मन्त्र-गंध और भाषा


कौन विश्वास करेगा कि

फूल भी मंत्र होता है?

मैं अपने चारों ओर

एक भाषा का अनुभव करता हूँ।

जो ग्रंथों में नहीं होती

पर जिसमें फूलों की-सी गंध

और बिल्वपत्र की-सी पवित्रता है,

इसीलिए मंत्र

केवल ग्रंथों में ही नहीं होते। (1)


धरती को कहीं से छुओ

एक ऋचा की प्रतीति होती है।

देवदारुओं की देह-यष्टि

क्या उपनिषदीय नहीं लगती?

तुम्हें नहीं लगता कि

इन भोजपत्रों में

एक वैदिकता है

जिसका साक्षात् नहीं किया गया है? (2)

 

ये प्रपात

स्तोत्र-पाठ ही तो करते हैं।

यह कैसी वैश्वानरी-गंध

गायत्री-छंदों में

धूप के पग धरती

वनस्पतियों पर उतर रही है

सावित्रियों के इस अरण्य-रास का वर्णन

किसी शतपथ में नहीं मिलेगा।

इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ

जो ग्रंथों में नहीं होती

पर प्रायः जिसे मैंने

एकांत और कोलाहलों में सुना है। (3)

 

रात और दिन के कृष्ण-शुक्ल स्वरों में

ये सूर्याएँ

यजुर्वेद हो जाती हैं।

प्रत्येक क्षण एक मंत्र

वनस्पति में परिणत होता है

जिसकी गंध

फूल मात्र में होती है।

नाम, सीमा का होता है

असीम का नहीं,

तब भला उस गंध को क्या नाम दोगे

जो फूल मात्र में होती है?

हमारी सारी भाषाओं से परे

वह एक साक्षात् है

जो केवल एकांत की मंत्र-गंध होता है

और वह केवल अवतरित होता है।

इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ

जो ग्रंथों में नहीं होती (4)

                    (कवि) नरेश मेहता