भ्रमर गीत /सूरदास द्वारा रचित राधा कृष्ण प्रेम संबंधी सूरदास के पद / Surdas ke bhramr geet /Radha Krishn love poetry /
नवल
किसोर नवल नागरिया।
अपनी
भुजा स्याम-भुज ऊपर, स्याम-भुजा अपनैं उर धरिया ।
क्रीड़ा
करत तमाल-तरुन-तर स्यामा स्याम उमँगि रस भरिया ।
यौं
लपटाइ रहे उर-उर ज्यौं मरकत मनि कंचन मैं जरिया ।
उपमा
काहि देउँ, को लायक, मन्मथ कोटि
वारने करिया ।
सूरदास
बलि-बलि जोरि पर, नँद-कुँवर बृषभानु-कुँवरिया ॥1॥
मुरली मधुर बजाई स्याम।
मन हरि
लियौ भवन नहिं भावै, ब्याकुल ब्रज की बाम ।।
भोजन, भूषन की सुधि नाहीं, तनु को नहीं सम्हार ।।
गृह
गुरु-लाज सूत सौं तोरयौ, डरीं नहीं ब्यवहार ।।
करत
सिंगार बिबस भई सुन्दरि, अंगनि गईं भुलाइ ।।
सूर-स्याम
बन वेनु बजावत, चित हित-रास रमाइ ।।2॥
मेरे
जिय ऐसी आन बनी
बिन
गोपाल काहू नही जानू, सुन मोसों सजनी ।
कहा
कांच के सन्ग्रह कीने, हरी जो अमोल मणी ।
विष
सुमेरु कछु काज न आवे, अमृत एक कणी ।
मन वच
कर्म मोहे आन न भावे, अब मेरो
श्याम धनी ।
सूरदास
स्वामी के कारण, तजी जात अपनी ॥3॥
चितै
राधा रति-नागर-ओर ।
नैन-बदन-छबि
यौ उपचति,
मनु ससि अनुराग चकोर ।
सारस रस
अचवन कौ मानौ, फिरत मधुप जुग जोर ।
पान करत
कहूँ तृप्ति न मानत, पलकनि देत अकोर ।
लियौ
मनोरथ मानि सफल ज्यौ, रजनि गऐ पुनि भोर ।
‘सूर’
परस्पर प्रीति निरंतर, दंपति हैं चितचोर ॥4॥
कहौ
कहाँ ते आए हौ ।
जानित
हौं अनुमान मनौ तुम यादवनाथ पठाए हौ ।
वैसोई
बरन, बसन पुनि वैसोई, तन भूषण सजि ल्याए हौ ।
सर्वसु
लै तब संग सिधारे अब का पर पहिराए हौ ।
सुनहु
मधुप एकै मन सबको सो तो वहाँ लै छाए हौ ।
मधुबन
की मानिनी मनोहर तहहि जाहु जहु भाए हौ ।
अब यह
कौन सयानप ? ब्रज पर का करन उठि धाए हौ ।
सुर
जहाँ लौ श्यामगात है जानि भले करि पाए हौ ॥5॥
गोकुल
सबै गोपाल-उपासी।
जोग-अंग
साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी ।
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी ।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु-गरासी ।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेमभजन तजि करत उदासी ।
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी? ॥6॥
उधौ जोग
सिखावन आए ।
सिंगी, भस्म, अधारी, मुद्रा, लै ब्रजनाथ पठाए ।
जो पै
जोग लिख्यो गोपिन कौ, कत रसराज खिलाए ।
तबहिं
ज्ञान काहे न उपदेस्यों अधर सुधा रस प्याए ।
मुरली
शब्द सुनत वन गवनति सुत पति गृह विसराए ।
सूरदास
संग छाड़ स्याम को मनहि रहे पछिताए ।।7॥
अँखिया हरि-दरसन की भूखी ।
कैसे
रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी ।
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहिं झूखी ।
अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी ।
बारक वह मुख फेरि दिखाओ दुहि पय पिवत
पतूखी ।
सूर सिकत हठि नाव चलाओ ये सरिता हैं सूखी ॥8॥
हमारे
हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि,कान्ह-कान्ह जकरी
।
सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यौं करूई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी ।
यह तौ 'सूर' तिनहिं लै
सौंपौ,जिनके मन चकरी ॥9॥
बिनु
गोपाल बैरिन भई कुंजैं ।
तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की
पुंजैं ।
बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं ।
पवन¸ पानी¸ धनसार¸
संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं ।
ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत
लुंजैं ।
सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन
ज्यौं गुजैं ।।10॥
ऊधौ ना
हम बिरहिनि ना तुम दास ।
कहत
सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास
बिरही
मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस ।
दास भाव
नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ।
पंकज
परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास ।
राजिव
रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ।
प्रगट
प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास ।
सूर
स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥11॥
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