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उड़ चल हारिल/Ud Chal Haaril/सच्चिदानंद हीरानंद वास्त्यायन |
उड़ चल हारिल लिए हाथ में, यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किनका !
शक्ति रहे तेरे हाथों में, छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में, रुक न जाय यह गति जीवन की !
ऊपर-ऊपर-ऊपर-ऊपर,
बढ़ा चीर चल दिग्मंडल
अनथक पंखों की चोटों से, नभ में एक मचा दे हलचल !
तिनका तेरे हाथों में है, अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है, विधना के प्राणों का स्पंदन
!
काँप न, यद्यपि दसों दिशा में, तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का, तुझको पथ से हेर रहा है !
तू मिट्टी था, किंतु आज मिट्टी को तूने
बाँध लिया है
तू था सृष्टि किंतु स्रष्टा
का, गुर तूने पहचान लिया है !
मिट्टी निश्चय है यथार्थ, पर क्या जीवन केवल मिट्टी
है ?
तू मिट्टी, पर मिट्टी, से उठने की इच्छा किसने दी
है ?
आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का, तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दंड बना यह तिनका, सूने पथ का एक सहारा !
मिट्टी से जो छीन लिया है, वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला, कर्मवीर का कर्म नहीं है !
तिनका पथ की धूल स्वयंतू, है अनंत की पावन धूली
किंतु आज तूने नभ पथ में, क्षण में बद्ध अमरता छू ली !
उषा जाग उठी प्राची में, आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिए हाथ में, एक अकेला पावन तिनका !
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