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितन मैं नामी।
सूरदास प्रभु ऊधम उधारन सुनिये श्रीपति स्वामी ॥6॥

जनम सिरानौ अटकैं-अटकैं।
राज-काज, सुत-बित की डोरी, बिनु विवेक फिरयौ भटकैं।
कठिन जो गाँठि परी माया की, तोरी जाति न झटकें।
ना हरि-भक्ति, न साधु-समागम, रह्यौ बीचहीं लटकैं।
ज्‍यौं बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कैं।
सूरदास सोभा क्‍यौं पावै, पिय बिहीन धनि मटकैं।।7।।

 

मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै ।

जैसें उड़ि जहाज को पच्छी; फिरि जहाज पर आवै ।

कलम-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्वावै ॥

परम गंग कौं छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।

सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥8॥


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