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बिरसा मुंडा का जीवन परिचय | Birsa Munda ka jivan parichay |
बिरसा मुंडा का जीवन परिचय | Birsa Munda ka jivan parichay
’धरती आबा’ यानी पृथ्वी के पिता के नाम से जाने
वाले आदिवासी जनजीवन के मसीहा एवं भगवानतुल्य बिरसा मुंडा का 146वां जन्मोत्सव ’जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। बिरसा मुंडा ने न केवल अपनी प्रकृति,
जंगल, जमीन की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी
बल्कि आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रिटिश शासन के दौरान
उन्होंने 19वीं शताब्दी में आदिवासी बेल्ट में बंगाल
प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया।
उन्होंने अपने अनूठे कार्यों, अवदानों एवं व्यापक सोच से
राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान किया, कठोर
संघर्षों से लोहा लिया। बिरसा मुंडा एक युगांतरकारी शख्सियत थे, उन्होंने आदिवासी जनजीवन के कल्याण एवं उत्थान के लिये बिहार,
झारखंड और ओडिशा में जननायक की पहचान बनाई। वे महान् धर्मनायक थे,
तो प्रभावी समाज-सुधारक थे। वे राष्ट्रनायक थे तो जन-जन की आस्था
के केन्द्र भी थे। सामाजिक न्याय, आदिवासी संस्कृति एवं
राष्ट्रीय आन्दोलन में उनके अनूठे एवं विलक्षण योगदान के लिये न केवल आदिवासी
जनजीवन बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति सदा उनकी ऋणी रहेगी।
बिरसा मुंडा एक आदिवासी नायक हैं
भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे आदिवासी नायक
हैं जिन्होंने झारखंड में अपने क्रांतिकारी विचारों से उन्नीसवीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का
सूत्रपात किया। अंग्रेजों द्वारा थोपे गए काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर
ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के
धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था
के मामले में भटका हुआ है। यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने
आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। बिरसा जानते थे कि आदिवासी
समाज में शिक्षा का अभाव है, गरीबी है, अंधविश्वास है। बलि प्रथा पर भरोसा
है, हड़िया कमजोरी है, मांस-मछली
पसंद करते हैं। समाज बंटा है, लोगों के झांसे में आ जाते
हैं। धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं, तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं। इन समस्याओं के समाधान के
बिना आदिवासी समाज का भला नहीं हो सकता इसलिए उन्होंने एक बेहतर नायक और समाज
सुधारक की भूमिका अदा की। अंग्रेजों और शोषकों के खिलाफ संघर्ष भी जारी रखा।
उन्हें पता था कि बिना धर्म के सबको साथ लेकर चलना आसान नहीं होगा। इसलिए बिरसा ने
सभी धर्मो की अच्छाइयों से कुछ न कुछ निकाला और अपने अनुयायियों को उसका पालन करने
के लिए प्रेरित किया।
बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’
आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से आज तक
चला आ रहा है। 1766 के
पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के गदर के बाद भी आदिवासी
संघर्षरत रहे। सन् 1895 से 1900 तक
बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से
बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे। 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और
राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी। उन्होंने
सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें
वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर
लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी
अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए
महासंग्राम था। हालात तो आज भी नहीं बदले हैं, आज भी
आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं।
जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं। आजादी के सात
दशकों के बाद भी आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं।
सब कुछ वही है। जो नहीं है तो आदिवासियों के ‘भगवान’
बिरसा मुंडा।
बिरसा मुंडा का जन्म
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के
उलिहतु गाँव में हुआ था। उनके पिता, चाचा, ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। बिरसा के पिता सुगना मुंडा
जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे। बिरसा का बचपन अपने घर में, ननिहाल में और मौसी की ससुराल में बकरियों को चराते हुए बीता। बाद में
उन्होंने कुछ दिन तक चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। परन्तु
स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी पादरियों का और उनके धर्म
का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। फिर क्या था। ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल
से निकाल दिया।
लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे
बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया। उनका स्वामी
आनन्द पाण्डे से सम्पर्क हो गया और उन्हें हिन्दू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का
परिचय मिला। यह कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनके कारण
लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा
के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। वर्तमान भारत में रांची और सिंहभूमि
के आदिवासी बिरसा मुंडा को अब ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते हैं। मुंडा आदिवासियों को अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध
खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था। 19वीं
सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे।
उनके अतुलनीय अवदानों की पावन स्मृति करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन
की बात कार्यक्रम में कहा कि मुंडाजी के बहुमूल्य योगदान ने मुझे प्रकृति और
पर्यावरण से प्यार करने में मदद की है। मुंडाजी कई लोगों के लिए प्रेरणा हैं। देश
के स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी समुदाय के योगदान के बारे में जितना अधिक
जानेंगे, उतना ही इस पर गर्व महसूस करेंगे।’ सचमुच बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। उन्होंने सबसे अधिक
बल अपनी संस्कृति एवं संस्कारों पर दिया, वे समानता एवं
नैतिक आचरण के हिमायती थे। लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह
दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी
से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने
पुराने धर्म में लौटने लगे।
बिरसा मुंडा ने किसानों को संघर्ष की प्रेरणा दी
बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले जमींदारों
के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भी लोगों को दी। उनका संघर्ष एक ऐसी व्यवस्था से था, जो किसानी समाज के मूल्यों और
नैतिकताओं का विरोधी था। जो किसानी समाज को लूट कर अपने व्यापारिक और औद्योगिक
पूंजी का विस्तार करना चाहता था। यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें लोगों की भीड़
जमा करने से रोका। बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा
हूँ। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। शीघ्र ही वे फिर गिरफ्तार करके
दो वर्ष के लिए हजारीबाग जेल में डाल दिये गये। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ
छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे। परन्तु बिरसा कहाँ मानने वाले थे। छूटने
के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों के दो दल बनाए। एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने
लगा और दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा। नए युवक भी भर्ती किये गए। इस पर सरकार ने
फिर उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकाला, किन्तु बिरसा मुंडा
पकड़ में नहीं आये। इस बार का आन्दोलन बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार के उद्देश्य को
लेकर आगे बढ़ा। यूरोपीय अधिकारियों और पादरियों को हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के
नेतृत्व में नये राज्य की स्थापना का निश्चय किया गया।
बिरसा की मृत्यु
जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे
मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के
कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर जेल
में डाल दिया। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण 9 जून 1900 को बिरसा की मृत्यु हो गई। लेकिन लोक
गीतों और जातीय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं। आजादी के बाद हमने बिरसा
मुंडा की शहादत को तो याद रखा, लेकिन हम उनके मूल्यों से
दूर होते गये। हमारी सत्ताएं उसी व्यवस्था की पोषक होती गयीं, जिनके विरुद्ध उन्होंने लड़ाई लड़ी। उनकी जन्म जयन्ती मनाना तभी सार्थक
होगा, जब हम उन्हें केवल पूजा का पात्र न बनाकर कर जीवन
का हिस्सा बनाये एवं उनके बताये मार्ग पर चले।
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