झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति
है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करैं, कल कंठ बनी जलजावलि
द्वै।
अंग अंग तरंग उठै दुति की, परिहे मनौ रूप अबै
धर च्वै।1।
हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो
अकुलानि समानै।
नीर सनेही कों लाय कलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जानै।2।
मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।
दीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौं घनआनंद जीवनमूल दई ! कित प्यासनि मारत मोही।3।
क्यों हँसि हेरि हियरा अरू क्यौं हित
कै चित चाह बढ़ाई।
काहे कौं बालि सुधासने बैननि चैननि मैननि सैन चढ़ाई।
सौ सुधि मो हिय मैं घन-आनँद सालति क्यौं हूँ कढ़ै न कढ़ाई।
मीत सुजान अनीत की पाटी इते पै न जानियै कौनै पढ़ाई।4।
तब तौ छबि पीवत जीवत है अब सोचन लोचन
जात जरे।
हित-पोष के तोष सुप्राण पले बिललात महादुख दोष भरे।
‘घनआनन्द’ मीत सुजान बिना सबही सुखसाज समाज टरे।
तब हार पहाड़ से लागत है अब आनि के बीच पहार परे।5।
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों
फिरि तेहिकै तोरियै जू।
निरधार अधार है झार मंझार दई, गहि बाँह न
बोरिये जू।
‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू ।
रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू।6।
रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै॥
एक ही जीव हुतौ सु तौ वार्यौ, सुजान, संकोच औ सोच सहारियै।
रोकौ रहै न, दहै घनआनंद बावरी रीझि के हाथन हारियै।7।
अंतर उदेग दाह, आंखिन प्रवाह आँसू,
देखी अट पटी चाह भी जनि दहनि है।
खोय खोय आपुही में चेटक लहनि है।
जान प्यारे प्राननिबसत पै अनंद धन,
बिरह बिसम दसा मूक लौं कहनि है।
जीवन-मरन, जीवन-मीच बिना बन्यौं आय,
हाय कौंन विधि रची नेही की रहनि है।8।
नेह निधान सुजान समीप तौ सींचति ही हियरा सियराई।
सोई किधौ अब और भई, दई हेरति ही मति जाति हिराई।
है विपरीत
महा घनआनंद, अंबर ते धर को झरआई।
जारत अंग अनंग की आंचनि, जोन्ह नहीं सु नई अगिलाई।9।
नैनन में लागै जाए, जागै सु करेजे बीच,
या बस ह्वै जीव धीर होत लोट-पोट है।
रोम-रोम पूरि पीर, व्याकुल सरीर महा,
घूमै मति गति आसै, प्यास की न टोट है।
चलत सजीवन सुजाग-दृग हाथन ते,
प्यारी अनियारी रुचि रखवारी ओट है।
जब-जब आवै, तब-तब अति मन भाव,
अहा ! कहां
विषम कटाछ-सर-चोट है।10।
कंत रमै उर अंतर में, सु लहै नहीं क्यों सुख रासि निरंतर।
दंत रहै गहे आंगुरी ते, जु बियोग के तेह तचे पर परतंतर।
जो दुख देखति हौं घनआनंद,
रैन-दिना बिन जान सुतंतर।
जानै वेई दिनराति, बखाने ते जाए परै दिन-रात को अंतर।11।
चंदा चकोर
की चाह करै, घनआनंद स्वाति पपीहा कौ धावै।
त्यों त्रसरैनि के ऐन बसै रवि, मीन पै दीन द्वै सागर आवै।
मों सों तुम्हैं, सुनौ जान कृपानिधि! नेह निबाहिबों यो छवि पावै।
ज्यों अपनी रुचि रांचि कुबेर सो रंकहि निज अंक बसावै।12।
ज्यों बुधि सों सुघराई रचे कोऊ, सारदा कौं कविताई सिखावै।
मूरतिवंत महालछ्मी-उर पोत-हरा रचि लै पहिरावै।
राग-वधू-चित-चोरन के हित सोधि सुधारि कै तानहि गांवै।
त्यों ही सुजान तियै घनआनंद मो-जिय-बौराई-रीति रिझावै ।13।
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