मीरा बाई का जीवन - परिचय(Meerabai ka jivan parichay/Mirabai jivan parichay)



मीराबाई के जन्म से सम्बंधित कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके जन्म वर्ष, जन्म स्थान को लेकर विद्वानों के बीच मतांतर है। लोक प्रचलित कहानियों, साहित्य तथा अन्य स्रोतों के मंथन से उनके जीवन से जुड़ी कहानी तथा प्रचलित ज्ञात तथ्यों के आधार पर मीराबाई का जन्म, राजस्थान के मेड़ता में सन 1503 ईस्वी के आसपास बताया  जाता है। उनका जन्म राजपरिवार में राव दुदाजी के वंश में हुआ था। मीरा बाई के पिता रतन सिंह राठौड़ एक छोटे सी रियासत के शासक थे।

बचपन में ही मीराबाई के माता की मृत्यु हो गयी। मीराबाई अपने पिता की इकलौती संतान थी। कहते हैं की उनका पालन-पोषण उनके दादा के सनिध्य में हुआ।

उनके दादा जी भगवान विष्णु के परम भक्त थे। इस कारण साधु-महात्माओं का उनके घर पर आना-जाना लगा रहता था। आगे चलकर इस भक्ति भावना का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा।

मीरा बाई का विवाह

मीराबाई की उम्र जब मात्र तेरह साल की थी तब उनका विवाह कर दिया गया। उनका विवाह सन 1516 ईस्वी  में उदयपुर के राजा महाराणा सांगा के युवराज भोजराज से सम्पन्न हुआ।

सन 1518 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष में राजकुमार भोजराज घायल हो गया। इस कारण विवाह के कुछ वर्षों के बाद सन 1521 ईस्वी में उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार मीरा अल्पायु में ही विधवा हो गयी।

इस विपत्ति की घड़ी में वे भगवान श्री कृष्ण की ओर उन्मुख हुई। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बनाया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गयी। धीरे-धीरे इस मिथ्या जगत से उन्हें विरक्त हो गयीं और उन्होंने अपना सारा समय कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया।

संसार से विरक्ति

कहते हैं की उस बक्त सती प्रथा प्रचलित थी और पति की मृत्यु होने पर पत्नी को भी पति के साथ आग में जलना पड़ता था। मीरा को भी सती करने की कोशि की गयी। लेकिन वह तैयार नही हुईं। धीरे-धीरे उन्हें इस मिथ्या जगत से विरक्त हो गयीं।

उनका अधिकांश समय साधु-संतों की संगति में भजन में व्यतीत करने लगीं। मीराबाई मंदिरों में जाकर कृष्ण के भजन गाती तथा कृष्ण भक्ति में लीन हो जाती। वे परिवार के लोक-लाज को दरकिनार कर कृष्ण की मूर्ति के सामने भक्तिमद में चूर हो नाचने लगती।

यद्यपि तत्कालीन भारतीय समाज में मीराबाई का विद्रोही स्वभाव, कृष्ण भक्ति के तरीके किसी राजघराने की महिला और एक विधवा के लिए बने परंपरागत नियमों के प्रतिकूल माने जाते थे। लेकिन मीरा तो कृष्ण की दीवानी हो चुकी थी।

मीराबाई का कृष्ण-भक्ति में इस तरह से नाचना, गाना उनके ससुराल वालों को अच्छा नहीं लगा। उनके ससुराल के लोग मीराबाई की इस तरह की कृष्ण भक्ति को राजघराने के प्रतिकूल माना। उन्हें तरह-तरह से सताये जाने लगा।

उन्हें बिषधर साँप से कटवाकर मारने की कोशि की गयी तथा उनके खाने में जहर मिला दिया गया। लेकिन कृष्ण प्रेम की दीवानी मीरा पर इसका कुछ असर नहीं हुआ। उनकी कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी।

ससुराल में सताये जाने के कारण वे अपने मायके मेड़ता चल गयी। सन्‌ 1538 में राव मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया और मेड़ता का पतन हो गया।

तीर्थ यात्रा पर निकलना -

मेड़ता के पतन के बाद मीरा ने गृह त्याग कर तीर्थ यात्रा पर निकल गयी। सन्‌ 1539 में वे वृंदावन आ गयी जहॉं उनकी मुलाकात रूप-गोस्वामी से हुई। मीराबाई ने कुछ वर्ष वृंदावन में ही रहकर कृष्ण भक्ति की।

उसके बाद वे सन्‌ 1546 ईस्वी के आस-पास गुजरात में भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका चली गईं। वहाँ मीरा अपना सारा समय कृष्ण भक्ति, साधु संतों के साथ भजन और भक्ति पदों की रचना में व्यतीत करने लगी।

मीराबाई का निधन –

कहते हैं कि बहुत दिन तक वृन्दावन में समय गुजारने के बाद वे द्वारिका चली गईं। कविदंती है कि द्वारिका जाकर वे भगवान कृष्ण का भजन करते हुए सन 1560 ईस्वी में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समाहित हो  गईं।

मीराबाई की रचनाएँ -

भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान में रचित सैकड़ों भजन को मीराबाई के साथ जोड़ा देखा जाता है। लेकिन विद्वानों का मत इससे अलग है। ज्यादातर विद्वानों का मत है कि मीराबाई ने इनमें से कुछ भजनों की ही रचना की थी। बाकी की रचनायें उनके प्रसंशकों द्वारा रचित जान पड़ती है। मीरा बाई ने ब्रजभाषा और राजस्थानी में स्फुट पद की ही रचना की।

मीरा बाई के पदों की संख्या दो सौ से पाँच सौ के बीच मानी जाती है। मीरा बाई की रचना में माधुर्य भाव की प्रधानता दिखती हैं। उन्होंने कृष्ण की भक्ति प्रीतम और पति के रूप में की और हमेशा उन्हें पाने की कामना की।

 

कुछ विद्वान के अनुसार मीरा बाई के चार प्रमुख रचना मानी जाती है।

1.   गीतगोविंद टीका,

2.   राग गोविंद,

3.   राग सोरठ

4.   नरसी का मायरा।