रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ


रीति का अर्थ है : पद्धति । रस, अलंकार, गुण, ध्वनि और नायिका भेद आदि काव्यांगों के विवेचन करते हुए, इनके लक्षण बताते हुए रचे गए काव्य की प्रधानता के कारण इस काल को रीतिकाल कहा गया । रीतिग्रंथों, रीतिकाव्यों तथा अन्य प्रवृत्तियों के कवियों की रचनाओं में भी श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण इस काल को श्रृंगारकाल भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त इस काल को अलंकार काल और कला काल की संज्ञाएँ भी दी गई, लेकिन रीतिकाल नाम ही सर्वाधिक सार्थक और प्रचलित नाम है ।

हिंदी साहित्य में सम्वत् 1700 से 1900 (वर्ष 1643ई. से 1843 ई. तक) का समय रीतिकाल के नाम से जाना जाता है । भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का पूर्व मध्यकाल और रीतिकाल को उत्तर-मध्य काल भी कहा जाता है । भक्ति काल और रीति काल दोनों के काल को हिंदी साहित्य का मध्यकाल कहा जा सकता है ।


रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं ::-

लक्षण ग्रंथों का निर्माण :: रीतिकाल की सर्वप्रमुख विशेषता लक्षण-ग्रंथों का निर्माण है काव्य के किसी एक अंग का लक्षण बता कर उदाहरण के रूप में जो कविता की गई, उन ग्रंथों को लक्षण ग्रंथ कहा गया। यहाँ काव्य-विवेचना अधिक हुई । कवियों ने संस्कृत के लक्षण ग्रंथकार आचार्यों का अनुकरण करते हुए अपनी रचनाओं को लक्षण-ग्रंथों अथवा रीति ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत किया । यद्यपि रीति निरुपण में इन कवियों को विशेष सफलता नहीं मिली । प्राय: इन्होंने संस्कृत-ग्रंथों में दिए गए नियमों और तत्वों का ही हिंदी पद्य में अनुवाद किया है। इनमें मौलिकता और स्पष्टता का अभाव है। 

 

श्रृंगार -चित्रण :: रीतिकाल की दूसरी बड़ी विशेषता श्रृंगार रस की प्रधानता है । इस काल की कविता में नारी केवल पुरुष के रतिभाव का आलम्बन बनकर रह गई । राधा कृष्ण के प्रेम के नाम पर नारी के अंग-प्रत्यंग की शोभा, हाव-भाव, विलास चेष्टाएँ आदि में श्रृंगार का सुंदर और सफल चित्रण हुआ है ,किंतु वियोग वर्णन में कवि-कर्म खिलवाड़ बन कर रह गया है । श्रृंगार के आलंबन और उद्दीपन के बड़े ही सरस उदाहरणों का निर्माण हुआ।

वीर और भक्ति काव्य : रीतिकाल में अपनी पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं वीर और भक्ति के भी दर्शन होते हैं । भूषण का वीर काव्य हिंदी साहित्य की निधि है ।

नीति काव्य : नीति काव्य इस युग की एक नई देन है । इस क्षेत्र में वृन्द के नीति दोहे और गिरधर की कुंडलियाँ तथा दीनदयाल गिरि की अन्योक्तियाँ उल्लेखनीय हैं । 

प्रकृति चित्रण ::- रीतिकाल में प्रकृति-चित्रण उद्दीपन रूप में हुआ है । स्वतंत्र और आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण बहुत कम रूप में हुआ है ।यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि दरबारी कवि का, जिसका आकर्षण केन्द्र नारी ही था, ध्यान प्रकृति के स्वतंत्र रूप की ओर जा ही कैसे सकता था । इनके काव्य में प्रकृति का बिम्बग्राही रूप नहीं मिलता । प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण भी परम्परागत है । फिर भी सेनापति का प्रकृति-चित्रण प्रशंसनीय है 

ब्रजभाषा का उत्कर्ष :: यह काल ब्रजभाषा का स्वर्णयुग रहा । भाषा में वर्णमैत्री, अनुप्रासत्ज, ध्वन्यात्मकता, शब्दसंगीत आदि का पूरा निर्वाह किया गया है । भाषा की मधुरता के कारण मुसलमान कवियों का भी इस ओर ध्यान गया । इसमें अवधी, बुन्देलखंडी, फारसी के शब्दों को मिलाया गया और कवि ने अपने भावानुकूल बनाने के लिए इसके शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा । यह शक्ति भूषण और देव में विशेष रूप से थी । कोमल कांत पदावली में देव और पद्माकर ने तुलसी को पीछे छोड़ दिया है । लेकिन भाषा को अत्यधिक कोमल तथा चमत्कारिक बनाने के कारण उसमें कई दोष भी आ गए । 

आलंकारिकता :: रीतिकाव्य की एक अन्य प्रधान प्रवृत्ति आलंकारिकता है । इसका कारण राजदरबारों का विलासी वातावरण तथा जन-साधारण की रुचि थी । कवि को अपनी कविता भड़कीले रंगों में रंगनी पड़ती थी । बहुत सारे कवियों ने अलंकारों के लक्षण उदाहरण दिए, लेकिन बहुतों ने केवल उदाहरण ही लिखे,जबकि उनके मन में लक्षण विद्यमान थे । अलंकारों का इतना अधिक प्रयोग हुआ कि वह साधन न रहकर साध्य बन गए , जिससे काव्य का सौंदर्य बढ़ने की अपेक्षा कम ही हुआ । कभी-कभी केवल अलंकार ही अलंकार स्पष्ट होते हैं और कवि का अभिप्रेत अर्थ उसी चमत्कार में खो जाता है । यह दोष रीतिकालीन काव्यों में प्राय: दिखाई पड़ता है । केशव को इसी कारण कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है ।

काव्य-रूप :: रीति काल में मुक्तक-काव्य रूप को प्रधानता मिली । राजाओं की कामक्रिडा और काम-वासना को उत्तेजित करने एवं उनकी मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिस कविता का आश्रय लिया गया, वह मुक्तक ही रही । अत: इस काल में कवित्त और सवैयों की प्रधानता रही । कवित्त का प्रयोग वीर और श्रृंगार रसों में तथा सवैयों का श्रृंगार रस में हुआ । बिहारी ने दोहा छंद के सीमित शब्दों में अधिक अर्थ व्यक्त करने की कला को विकसित किया । काव्यांगों के लक्षण प्राय: दोहों में ही लिखे जाते थे । कभी-कभी उदाहरण भी दोहों में दिए गए । वैसे भी, धैर्य तथा एक-रसता के अभाव में प्रबंध-काव्य का सृजन असम्भव था । फिर भी, कुछ अच्छे प्रबंध-काव्य लिखे गए । जैसे गुरु गोविन्द सिंह का चंडी-चरित्र, पद्माकर का हिम्मत बहादुर विरुदावली, लालकवि का छत्र-प्रकाश आदि ।