संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने - "शब्दार्थ सम्बन्ध शक्ति" कहकर शब्दशक्ति को परिभाषित किया है। इसके अनुसार - " शब्द के जिस व्यापार से इसके किसी अर्थ का बोध होता है, उसे शब्द शक्ति कहते है। "
हिंदी में भी शब्दशक्ति की परिभाषा कुछ इस तरह दिखाई देती है- "वाक्य में प्रयुक्त सार्थक शब्द के अर्थ-बोधक व्यापार के मूल कारण को शब्दशक्ति कहते है। जैसे - 'सूर्य अस्त हो गया। '
इसका सामान्य अर्थ है कि जो सूर्य सुबह उदय हुआ था, वह अब डूब गया है। संध्या काल में कुछ लोग विशेष प्रकार के कार्य के आदि होते है। जैसे - किसान- मजदूर खेत में काम बंद करते है, तो कुछ लोग संध्या समय पूजा-वंदन करते है। अतः इस वाक्य का अर्थ अपनी सुविधा, रूचि और क्रिया व्यापर के अनुसार लगाया जाएगा कि अब काम बंद करना चाहिये, अब संध्या-वंदना या आरती करनी चाहिए, अब सैर करनी चाहिए या फिर संध्या हो जाने के कारण अँधेरा हो गया है, अब दीप आदि प्रकाश की व्यवस्था करनी चाहिए।
स्पष्ट है कि एक ही शब्द समूह या वाक्य अनेक प्रकार के अर्थ अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते है। एक ही वाक्य में यहाँ तीन भिन्न अर्थों को भी ग्रहण किया गया है- एक सामान्य शब्द वाचक अर्थ, दूसरा लक्षणों से प्रकट होनेवाला अर्थ, तीसरा विभिन्न रुचियों से संयत क्रिया व्यापारों को व्यक्त करनेवाला अर्थ।
भारतीय काव्यशास्त्र में शब्दशक्ति का बड़ा वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। संस्कृत आचार्यों ने शब्दशक्ति के प्रमुखत: तीन भेद माने है - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इन शब्दशक्तियों के अनुसार शब्द और अर्थ तीन तरह के होते है -
शब्द - वाचक लक्षक व्यंजक
अर्थ - वाच्यार्थ लक्ष्यार्थ व्यंग्यार्थ
इन तीन शब्दशक्तियों को संक्षित्प रूप में निम्न अनुसार देखा जा सकता है।
1. अभिधा शब्दशक्ति -
शब्दशक्ति में सबसे पहला स्थान अभिधा का है। अभिधा वह शक्ति है, जिससे मुख्य अर्थ का बोध होता है। इस व्यक्त अर्थ को सांकेतिक अर्थ भी कहा जाता है। मुख्य या प्रथम अर्थ का बोध कराने के कारण अभिधा को मुख्या, अग्रिमा भी कहा जाता है। जिस शब्द से मुख्य अर्थ का बोध होता है, वह शब्द वाचक शब्द कहलाता है। उससे निकलनेवाला अर्थ वाच्यार्थ या मुख्यार्थ कहलाता है।
अभिधा शब्दशक्ति के द्वारा मुख्यार्थ या सांकेतिक वाच्यार्थ का ज्ञान करानेवाले साधन है -व्याकरण, व्यवहार या बोलचाल, कोश, उपमान, वाक्यविशेष, वितरण व्याख्या आदि। इन्हीं उपकरणों की सहायता से हम किसी शब्द का सामान्य वाच्यार्थ ग्रहण करने में सक्षम हो पाते है।
यहां प्रायः शब्दों का सांकेतिक एवं निश्चित पूर्व-निर्धारित अर्थ ही ग्रहण किया जाता है। जैसे - 'कमल' का अर्थ एक जाति का पुष्प ही है। 'गधा' शब्द का अर्थ पशु-जाति के प्राणी से है, तो 'पुस्तक' पढ़ने के काम आनेवाली वस्तु-विशेष है। इस बात को छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है।
1. मोती बड़ा नटखट लड़का है।
2. आजकल मोती बड़े सस्ते हो गए है।
3. मोती रात में बहुत भौंकता है।
इन तीनों वाक्यों में प्रथम में मोती व्यक्तिविशेष का नाम है। दूसरे में बहुमूल्य पदार्थ का, तो तीसरे में पशु विशेष का। मोती के यह तीनों अर्थ वाक्य में उसके निकट प्रस्तुत अन्य शब्द से जाने गए है।
अभिधा शब्दशक्ति के द्वारा जिन शब्दों का अर्थ बोध होता है, वे तीन प्रकार के होते है।
इसी आधार पर अभिधा के तीन भेद माने गए है-
1. योग अभिधा
2. रूढ़ि अभिधा
3. योगरूढ़ अभिधा
2. लक्षणा शब्दशक्ति
जब काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के मुख्यार्थ या वाच्यार्थ के ग्रहण कर पाने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित हो, व्याकरण कोश से प्राप्त होनेवाले अर्थ के स्थान पर किसी अन्य अर्थ को ग्रहण करने की आवश्यकता प्रतीत हो, तो लक्षणा शब्दशक्ति का प्रयोग होता है।
लक्षणा शब्दशक्ति की परिभाषा देते हुए संस्कृत के आचार्य मानते है - "मुख्यार्थ में बाधा उपस्थित होने पर रूढ़ि अथवा प्रयोजन से मुख्यार्थ से संबंधित अन्य अर्थ का बोध करानेवाली शब्दशक्ति लक्षणा शब्दशक्ति कहलाती है।"
इसे समझने के लिए लक्षणा के मुख्यतः तीन लक्षण निर्धारित किये गए गए है।
1. जब मुख्यार्थ में बाधा होती है। मुख्यार्थ से तात्पर्य है वाच्यार्थ या अभिधेयार्थ। जहाँ लक्षणा शब्दशक्ति होती है, वहाँ वाच्यार्थ या अभिधेयार्थ लागु नहीं होता।
उदा. यदि किसी को कहा जाये कि वह उल्लू है, तो यहाँ उल्लू का सामान्य अर्थ लागु नहीं होगा।
2. लक्षणा का दूसरा अर्थ यह है कि वह भिन्न अर्थ जो कि लागू होता होता है , बिल्कुल ऊपर से थोपा हुआ भी नहीं होना चाहिए। उसका वाच्यार्थ से कोई न कोई सम्बद्ध होना चाहिए। जैसे- उपर्युक्त उदा. के अनुरूप सामान्यतः उल्लू को मुर्ख ही समझा जाता है। इस सम्बन्ध में उल्लू का अर्थ हुआ - मुर्ख मनुष्य।
3. लक्षणा में भिन्न अर्थ का प्रयोग दो कारणों से होता है- एक तो रूढ़ि या परम्परा निर्वहन के कारण या फिर किसी विशेष प्रयोजन से। उदा. जंगल जाना, नित्यकर्म, हरिजन आदि शब्द परंपरा निर्वहन को सूचित करते है। तो गरीब की लुटिया, चरण सेवक विशेष प्रयोजन को प्रकट करते है।
जैसे - 1. वह चौकन्ना हो गया।
चौकन्ना का सामान्य अर्थ है चार कानोंवाला। पर चार कान तो किसी के होते नहीं। अतः अर्थ होगा चार कानों में जितनी श्रवण शक्ति होती है, उतनी अकेले में आ जाना। लक्षणों के अनुसार अर्थ हुआ - जो चारों ओर से सावधान हो।
2. वह गधा है।
यह कहने मात्र से गधे जैसे कान - पूंछ नहीं देखे जाएंगे। बल्कि गधे जैसे गुण-लक्षण खोजे जाएंगे। मूर्खता और ढिठाई गधे के स्वभावगत लक्षण है। इसी अर्थ में मनुष्य के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त होता है।
रूढ़ि और प्रयोजन की दृष्टि से लक्षणा के दो भेद मने गए है- रूढ़ि लक्षण और प्रयोजनवती लक्षणा। इनके भी अन्य उपभेद देखे जा सकते है।
3. व्यंजना शब्दशक्ति
व्यंजन शब्द का अर्थ हुआ विशेष प्रकार का अंजन। आंख में लगा हुआ अंजन जिस प्रकार दृष्टि दोष को दूर कर निर्मूल बना देता है। उसी प्रकार व्यंजना शब्दशक्ति मुख्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ को पीछे छोड़ती हुई, उसके मूल में छिपे अकथित अर्थ को स्पष्ट करना है। जब अभिधा शब्दशक्ति अर्थ बतलाने में असमर्थ होती है, तो लक्षण के द्वारा अर्थ बताने की चेष्टा की जाती है। किन्तु कुछ अर्थ ऐसे भी होते है, जिनकी प्रतीति अभिधा अथवा लक्षणा द्वारा नहीं होती।
अर्थात - "अभिधा और लक्षणा शब्दशक्ति अपने-अपने अर्थों का बोध कराके शांत हो जाती है, तब जिस शब्दशक्ति से अर्थ बोध होता है, उसे व्यंजना शब्दशक्ति कहते है। अर्थ बोध करानेवाले ऐसे शब्दों को व्यंजक और अर्थ को व्यंग्यार्थ कहते है।
जैसे- 1. मुर्गे ने बांग दी।
2.
गंगा में गांव है।
अभिधा और लक्षण का सम्बन्ध केवल शब्द से होता है। परन्तु व्यंजना का सम्बन्ध शब्दों के साथ अर्थ से भी है। इसी आधार पर व्यंजना के दो भेद है- शाब्दी व्यंजना और अार्थी व्यंजना।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि काव्यजगत में शब्दशक्ति का अत्याधिक महत्व है। अर्थचमत्कार इन्हीं शब्दशक्तियों पर आधारित होता है।
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