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कबीरदास जी के दोहे/संत कबीर /कबीर वाणी /अर्थ सहित व्याख्या |
जो उग्या सो अन्तबै,
फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
भावार्थ: इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
झूठे सुख को सुख कहे,
मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का,
कुछ मुंह में कुछ गोद।
भावार्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
ऐसा कोई ना मिले,
हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता,
कर गहि काढै केस।
भावार्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
संत ना छाडै संतई,
जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया,
तऊ सीतलता न तजंत।
भावार्थ: सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
कबीर तन पंछी भया,
जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर,
सो तैसा ही फल पाइ।
भावार्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
तन को जोगी सब करें,
मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए,
जे मन जोगी होइ।
भावार्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
कबीर सो धन संचे,
जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली,
ले जात न देख्यो कोय।
भावार्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
माया मुई न मन मुआ,
मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई,
यों कही गए कबीर ।
भावार्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
मन हीं मनोरथ छांड़ी
दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे,
तो रूखा खाए न कोई।
भावार्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।
जब मैं था तब हरी
नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया,
दीपक देखा माही ।
भावार्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
कबीर सुता क्या करे,
जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा,
लम्बे पाँव पसारी ।
भावार्थ: कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
आछे दिन पाछे गए हरी
से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या,
चिडिया चुग गई खेत।
भावार्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
रात गंवाई सोय के,
दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा,
कोड़ी बदले जाय ।
भावार्थ: रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली । यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा? सिर्फ एक कौड़ी ही इसकी कीमत बची है।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ
जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं
फल लागे अति दूर ।
भावार्थ: खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं।
हरिया जांणे रूखड़ा,
उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई,
कबहूँ बरसा मेंह।
भावार्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है। सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? भावार्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
झिरमिर-झिरमिर
बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई,
पांहन बोही तेह।
भावार्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे। इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।
कहत सुनत सब दिन गए,
उरझी न सुरझ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं,
अजहूँ सो पहला दिन।
भावार्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है।
इक दिन ऐसा होइगा,
सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति,
सावधान किन होय।
भावार्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा। हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते !
कबीर प्रेम न
चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना,
ज्यूं आया त्यूं जाव।
भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उस अतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।
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