कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें  | Krishan Bhakti kavaydhara ki pramukh visheshtayen

कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें

भारतीय धर्म और संस्कृति के इतिहास में कृष्ण सदैव एक अद्भुत विलक्षण व्यक्तित्व माने जाते रहें है हमारी प्राचीन ग्रंथों में यत्र तत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है जिससे उनके जीवन के विभिन्न रूपों का पता चलता है

यदि वैदिक संस्कृत साहित्य के आधार पर देखा जाए तो कृष्ण के तीन रूप सामने आते है

1. बाल किशोर रूप, 2. क्षत्रिय नरेश, 3. ऋषि धर्मोपदेशक

श्रीकृष्ण विभिन्न रूपों में लौकिक और अलौकिक लीलाएं दिखाने वाले अवतारी पुरूष हैं गीता, महाभारत विविध पुराणों में उन्ही के इन विविध रूपों के दर्शन होतें हैं

कृष्ण महाभारत काल में ही अपने समाज में पूजनीय माने जाते थे वे समय समय पर सलाह देकर धर्म और राजनीति का समान रूप से संचालन करते थे लोगों में उनके प्रति श्रद्या और आस्था का भाव था कृष्ण भक्ति काव्य धारा के कवियों ने अपनी कविताओं में राधाकृष्णा की लीलाओं को प्रमुख विषय बनाकर वॄहद काव्य सॄजन किया। इस काव्यधारा की प्रमुख विशेशतायें इस प्रकार है

1. राम और कृष्ण की उपासना

समाज में अवतारवाद की भावना के फलस्वरूप राम और कृष्ण दोनों के ही रूपों का पूजन किया गया

दोनों के ही पूर्ण ब्रह्म का प्रतीक मानकर, आदर्श मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया  किंतु जहाँ राम मर्यादा पुरषोत्तम के रूप में सामने आते हैं, बही कृष्ण एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर सामंती अत्याचारों का विरोध करते हैं  वे जीवन में अधिकार और कर्तव्य के सुंदर मेल का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं

वे जिस तन्मयता से गोपियों के साथ रास रचाते हैं , उसी तत्परता से राजनीति का संचालन करते हैं या फ़िर महाभारत के युद्ध भूमि में गीता उपदेश देते हैं

इस प्रकार से राम कृष्ण ने अपनी अपनी चारित्रिक विशेषताओं द्वारा भक्तों के मानस को आंदोलित किया

2. राधा-कृष्ण की लीलाएं

कृष्णा भक्ति काव्य धारा के कवियों ने अपनी कविताओं में राधा कृष्णा की लीलाओं को प्रमुख विषय बनाया । श्रीमदभागवत में कृष्ण के लोकरंजक रूप को प्रस्तुत किया गया था । भागवत के कृष्ण स्वंय गोपियों से निर्लिप्त रहते हैं । गोपियाँ बार बार प्रार्थना करती है , तभी वे प्रकट होतें हैं जबकि हिन्दी कवियों के कान्हा एक रसिक छैला बनकर गोपियों का दिल जीत लेते है

सूरदास जी ने राधा कृष्ण के अनेक प्रसंगों का चित्रण कर उन्हें एक सजीव व्यक्तित्व प्रदान किया है। हिन्दी कवियों ने कृष्ण ले चरित्र को नाना रूप रंग प्रदान किये हैं , जो काफी लीलामयी मधुर जान पड़ते हैं

3. वात्सल्य रस का चित्रण

पुष्टिमार्ग प्रारंभ हुया तो बाल कृष्ण की उपासना का ही चलन था अत : कवियों ने कृष्ण के बाल रूप को पहले पहले चित्रित किया

यदि वात्सल्य रस का नाम लें तो सबसे पहले सूरदास का नाम आता है, जिन्हें आप इस विषय का विशेषज्ञ कह सकते हैं उन्होंने कान्हा के बचपन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियाँ भी ऐसी चित्रित की है, मानो वे स्वयं वहाँ उपस्थित हों

मैया कबहूँ बढेगी चोटि ?
किनी बार मोहिं ढूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी

सूर का वात्सल्य केवल वर्णन मात्र नहीं है जिन जिन स्थानों पर वात्सल्य भाव प्रकट हो सकता था , उन सब घटनाओं को आधार बनाकर काव्य रचना की गयी है  माँ यशोदा अपने शिशु को पालने में सुला रही हैं और निंदिया से विनती करती है की वह जल्दी से उनके लाल की अंखियों में जाए

जसोदा हरी पालनै झुलावै
हलरावै दुलराय मल्हरावै जोई सोई कछु गावै
मेरे लाल कौ आउ निंदरिया, काहै मात्र आनि सुलावै
तू काहे बेगहि आवे, तो का कान्ह बुलावें

कृष्णा का शैशव रूप घटने लगता है तो माँ की अभिलाषाएं भी बढ़ने लगती हैं उसे लगता है की कब उसका शिशु उसका शिशु उसका आँचल पकड़कर डोलेगा कब, उसे माँ और अपने पिता को पिता कहके पुकारेगा, वह लिखते है

जसुमति मन अभिलाष करै,
कब मेरो लाल घुतरुवनी रेंगै, कब घरनी पग द्वैक भरे,
कब वन्दहिं बाबा बोलौ, कब जननी काही मोहि ररै ,
रब घौं तनक-तनक कछु खैहे, अपने कर सों मुखहिं भरे
कब हसि बात कहेगौ मौ सौं, जा छवि तै दुख दूरि हरै

सूरदास ने वात्सल्य में संयोग पक्ष के साथ साथ वियोग का भी सुंदर वर्णन किया है जब कंस का बुलावा लेकर अक्रूर आते हैं तो कृष्ण बलराम को मथुरा जाना पङता है इस अवसर पर सूरदास ने वियोग का मर्म्स्पर्सी चित्र प्रस्तुत किया है यशोदा बार बार विनती करती हैं कि कोई उनके गोपाल को जाने से रोक ले

जसोदा बार बार यों भारवै
है ब्रज में हितू हमारौ, चलत गोपालहिं राखै

जब उधौ कान्हा का संदेश लेकर आते हैं, तो माँ यशोदा का हृदय अपने पुत्र के वियोग में रो देता है, वह देवकी को संदेश भिजवाती हैं

संदेस देवकी सों कहियो।
हों तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।।
उबटन तेल तातो जल देखत ही भजि जाने
जोई-चोर मांगत सोइ-सोइ देती करम-करम कर न्हाते
तुम तो टेक जानतिही धै है ताऊ मोहि कहि आवै
प्रात: उठत मेरे लाड लडैतहि माखन रोटी भावै

4. श्रृंगार का वर्णन

कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण गोपियों के प्रेम वर्णन के रूप में पूरी स्वछंदता से श्रृंगार रस का वर्णन किया है कृष्ण गोपियों का प्रेम धीरे धीरे विकसित होता है कृष्ण , राधा गोपियों के बीच अक्सर छेड़छाड़ चलती रहती है

तुम पै कौन दुहावै गैया
इत चितवन उन धार चलावत, यहै सिखायो मैया
सूर कहा हमको जातै छाछहि बेचनहारि

कवि विद्यापति ने कृष्ण के भक्त-वत्सल रूप को छोड़ कर शृंगारिक नायक वाला रूप ही चित्रित किया है

विद्यापति की राधा भी एक प्रवीण नायिका की तरह कहीं मुग्धा बनाती है, तो कभी कहीं अभिसारिका  विद्यापति के राधा कृष्ण यौवनावस्था में ही मिलते है और उनमे प्यार पनपने लगता है

प्रेमी नायक,  प्रेमिका को पहली बार देखता है तो रमनी की रूप पर मुग्ध हो जाता है

सजनी भलकाए पेखन मेल
मेघ-माल सयं तड़ित लता जनि
हिरदय सेक्ष दई गेल

हे सखी ! मैं तो अच्छी तरह उस सुन्दरी को देख नही सका क्योंकि जिस प्रकार बादलों की पंक्ति में एका-एक बिजली चमक कर छिप जाती है उसी प्रकार प्रिया के सुंदर शरीर की चमक मेरे ह्रदय में भाले की तरह उतर गयी और मै उसकी पीडा झेल रहा हूँ

विद्यापति की राधा अभिसार के लिए निकलती है तो सांप पाँव में लिपट जाता है  वह इसमे भी अपना भला मानती है, कम से कम पाँव में पड़े नूपुरों की आवाज़ तो बंद हो गयी

इसी प्राकार विद्यापति वियोग में भी वर्णन करते हैं कृष्ण के विरह में राधा की आकुलता, विवशता, दैन्य निराशा आदि का मार्मिक चित्रण हुया है

सजनी, के कहक आओव मधाई
विरह-पयोचि पार किए पाऊव, मझुम नहिं पति आई
एखत तखन करि दिवस गमाओल, दिवस दिवस करि मासा
मास-मास करि बरस गमाओल, छोड़ लूँ जीवन आसा
बरस-बरस कर समय गमाओल, खोल लूं कानुक आसे
हिमकर-किरन नलिनी जदि जारन, कि कर्ण माधव मासे

इस प्रकार कृष्ण भक्त कवियों ने प्रेम की सभी अवस्थाओं भाव-दशाओं का सफलतापूर्वक चित्रण किया है

5. भक्ति भावना

यदि भक्त भावना के विषय में बात करें तो कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास , कुंमंदास मीरा का नाम उल्लेखनीय है । सूरदासजी ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा ग्रहण कर लेने के पूर्व प्रथम रूप में भक्ति भावना की व्यंजना की है

नाथ जू अब कै मोहि उबारो
पतित में विख्यात पतित हौं पावन नाम विहारो।।

सूर के भक्ति काव्य में अलौकिकता और लौकितता , रागात्मकता और बौद्धिकता , माधुर्य और वात्सल्य सब मिलकर एकाकार हो गए हैं

भगवान् कृष्ण के अनन्य भक्ति होने के नाते उनके मन से से सच्चे भाव निकलते हैं उन्होंने ही भ्रमरनी परम्परा को नए रूप में प्रस्तुत किया भक्त शोरोमणि सूर ने इसमे सगुणोपासना का चित्रण , ह्रदय की अनुभूति के आधार पर किया है

अंत में गोपियों अपनी आस्था के बल पर निर्गुण की उपासना का खंडन कर देती हैं

उधौ मन नाहिं भए दस-बीस
एक हुतो सो गयो श्याम संग
को आराधै ईश

मीराबाई कृष्ण को अपने प्रेमी ही नही , अपितु पति के रूप में भी स्मरण करती है वे मानती है कि वे जन्म जन्म से ही कृष्ण की प्रेयसी पत्नी रही हैं वे प्रिय के प्रति आत्म निवेदन उपालंभ के रूप में प्रणय वेदना की अभिव्यक्ति करती है

देखो सईयां हरि मन काठ कियो
आवन कह गयो अजहूं आयो, करि करि गयो
खान-पान सुध-बुध सब बिसरी कैसे करि मैं जियो
वचन तुम्हार तुमहीं बिसरै, मन मेरों हर लियो
मीरां कहे प्रभु गिरधर नागर, तुम बिन फारत हियो

भक्ति काव्य के क्षेत्र में मीरा सगुण निर्गुण श्रद्धा प्रेम , भक्ति रहस्यवाद के अन्तर को भरते हुए, माधुर्य भाव को अपनाती है उन्हें तो अपने सांवरियां का ध्यान कराने में , उनको ह्रदय की रागिनी सुनाने उनके सम्मुख नृत्य करने में ही आनंद आता है

आली रे मेरे नैणां बाण पड़ीं
चित चढ़ी मेरे माधुरी मुरल उर बिच आन अड़ी
कब की ठाढ़ी पंछ निहारूं अपने भवन खड़ी

6. ब्रज भाषा अन्य भाषाओं का प्रयोग

अनेक कवियों ने निःसंकोच कृष्ण की जन्मभूमि में प्रचलित ब्रज भाषा को ही अपने काव्य में प्रयुक्त किया। सूरदास नंददास जैसे कवियों ने भाषा के रूप को इतना निखार दिया कि कुछ समय बाद यह समस्त उत्तरी भारत की साहित्यिक भाषा बन गई।

यद्यपि ब्रज भाषा के अतिरिक्त कवियों ने अपनी-अपनी मातृ भाषाओं में कृष्ण काव्य की रचना की। विद्यापति ने मैथिली भाषा में अनेक भाव प्रकट किए।

सप्ति हे कतहु देखि मधाई
कांप शरीर धीन नहि मानस, अवधि निअर मेल आई
माधव मास तिथि भयो माधव अवधि कहए पिआ गेल।

मीरा ने राजस्थानी भाषा में अपने भाव प्रकट किए।

रमैया बिन नींद आवै
नींद आवै विरह सतावै, प्रेम की आंच हुलावै।

कृष्ण भक्त प्रमुख कवि


महाकवि सूरदास को कृष्ण भक्त कवियों में सबसे ऊँचा स्थान दिया जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में सूर-सागर”, “साहित्य-लहरी सूर-सारावलीउल्लेखनीय है। कवि कुंभनदास अष्टछाप कवियों में सबसे बड़े थे, इनके सौ के करीब पद संग्रहित हैं, जिनमें इनकी भक्ति भावना का स्पष्ट परिचय मिलता है।

संतन को कहा सींकरी सो काम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सवै वे काम।

इसके अतिरिक्त परमानंद दास, कृष्णदास गोविंद स्वामी, छीतस्वामी चतुर्भुज दास आदि भी अष्टछाप कवियों में आते हैं किंतु कवित्व की दृष्टि से सूरदास सबसे ऊपर हैं।
राधावल्लभ संप्रादय के कवियों में हित-चौरासीबहुत प्रसिद है, जिसे श्री हित हरिवंश जी ने लिखा है। हिंदी के कृष्ण भक्त कवियों में मीरा के अलावा बेलिकिशन रुक्मिनी के रचयिता पृथ्वीराज राठौर का नाम भी उल्लेखनीय है।

कृष्ण भक्ति धारा के कवियों ने अपने काव्य में भावात्मकता को ही प्रधानता दी। संगीत के माधुर्य से मानो उनका काव्य और निखर आया। इनके काव्य का भाव कला पक्ष दोनों ही प्रौढ़ थे तत्कालीन जन ने उनका भरपूर रसास्वादन किया। कृष्ण भक्ति साहित्य ने सैकड़ो वर्षो तक भक्तजनो का हॄदय मुग्ध किया। हिन्दी साहित्य के इतिहास मे कृष्ण की लीलाओ के गान, कृष्ण के प्रति सख्य भावना आदि की दॄष्टि से ही कृष्ण काव्य का महत्व नही है, वरन आगे चलकर राधा कृष्ण को लेकर नायक नायिका भेद, नख शिख वर्णन आदि की जो परम्परा रीतिकाल में चली,  उस के बीज इसी काव्य मे सन्निहित है।रीतिकालीन काव्य मे ब्रजभाषा को जो अंलकॄत और कलात्मक रूप मिला, वह कृष्ण काव्य के कवियों द्वारा भाषा को प्रौढ़ता प्रदान करने के कारण ही संभव हो सका।