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परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबंध / परोपकार पर निबंध /Parhit saris dhrm nahi bhai essay in Hindi/Paropkaar par essay in Hindi/Essay on Paropkaar in Hindi |
परहित सरिस धर्म नहिं भाई
अथवा
परोपकार पर निबंध
अथवा
परोपकार पर निबंध
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति संचहिं सुजान ॥
भगवान ने प्रकृति की रचना इस प्रकार की है कि उसके मूल में परोपकार ही काम
कर रहा है। उसके कण-कण में परोपकार का गुण समाया है। वृक्ष अपना फल नहीं खाते, नदी अपना जल नहीं
पीती, बादल जल रूपी अमृत हमें देते हैं, सूर्य रोशनी देकर चला जाता है। इस प्रकार सारी प्रकृति परहित के लिए अपना
सर्वस्व न्योछावर करती रहती है ।
परोपकार दो शब्दों पर+उपकार के मेल से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ है “दूसरों
का भला”। जब मनुष्य ‘स्व’ की
संकुचित सीमा से बाहर निकलकर ‘पर’ के
लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देता है, वही परोपकार कहलाता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी कहा है- “मनुष्य वही जो मनुष्य के लिए मरे”।
परोपकार की भावना ही मनुष्य को पशु से अलग करती है अन्यथा आहार, निद्रा आदि तो मनुष्यों और पशुओं में समान रूप से पाए जाते हैं। परहित के
कारण ऋषि दधीचि ने अपनी अस्थियां तक दान में दे दी थी। महाराज शिवि ने एक कबूतर के
लिए अपने शरीर का मांस तक दे दिया था तथा अनेक महान संतों ने लोक कल्याण के लिए
अपना जीवन अर्पित कर दिया था ।
परोपकार मानव का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। मनुष्य के पास विकसित मस्तिष्क तथा
संवेदनशील हृदय होता है। दूसरों के दुख से दुखी होकर उसके मन में उनके प्रति सहानुभूति
पैदा होती है और वह उनके दुख को दूर करने का प्रयत्न करता है तथा परोपकारी कहलाता
है। परोपकार का सीधा संबंध दया, करुणा,
संवेदना से है। सच्चा परोपकारी करुणा से पिंघल कर हर दुखी प्राणी की सहायता करता
है। “बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” उक्ति भी परोपकार की ओर संकेत करती है।
परोपकार में स्वार्थ की भावना नहीं रहती। परोपकार करने से मन और आत्मा को
शांति मिलती है। भाई-चारे तथा विश्व-बंधुत्व की भावना बढ़ती है। सुख की जो अनुभूति
किसी व्यक्ति का संकट दूर करने में, भूखे को रोटी देने में, नंगे को कपड़ा देने में, बेसहारा को सहारा देने में
होती है वह किसी अन्य कार्य करने से नहीं मिलती। परोपकार से अलौकिक आनंद मिलता है।
आज का मानव भौतिक सुखों की ओर बढ़ता जा रहा है। इन भौतिक सुखों के आकर्षण
में मनुष्य को बुराई-भलाई से दूर कर दिया है। अब वह केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए
कार्य करता है। आज मनुष्य थोड़ा लगाने तथा अधिक कमाने की इच्छा करने लगा है। जीवन
के हर क्षेत्र को व्यवसाय के रूप में देखा जाने लगा है। जिस कार्य में स्वहित होता
है, वही किया जाता है। उससे चाहे औरों का कितना ही नुकसान
उठाना पड़े। पहले छल, कपट, धोखे, बेईमानी से धन कमाया जाता है और फिर धार्मिक स्थलों अथवा गरीबों में इसलिए
बाँट दिया जाता कि उनका यश हो जाए। इसे परोपकार नहीं कह सकते। महात्मा ईशा ने
परोपकार के विषय में कहा था कि “दाहिने हाथ से किए गए उपकार का पता बाएं हाथ को
नहीं लगना चाहिए”। पहले लोग गुप्त दान किया करते थे। अपनी मेहनत की कमाई से किया
गया दान ही वास्तविक परोपकार होता है। अब न केवल मनुष्य अपितु राष्ट्र भी स्वार्थ
केंद्रित हो गए हैं। इसलिए चारों और युद्ध का भय बना रहता है। चारों ओर अहम और
स्वार्थ का राज्य है। प्रकृति द्वारा दिए गए निस्वार्थ समर्पण के संदेश से भी
मनुष्य ने कुछ नहीं सीखा। हजारों लाखों लोगों में से विरले इंसान ही ऐसे होते हैं
जो परहित के लिए सोचते हैं।
परोपकारी व्यक्ति का जीवन आदर्श माना जाता है। वह सदा प्रसन्न तथा पवित्र
रहता है। उसे कभी आत्मग्लानि नहीं होती। वह सदा शांत मन रहता है। उसे समाज में यश
और सम्मान मिलता है। वर्तमान युग में महान नेताओं महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक आदि को लोक
कल्याण करने के लिए सम्मान तथा यश मिला। यह सब पूजा के योग्य बन गए। परहित के कारण
गांधी ने गोली खाई, ईशा सूली पर चढ़ा,
सुकरात ने जहर पीया। किसी भी समाज तथा देश की उन्नति के लिए परोपकार सबसे बड़ा
साधन है। हर व्यक्ति का धर्म है कि वह परोपकारी बने। कवि रहीम ने परोपकार की महिमा
का वर्णन इस प्रकार किया है-
‘रहिमन यो सुख होत है उपकारी के अंग ।
बाटन वारे को लगे ज्यों मेहंदी के रंग’ ॥
अर्थात जिस
प्रकार मेहंदी लगाने वाले अंगों पर भी मेहंदी का रंग चढ जाता है। उसी प्रकार
परोपकार करने वाले व्यक्ति के शरीर को भी सुख की प्राप्ति होती है।
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