नाथ साहित्य की विशेषताएँ | नाथ साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ |
नाथ साहित्य की विशेषताएँ | नाथ साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
नाथ साहित्य की विशेषताएँ | नाथ साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ –
सिद्ध साहित्य में आ गई विकृतियों के विरोध
में नाथ साहित्य का जन्म हुआ। यद्यपि इनका मूल भी बौद्धों की वज्रयान शाखा ही है।
सिद्धों ने ‘योग-साधना’ को नीरे मैथून का स्वरूप देकर
समाज में अपने स्वैराचार को ‘वाममार्ग’ की शरण दी थी। नाथ-सम्प्रदाय ने योग-साधना को एक स्वस्थ
साधना के रूप में अपनाया और आदिकालीन धार्मिक, सामाजिक जीवन में व्याप्त
अनाचार को खत्म करने का प्रयास किया। यद्यपि नाथ लोग इस मत के जनक ‘आदिनाथ शिव’ को मानते है, लेकिन सही अर्थ में इस मत को
एक सुव्यवस्थित रुप देने का श्रेय गोरखनाथ को दिया जाता है। गोरखनाथ ने अपने इस सम्प्रदाय
को सिद्ध सम्प्रदाय से अलग कर दिया और इसका नाम ‘
नाथ सम्प्रदाय’ रखा।
‘नाथ’ शब्द में से ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादि रूप’ और ‘थ’ का अर्थ है ‘भूवनत्रय में स्थापित होना।
इसप्रकार ‘नाथ’ शब्द का अर्थ है- वह अनादि
धर्म, जो
भूवनत्रय की स्थिति का कारण है। दूसरी व्याख्या के अनुसार – ‘नाथ’ वह तत्व है, जो मोक्ष प्रदान करता है। नाथ
ब्रह्म का उद्बोधन करता है, तथा
अज्ञान का दरुमन करता है। नाथ सम्प्रदाय उन साधकों का सम्प्रदाय है जो ‘नाथ’ को परमतत्व स्वीकार कर उसकी
प्राप्ति के लिए योग साधना करते थे तथा इस सम्प्रदाय में दीक्षित होकर अपने नाम के
अन्त में ‘नाथ’ उपाधि जोड़ते थे। नाथ शब्द का
प्रयोग ब्रह्म के लिए भी हुआ है और सद्गुरू के लिए भी। इन योगियों की एक विशिष्ठ
वेशभूषा होती है। प्रत्येक योगी एक निश्चित तिथि को कान चिरखा कर कुंडल धारण करता
है जिसे मुद्रा कहते है। इनके हाथ में किंकरी सिर पर जटा, शरीर पर भस्म, कंठ में रूद्राक्ष की माला, हाथ में कमण्डल, कन्धे पर व्याघ्रचर्म और बगल
मे खप्पर रहता है।
नौ नाथ के नाम
नाथ सम्प्रदास में नौ नाथ आते है, जिनके नाम है – (१) आदिनाथ (स्वयं शिव), (२) मत्स्यन्द्रनाथ, (३) गोरखनाथ, (४) गहिणीनाथ, (५) चर्पटनाथ, (६) चौरंगीनाथ, (७) जालंधरनाथ, (८) भर्तृनाथ (भरथरीनाथ) और (९) गोपीचन्द नाथ।
इन
नाथों ने अपने सम्प्रदाय में भोग का तिरस्कार, इन्द्रिय संयम, मन:साधना, प्राणसाधना, कुण्डलिनी जागरण, योग साधना को अधिक महत्व दिया
है। इनकी साधना का मूल स्वर शील, संयम और शुद्धतावादी था। इस सम्प्रदाय में इन्द्रिय निग्रह
पर विशेष बल दिया गया है। इन्द्रियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण नारी है, अत: नारी से दूर रहना की भरसक
शिक्षा दी गई है। संभव है कि गोरखनाथ ने बौद्ध विहारों में भिक्षुनियों के प्रवेश
का परिणाम और उनका चरित्रिक पतन देखा हो। इस सम्प्रदाय में निवृत्ति और मुक्ति
गुरू के प्रसाद से ही संभव मानी गई है। अत: गुरू का विशेष महत्व है। नाथ पंथियों
के मुख्य सिद्धान्त इन्द्रिय -संगम, मन:साधना, हठयोग साधना आदि का प्रभाव
कबीर एवं अन्य सन्तों की रचनाओं मे देखा जा सकता है। गोरखनाथ आदि ने जिन प्रतीकों
को पारिभाषिक शब्दों को, खण्डन – मण्डनात्मक शैली को अपनाया
उसका विकास संत साहित्य में मिलता है।
नाथों की साधना-
प्रणाली ‘हठयोग’ पर आधारित है। ‘ह’ का अर्थ सूर्य और ‘ठ’ का अर्थ चन्द्र बतलाया गया
है। सूर्य और चन्द्र के योगों को हठयोग कहते है। यहाँ सूर्य इड़ा नाडी का और
चन्द्र पिंगला नाडी का प्रतीक है। इस साधना पद्धति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति
कुण्डलिनी और प्राणशक्ति लेकर पैदा होता है। सामान्य तया कुण्डलिनी शक्ति सुषुप्त
रहती है। साधक प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागृत कर ऊर्ध्वमुख करता है। शरीर
में छह चक्रों और तीन नाड़ियों की बात कही गयी है। जब योगी प्रणयान के द्वारा इड़ा
पिंगला नामक श्वास मार्गों को रोक लेता है। तब इनके मध्य में स्थित सुषुम्ना नाड़ी
का द्वार खुलता है। कुण्डलिनी शक्ति इसी नाड़ी के मार्ग से आगे बढ़ती है और
छ.चक्रों को पार कर मतिष्क के निकट स्थित शून्यचक्र में पहुँचती है। यही पर
जीवात्मा को पहुँचा देना योगी का चरम लक्ष्य होता है। यही परमानन्द तथा ब्रह्मानुभूति
की अवस्था है। यही हठयोग साधना है।
नाथ साहित्य की विशेषताएँ |
नाथ
साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ :-
नाथ मत का दार्शनिक पक्ष शैव
मत से और व्यावहारिक पक्ष हठयोग से सम्बन्धित है। इन नाथों की रचनाओं में नैतिक
आचरण, वैराग्य
भाव, इन्द्रिय
निग्रह, प्राण-साधना, मन साधना और गुरू महिमा का
उपदेश मिलता है। इन विषयों में नीति और साधना की व्यापकता है और उसके साथ ही जीवन
की अनुभूतियों का सधन चित्रण भी है। इस दृष्टि से नाथ साहित्य की निम्नलिखित विशेषताएँ कहा जा सकता है –
(1) चित्त शुद्धि और सदाचार में विश्वास:-
नाथों
ने सिद्धों द्वारा धर्म और समाज में फैलायी हुई अहिंसा की, विषवेलि को काटकर चारित्रिक
दृढ़ता और मानसिक पवित्रता पर भर दिया। इन्होंने नैतिक आचरण और मन की शुद्धता पर
अधिक बल दिया है। अपने मतानुयाषियों के शीलवान होने का उपदेश दिया है। मद्य भाँग
धतूरा आदि मादक वस्तुओं के सेवन का परित्याग योगियों के लिए अनिवार्य माना गया है।
योग-साधना में नारी का आकर्षण सबसे बड़ी बाधा होती है, इसलिए नारी से दूर रहने का
उपदेश दिया गया है।
(2)
परम्परागत रूढ़ियो एवं बाह्यडम्बरों का विरोध:-
नाथों
ने धर्म प्रणित बाह्यडम्बर और रूढ़ियों का खुलकर विरोध किया है। उनके अनुसार पिण्ड
में ब्रह्माण्ड है इसलिए परमतत्व को बाहर खोजना व्यर्थ है। मन की शुद्धता और
दृढ़ता के साथ हठयोग के द्वारा उस परमतत्व का अनुभव किया जा सकता है। धर्म के
क्षेत्र में बाह्यडम्बर के लिए कोई स्थान नहीं है। इसीलिए नाथों ने मूर्तिपूजा, मुण्डन विशिष्ट वस्त्र पहनना, उँच नीच, वेद पुराण पढ़ना आदि का विरोध
किया है।
(3) गुरू महिमा :-
नाथ
सम्प्रदाय में गुरू का स्थान सर्वोपरि माना है। इसलिए गुरू-शिष्य परम्परा को नाथ
सम्प्रदाय में अत्याधिक महत्व दिया जाता है। उनकी मान्यता है कि वैराग्यभाव का
दृढ़ीकरण और त्रिविध साधना गुरू ज्ञान से ही संभव हो पाती है। गोरखनाथ ने कहा है
कि गुरू ही आत्माब्रह्म से अवगत कराते है। गुरू से प्राप्त ज्ञान के प्रकाश में
तीनों लोक का रहस्य प्रकट हो सकता है।
(4) उलटवासियाँ :-
नाथों
की साधना का क्रम इन्द्रिय निग्रह के बाद प्राण साधना तथा उसके पश्चात् मनःसाधना
है। मन:साधना से तात्पर्य है मन को संसार के खींच कर अन्त:करण की ओर उन्मुख कर
देना। मन की स्वाभाविक गति है बाहरी जगत की ओर रहना उसे पलटकर अंतर जगत की ओर
करनेवाली इस प्रक्रिया को उलटवासी कहते हैं। नाथों ने उलटवासियों का प्रयोग अपनी
साधना की अभिव्यक्ति के लिए किया है। उलटवासियाँ कहीं-कहीं क्लिष्ट जरूर है, लेकिन अद्भूत रस से ओत-प्रोत
है।
(5)
जनभाषा का परिष्कार :-
आदिकालीन
हिन्दी को समृद्ध कराने में नाथ साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यद्यपि
नाथों ने संस्कृत भाषा में भी विपुल मात्रा में रचनाएँ लिखी हैं, लेकिन सामान्य जनों के लिए
उन्होंने अपने विचार जन-भाषा में ही अभिव्यक्त किये है। जिस प्रकार उनके विचार
परम्परागत रुदी विचारों से अलग है उसी तरह उनकी भाषा भी। आ. शुक्लजीने इनकी भाषा
को खड़ीबोली के लिए राजस्थानी माना है।
कुल मिलाकर हम कह सकते है कि नाथ साहित्य में स्वच्छन्द भाव और विचारों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति हुई है। नाथ साहित्य की देन को स्पष्ट करते हुए डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं- “गोरखनाथ ने नाथ सम्प्रदाय को जिस आन्दोलन का रूप दिया वह भारतीय मनोवृत्ति के सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ है। उसमें जहाँ एक ओर ईश्वरवाद की निश्चित धारणा उपस्थित की गई वहाँ दूसरी ओर विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढ़ियों पर भी आघात किया। जीवन को अधिक से अधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रखकर आत्मिक अनुभूतियों के लिए सहज मार्ग की व्यवस्था करने का शक्तिशाली प्रयोग गोरखनाथ ने किया।”
नाथ साहित्य के अन्य तथ्य
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की
प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ
को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं।
इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की
प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ
संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे
निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई
पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे।
आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस
समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है।
परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में
मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की
शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के
गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता
है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता
माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता
है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा
नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव
एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग
के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से
ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते
थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल
ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे
आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी
कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार
जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि
अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर
ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर
कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता
है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा
को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का
प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के
सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना
है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का
एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों
में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह
सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
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