Shirish ke phool/ncert-solutions-class-12-hindi-core-gadhy-bhag-shirish-ke-ful/शिरीष के फूल/हजारी प्रसाद द्विवेदी/Hazari Prasad Diwedi ke nibandh
शिरीष के फूल
- हजारी प्रसाद द्विवेदी
जहाँ बैठके यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्घूम अग्निकुण्ड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गर्मी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आसपास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसन्त ऋतु के पलाश की भाँति।
कबीरदास को इस तरह पन्द्रह दिन के लिए लहक उठना पसन्द नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़- ‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास’! ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसन्त के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक तो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मन्त्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितान्त ठूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं।
शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत का रईस, जिन मंगल-जनक वृक्षों को अपनी वृक्ष-वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाया करता था, उनमें एक शिरीष भी है (वृहत्संहिता,५५१३) अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष के छायादार और घनमसृण हरीतिमा से परिवेष्टित वृक्ष-वाटिका जरूर बड़ी मनोहर दिखती होगी। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में बताया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेंखा दोला) लगाया जाना चाहिए। यद्यपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्या बुरा है! डाल इसकी अपेक्षाकृत कमजोर जरूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वजन भी तो बहुत ज्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुन्दिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें !
शिरीष का फूल संस्कृत-साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू-शुरू में प्रचारित की होगी।
उनका इस पुष्प पर कुछ पक्षपात था (मेरा भी है)। कह गये हैं, शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिल्कुल नहीं- ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः पतत्रिणाम्।’ अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ? सिर्फ विरोध करने की हिम्मत न होती तो भी कुछ कम बुरा नहीं था, यहाँ तो इच्छा भी नहीं है। खैर, मैं दूसरी बात कह रहा था। शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है ! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नये फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नये फल-पत्ते मिलकर धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसन्त के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्रसे मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत् के अतिपरिचित और अति प्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगायी थी- ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरन्त प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरन्तर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जायेंगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किये रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हिजरत न-जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमण्डल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तन्तुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक।
कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किये-कराये का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? कहते हैं कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने गर्वपूर्वक कहा था कि एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास। एक ने वेदों को दिया, दूसरे ने रामायण को और तीसरे ने महाभारत को। इनके अतिरिक्त और कोई यदि कवि होने का दावा करें तो मैं कर्णाट-राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ- "तेषां मूर्ध्नि ददामि वामचरणं कर्णाट-राजप्रिया!" मैं जानता हूँ कि इस उपालम्भ से दुनिया का कोई कवि हारा नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं कि कोई लजाये नहीं तो उसे डाँटा भी न जाय। मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो। शिरीष की मस्ती की ओर देखो।
लेकिन अनुभव ने मुझे बताया है कि कोई किसी की सुनता नहीं। मरने दो!
कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध-प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छन्द बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छन्द बना लेते थे- तुक भी जोड़ ही सकते होंगे- इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दसवेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदससाद्या!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुन्तला बहुत सुन्दर थी। सुन्दर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुन्दर हृदय से वह सौन्दर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुन्तला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यन्त भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुन्तला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुन्तला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गये हैं, जिसके केसर गण्डस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चन्द्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
कृतं न कर्णापितबन्धनं सखे
शिरीषमागण्डविलम्बिकेसरम्।
न वा शरच्चन्द्रमरीविकोमलं
मृणालसूत्रं रचितं स्तनान्तरे।।
कालिदास ने यह श्लोक न लिख दिया होता तो मैं समझता कि वे भी बस और कवियों की भाँति कवि थे, सौन्दर्य पर मुग्ध, दुख से अभिभूत, सुख से गद्गद! पर कालिदास सौन्दर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृषीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदण्ड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान् थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिन्दी कवि सुमित्रानन्दन पन्त में है। कविवर रवीन्द्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा है- ‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, वह चाह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गन्तव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’ फूल हो या पेड़, वह अपने-आपमें समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन- धूप, वर्षा, आँधी, लू- अपने-आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवण्डर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है ? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों सम्भव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गाँधी भी वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब तब हूक उठती- हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न
निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1:
जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निधूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़-‘दिन दस फूला फूलिके, खंखड़ भया पलास!’ ऐसे दुमदारों से तो लैंडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है।
प्रश्न:
- लेखक कहाँ बैठकर लिख रहा है? वहाँ कैसा वातावरण हैं?
- लेखक शिरीष के फूल की क्या विशेषता बताता हैं?
- कबीरदास को कौन-से फूल पसंद नहीं थे तथा क्यों?
- शिरीष किस ऋतु में लहकता है ?
उत्तर –
- लेखक शिरीष के पेड़ों के समूह के बीच में बैठकर लिख रहा है। इस समय जेठ माह की जलाने वाली धूप पड़ रही है तथा सारी धरती अग्निकुंड की भाँति बनी हुई है।
- शिरीष के फूल की यह विशेषता है कि भयंकर गरमी में जहाँ अधिकतर फूल खिल नहीं पाते, वहाँ शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा होता है। ये फूल लंबे समय तक रहते हैं।
- कबीरदास को पलास (ढाक) के फूल पसंद नहीं थे क्योंकि वे पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलते हैं तथा फिर खंखड़ हो जाते हैं। उनमें जीवन-शक्ति कम होती है। कबीरदास को अल्पायु वाले कमजोर फूल पसंद नहीं थे।
- शिरीष वसंत ऋतु आने पर लहक उठता है तथा आषाढ़ के महीने से इसमें पूर्ण मस्ती होती है। कभी-कभी वह उमस भरे भादों मास तक भी फूलता है।
प्रश्न 2:
मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्धात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत दूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं।
प्रश्न:
- अवधूत किसे कहते हैं? शिरीष को कालजयी अवधूत क्यों कहा गया हैं?
- ‘नितांत ठूँठ’ से यहाँ क्या तात्पर्य है? लेखक स्वयं को नितांत ठूँठ क्यों नहीं मानता ?
- शिरीष जीवन की अजेयता का मत्र कैसे प्रचारित करता रहता है?
- आशय स्पष्ट कीजिए-‘मन रम गया तो भरे भादों में भी निधति फूलता रहता है।”
उत्तर –
- ‘अवधूत’ वह है जो सांसारिक मोहमाया से ऊपर होता है। वह संन्यासी होता है। लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है क्योंकि वह कठिन परिस्थितियों में भी फलता-फूलता रहता है। भयंकर गरमी, लू, उमस आदि में भी शिरीष का पेड़ फूलों से लदा हुआ मिलता है।
- ‘नितांत ढूँठ’ का अर्थ है-रसहीन होना। लेखक स्वयं को प्रकृति-प्रेमी व भावुक मानता है। उसका मन भी शिरीष के फूलों को देखकर तरंगित होता है।
- शिरीष के पेड़ पर फूल भयंकर गरमी में आते हैं तथा लंबे समय तक रहते हैं। उमस में मानव बेचैन हो जाता है तथा लू से शुष्कता आती है। ऐसे समय में भी शिरीष के पेड़ पर फूल रहते हैं। इस प्रकार वह अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचारित करता है।
- इसका अर्थ यह है कि शिरीष के पेड़ वसंत ऋतु में फूलों से लद जाते हैं तथा आषाढ़ तक मस्त रहते हैं। आगे मौसम की स्थिति में बड़ा फेर-बदल न हो तो भादों की उमस व गरमी में भी ये फूलों से लदे रहते हैं।
प्रश्न 3:
शिरीष के फूले की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
प्रश्न:
- शिरीष के नए फल और पत्तों का पुराने फलों के प्रति व्यवहार संसार में किस रूप में देखने को मिलता हैं?
- किसे आधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा गया है ? उनकी समझ में क्या भूल थी ?
- शिरीष के फूलों और फलों के स्वभाव में क्या अंतर हैं?
- शिरीष के फूलों और आधुनिक नेताओं के स्वभाव में लेखक को क्या समय दिखाई पड़ता है ?
उत्तर –
- शिरीष के नए फल व पत्ते नवीनता के परिचायक हैं तथा पुराने फल प्राचीनता के। नयी पीढ़ी प्राचीन रूढ़िवादिता को धकेलकर नव-निर्माण करती है। यही संसार का नियम है।
- कालिदास को आधार मानकर बाद के कवियों को ‘परवर्ती’ कहा गया है। उन्होंने भी भूल से शिरीष के फूलों को कोमल मान लिया।
- शिरीष के फूल बेहद कोमल होते हैं, जबकि फल अत्यधिक मजबूत होते हैं। वे तभी अपना स्थान छोड़ते हैं जब नए फल और पत्ते मिलकर उन्हें धकियाकर बाहर नहीं निकाल देते।
- लेखक को शिरीष के फलों व आधुनिक नेताओं के स्वभाव में अडिगता तथा कुर्सी के मोह की समानता दिखाई पड़ती है। ये दोनों तभी स्थान छोड़ते हैं जब उन्हें धकियाया जाता है।
प्रश्न 4:
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-‘धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊध्र्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!
प्रश्न:
- जीवन का सत्य क्या हैं?
- शिरीष के फूलों को देखकर लेखक क्या कहता हैं?
- महाकाल के कोड़े चलाने से क्या अभिप्राय हैं?
- मुर्ख व्यक्ति क्या समझते हैं ?
उत्तर –
- जीवन का सत्य है-वृद्धावस्था व मृत्यु। ये दोनों जगत के अतिपरिचित व अतिप्रामाणिक सत्य हैं। इनसे कोई बच नहीं सकता।
- शिरीष के फूलों को देखकर लेखक कहता है कि इन्हें फूलते ही यह समझ लेना चाहिए कि झड़ना निश्चित है।
- इसका अर्थ यह है कि यमराज निरंतर कोड़े बरसा रहा है। समय-समय पर मनुष्य को कष्ट मिलते रहते हैं, फिर भी मनुष्य जीना चाहता है।
- मूर्ख व्यक्ति समझते हैं कि वे जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो मृत्यु से बच जाएँगे। वे समय को धोखा देने की कोशिश करते हैं।
प्रश्न 5:
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवाह, पर सरस और मादक। कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?
प्रश्न:
- लेखक ने शिरीष को क्या संज्ञा दी है तथा क्यों ?
- ‘अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं?”-आशय स्पष्ट कीजिए।
- कबीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की है ?
- कबीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की हैं?
उत्तर –
- लेखक ने शिरीष को ‘अवधूत’ की संज्ञा दी है क्योंकि शिरीष भी कठिन परिस्थितियों में मस्ती से जीता है। उसे संसार में किसी से मोह नहीं है।
- लेखक कहता है कि अवधूत जटिल परिस्थितियों में रहता है। फक्कड़पन, मस्ती व अनासक्ति के कारण ही वह सरस रचना कर सकता है।
- कालिदास को लेखक ने ‘अनासक्त योगी’ कहा है। उन्होंने ‘मेघदूत’ जैसे सरस महाकाव्य की रचना की है। बाहरी सुख-दुख से दूर होने वाला व्यक्ति ही ऐसी रचना कर सकता है।
- कबीरदास शिरीष के समान मस्त, फक्कड़ व सरस थे। इसी कारण उन्होंने संसार को सरस रचनाएँ दीं।
प्रश्न 6:
कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, वे मजाक व अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते! पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवय: कवय: कवयस्ते कालिदासाद्द्या!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी।
विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंलता के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
प्रश्न:
- लेखक कालिदास को श्रेष्ट कवी क्यों मानता है ?
- आम कवि व कालिदास में क्या अंतर हैं?
- ‘शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी”-आशय स्पष्ट करें।
- दुष्यंत के खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया ?
उत्तर –
- लेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है क्योंकि कालिदास के शब्दों व अर्थों में सामंजस्य है। वे अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञता व विदग्ध प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुण आवश्यक है।
- ओम कवि शब्दों की लय, तुक व छंद से संतुष्ट होता है, परंतु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं देता है। हालाँकि स्रकालिदास कविता के बाहरी तत्वों में विशेषज्ञ तो थे ही, वे विषय में डूबकर लिखते थे।
- लेखक का मानना है कि शकुंतला सुंदर थी, परंतु देखने वाले की दृष्टि में सौंदर्यबोध होना बहुत जरूरी है। कालिदास की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही शकुंतला का सौंदर्य निखरकर आया है। यह कवि की कल्पना का चमत्कार है।
- दुष्यंत ने शकुंतला का चित्र बनाया था, परंतु उन्हें उसमें संपूर्णता नहीं दिखाई दे रही थी। काफी देर बाद उनकी समझ में आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहनाए थे, गले में मृणाल का हार पहनाना भी शेष था।
प्रश्न 7:
कालिदास सौंदर्य के बाहय आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।” फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
प्रश्न:
- कालिदास की सौंदर्य-दूष्टि के बारे में बताइए।
- कालिदास की समानता आधुनिक काल के किन कवियों से दिखाई गाई ?
- रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के सिंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं?
- फूलों या पेड़ों से हमें क्या प्रेरणा मिलती हैं?
उत्तर –
- कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि सूक्ष्म व संपूर्ण थी। वे सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके अंदर के सौंदर्य को प्राप्त करते थे। वे दुख या सुख-दोनों स्थितियों से अपना भाव-रस निकाल लेते थे।
- कालिदास की समानता आधुनिक काल के कवियों सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ टैगोर से दिखाई गई है। इन स में अनासक्त भाव है। तटस्थता के कारण ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।
- रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है कि राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही गगनचुंबी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।
- फूलों या पेड़ों से हमें जीवन की निरंतरता की प्रेरणा मिलती है। कला की कोई सीमा नहीं होती। पुष्प या पेड़ अपने सौंदर्य से यह बताते हैं कि यह सौंदर्य अंतिम नहीं है। इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है।
प्रश्न 8:
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है।
प्रश्न:
-
विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंलता के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
प्रश्न:- लेखक कालिदास को श्रेष्ट कवी क्यों मानता है ?
- आम कवि व कालिदास में क्या अंतर हैं?
- ‘शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी”-आशय स्पष्ट करें।
- दुष्यंत के खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया ?
उत्तर –
- लेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है क्योंकि कालिदास के शब्दों व अर्थों में सामंजस्य है। वे अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञता व विदग्ध प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुण आवश्यक है।
- ओम कवि शब्दों की लय, तुक व छंद से संतुष्ट होता है, परंतु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं देता है। हालाँकि स्रकालिदास कविता के बाहरी तत्वों में विशेषज्ञ तो थे ही, वे विषय में डूबकर लिखते थे।
- लेखक का मानना है कि शकुंतला सुंदर थी, परंतु देखने वाले की दृष्टि में सौंदर्यबोध होना बहुत जरूरी है। कालिदास की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही शकुंतला का सौंदर्य निखरकर आया है। यह कवि की कल्पना का चमत्कार है।
- दुष्यंत ने शकुंतला का चित्र बनाया था, परंतु उन्हें उसमें संपूर्णता नहीं दिखाई दे रही थी। काफी देर बाद उनकी समझ में आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहनाए थे, गले में मृणाल का हार पहनाना भी शेष था।
प्रश्न 7:
कालिदास सौंदर्य के बाहय आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।” फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
प्रश्न:- कालिदास की सौंदर्य-दूष्टि के बारे में बताइए।
- कालिदास की समानता आधुनिक काल के किन कवियों से दिखाई गाई ?
- रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के सिंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं?
- फूलों या पेड़ों से हमें क्या प्रेरणा मिलती हैं?
उत्तर –
- कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि सूक्ष्म व संपूर्ण थी। वे सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके अंदर के सौंदर्य को प्राप्त करते थे। वे दुख या सुख-दोनों स्थितियों से अपना भाव-रस निकाल लेते थे।
- कालिदास की समानता आधुनिक काल के कवियों सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ टैगोर से दिखाई गई है। इन स में अनासक्त भाव है। तटस्थता के कारण ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।
- रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है कि राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही गगनचुंबी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।
- फूलों या पेड़ों से हमें जीवन की निरंतरता की प्रेरणा मिलती है। कला की कोई सीमा नहीं होती। पुष्प या पेड़ अपने सौंदर्य से यह बताते हैं कि यह सौंदर्य अंतिम नहीं है। इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है।
प्रश्न 8:
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है।
प्रश्न:- शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है ? यह वृक्ष लेखक में किस प्रकार की भावना जनता है ?
- चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें क्या प्रेरणा दे रहा हैं?
- गद्यांश में देश के ऊपर के किस बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया हैं?
- अपने देश का एक बूढ़ा कौन था ? ऊसे बूढ़े और शिरीष में समानता का आधार लेखक ने क्या मन है ?
उत्तर –
- अवधूत से तात्पर्य अनासक्त योगी से है। जिस तरह योगी कठिन परिस्थितियों में भी मस्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी, उमस में भी फूला रहता है। यह वृक्ष मनुष्य को हर परिस्थिति में संघर्षशील, जुझारू व सरस बनने की भावना जगाता है।
- चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए तथा हर परिस्थिति में मस्त रहना चाहिए।
- इस गद्यांश में देश के ऊपर से सांप्रदायिक दंगों, खून-खराबा, मार-पीट, लूटपाट रूपी बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है।
- ‘अपने देश का एक बूढ़ा’ महात्मा गांधी है। दोनों में गजब की सहनशक्ति है। दोनों ही कठिन परिस्थितियों में सहज भाव से रहते हैं। इसी कारण दोनों समान हैं।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1:
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है ?अथवा
शिरीष की तुलना किससे और क्यों की गई हैं?
उत्तर –
कालजयी संन्यासी का अर्थ है हर युग में स्थिर और अवस्थित रहना। वह किसी भी युग में विचलित या विगलित नहीं होता। शिरीष भी कालजयी अवधूत है। वसंत के आगमन के साथ ही लहक जाता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से खिला रहता है। जब उमस हो या तेज़ लू चल रही हो तब भी शिरीष खिला रहता है। उस पर उमस या लू का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है इसलिए वह कालजयी अवधूत की तरह है।प्रश्न 2:
“हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती हैं।” प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें?
उत्तर –
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है। मनुष्य को हृदय की कोमलता बचाने के लिए बाहरी तौर पर कठोर बनना पड़ता है तभी वह विपरीत दशाओं का सामना कर पाता है। शिरीष भी भीषण गरमी की लू को सहन करने के लिए बाहर से कठोर स्वभाव अपनाता है तभी वह भयंकर गरमी, लू आदि को सहन कर पाता है। संत कबीरदास, कालिदास ने भी समाज को उच्चकोटि का साहित्य दिया, परंतु बाहरी तौर पर वे सदैव कठोर बने रहे।प्रश्न 3:
द्वविवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है ? स्पष्ट करें?अथवा
द्ववेदी जी ने ‘शिरीष के फूल’ पाठ में ” शिरीष के माध्यम से कोलाहल और संघर्ष से भरे जीवन में अविचल रहकर जिंदा रहने की सिख दी है। ” इस कथन की सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
उत्तर –
लेखक ने कहा है कि शिरीष वास्तव में अद्भुत अवधूत है। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। दुख हो या सुख उसने कभी हार नहीं मानी अर्थात् दोनों ही स्थितियों में वह निर्लिप्त रहा। मौसम आया तो खिल गया वरना नहीं। लेकिन खिलने न खिलने की स्थिति से शिरीष कभी नहीं डरा। प्रकृति के नियम से वह भलीभाँति परिचित था। इसलिए चाहे कोलाहल हो या संघर्ष वह जीने की इच्छा मन में पाले रहता है।प्रश्न 4:
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ हैं!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वचस्व की वतमान सभ्यता के सकट की अोर सकेत किया हैं। कैसे?
उत्तर –
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। आज मनुष्य में आत्मबल का अभाव हो गया है। अवधूत सांसारिक मोहमाया से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति होता है। शिरीष भी कष्टों के बीच फलता-फूलता है। उसका आत्मबल उसे जीने की प्रेरणा देता है। आजकल मनुष्य आत्मबल से हीन होता जा रहा है। वह मानव-मूल्यों को त्यागकर हिंसा, असत्य आदि आसुरी प्रवृत्तियों को अपना रहा है। आज चारों तरफ तनाव का माहौल बन गया है, परंतु गाँधी जैसा अवधूत लापता है। अब ताकत का प्रदर्शन ही प्रमुख हो गया है।प्रश्न 5:
कवी (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का ह्रदय एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत करके लेखक ने साहित्य – कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाए।
उत्तर –
कवि या साहित्यकार के लिए अनासक्त योगी जैसी स्थित प्रज्ञता होनी चाहिए क्योंकि इसी के आधार पर वह निष्पक्ष और सार्थक काव्य (साहित्य) की रचना कर सकता है। वह निष्पक्ष भाव से किसी जाति, लिंग, धर्म या विचारधारा विशेष को प्रश्रय न दे। जो कुछ समाज के लिए उपयोग हो सकता है उसी का चित्रण करे। साथ ही उसमें विदग्ध प्रेमी का-सा हृदय भी होना ज़रूरी है। क्योंकि केवल स्थित प्रज्ञ होकर कालजयी साहित्य नहीं रचा जा सकता। यदि मन में वियोग की विदग्ध हृदय की भावना होगी तो कोमल भाव अपने-आप साहित्य में निरूपित होते जाएंगे, इसलिए दोनों स्थितियों का होना अनिवार्य है।प्रश्न 6:
‘सवग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता हैं, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी हैं?” पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर –
लेखक का मानना है कि काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। समय परिवर्तनशील है। हर युग में नयी-नयी व्यवस्थाएँ जन्म लेती हैं। नएपन के कारण पुराना अप्रासंगिक हो जाता है और धीरे-धीरे वह मुख्य परिदृश्य से हट जाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह बदलती परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को बदल ले। जो मनुष्य सुख-दुख, आशा-निराशा से अनासक्त होकर जीवनयापन करता है व विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेता है, वही दीर्घजीवी होता है। ऐसे व्यक्ति ही प्रगति कर सकते हैं।प्रश्न 7:
आशय स्पष्ट कीजिए –- दुरंत प्राणधारा और सवव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की अख बचा पाएँगे। भोले हैं वे।हिलते-डुलते रहो, स्थान बद्रलते रहो, आगे की ओर मुहं किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि सरे।
- जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया , वह भी क्या कवी है ? …. मैं कहता हूँ कि कवी बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
- फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई आँगुली हैं। वह इशारा हैं।
उत्तर –
- लेखक कहता है कि काल रूप अग्नि और प्राण रूपी धारा का संघर्ष सदा चलता रहता है। मूर्ख व्यक्ति तो यह समझते हैं कि जहाँ टिके हैं वहीं टिके रहें तो मृत्यु से बच जाएंगे लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। यदि स्थान परिवर्तन करते रहे अर्थात् जीने के ढंग को बदलते रहे तो जीवन जीना आसान हो जाता है। जीवन को एक ही ढरें पर चलोओगे तो समझो अपना जीवन नीरस हो गया। नीरस जीवन का अर्थ है मर जाना। अतः गतिशीलता ज़रूरी
- लेखक का मानना है कि कवि बनने के लिए फक्कड़ बनना ज़रूरी है। जिस कवि में निरपेक्ष और अनासक्ति भाव नहीं होते वह श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकता और जो कवि पहले से लिखी चली आ रही परंपरा को ही काव्य में अपनाता है वह भी कवि नहीं है। कबीर फक्कड़ थे, इसलिए कालजयी कवि बन गए। अतः कवि बनना है तो फक्कड़पने को ग्रहण करो।
- लेखक के कहने का आशय है कि अंतिम परिणाम का अर्थ समाप्त होना नहीं है जो यह समझता है वह निरा बुद्धू है। फल हो या पेड़ वह यही बताते हैं कि संघर्ष की प्रक्रिया बहुत लंबी होती है। इसी प्रक्रिया से गुजरकर सफलता रूपी परिणाम मिलते हैं।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1:
शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ मक की प्रचड़ गरमी में फूलने वाले फूल को ‘शीतपुष्प’ की सज्ञा किस आधार पर दी गयी होगी ?
उत्तर –
लेखक ने शिरीष के पुष्प को ‘शीतपुष्प’ कहा है। ज्येष्ठ माह में भयंकर गरमी होती है, इसके बावजूद शिरीष के पुष्प खिले रहते हैं। गरमी की मार झेलकर भी ये पुष्प ठंडे बने रहते हैं। गरमी के मौसम में खिले ये पुष्प दर्शक को ठंडक का अहसास कराते हैं। ये गरमी में भी शीतलता प्रदान करते हैं। इस विशेषता के कारण ही इसे ‘शीतपुष्प’ की संज्ञा दी गई होगी।प्रश्न 2:
कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी जी के व्यक्तित्व की वशेषता बन गए ?
उत्तर –
गांधी जी सदैव अहिंसावादी रहे। दया, धर्म, करुणा, परोपकार, सहिष्णुता आदि भाव उनके व्यक्तित्व की कोमलता को प्रस्तुत करते हैं। वे जीवनभर अहिंसा का संदेश देते रहे लेकिन उनके व्यक्तित्व में कठोर भाव भी थे। कहने का आशय है। कि वे सच्चाई के प्रबल समर्थक थे और जो कोई व्यक्ति उनके सामने झूठ बोलने का प्रयास करता उसका विरोध करते। वे उस पर क्रोध करते। तब वे झूठे व्यक्ति को भला-बुरा भी कहते चाहे वह व्यक्ति कितने ही ऊँचे पद पर क्यों न बैठा हो। उनके लिए सत्य का एक ही मापदंड था दूसरा नहीं। इसी कारण कोमल और कठोर दोनों भाव उनके व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।प्रश्न 3:
आजकल अंतर्राष्टीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत – से किसान सैग – सब्जी व् अन्न उत्पादन छोड़कर फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे है। इसी मुददे को विषय बनाते हुए वाद – विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।प्रश्न 4:
हज़ारीप्रसाद दविवेदी ने इस पथ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्व – व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे है -कुटज ,आम फिर बैरा गए ,अशोक के फूल ,देवदारु आदि। शीक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढ़िए और पढ़िए ?
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।प्रश्न 5:
द्वविवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता हैं? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही हैं। तब ऐसी रचनाओं का महत्व बढ़ गया हैं। प्रकृति के प्रति आपका द्वष्टिकोण रुचिपूर्ण हैं या उपेक्षामय2 इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।भाषा की बात
प्रश्न 1:
‘दस दिन फूले और फिर खखड़-खखड़’-इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँटकर लिखें।
उत्तर –
ऐसे वाक्यांश निम्नलिखित हैं –- ऐसे दुमदारों से लैंडूरे भले।
- जो फरा सो झरा।
- जो बरा सो बुताना।
- न ऊधो का लेना, न माधो का देना।
- जमे कि मरे।
- वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या ।
Shirish ke phool/ncert-solutions-class-12-hindi-core-gadhy-bhag-shirish-ke-ful/शिरीष के फूल/हजारी प्रसाद द्विवेदी/Hazari Prasad Diwedi ke nibandhShirish ke phool/ncert-solutions-class-12-hindi-core-gadhy-bhag-shirish-ke-ful/शिरीष के फूल/हजारी प्रसाद द्विवेदी/Hazari Prasad Diwedi ke nibandhशिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है ? यह वृक्ष लेखक में किस प्रकार की भावना जनता है ? - चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें क्या प्रेरणा दे रहा हैं?
- गद्यांश में देश के ऊपर के किस बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया हैं?
- अपने देश का एक बूढ़ा कौन था ? ऊसे बूढ़े और शिरीष में समानता का आधार लेखक ने क्या मन है ?
उत्तर –
- अवधूत से तात्पर्य अनासक्त योगी से है। जिस तरह योगी कठिन परिस्थितियों में भी मस्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी, उमस में भी फूला रहता है। यह वृक्ष मनुष्य को हर परिस्थिति में संघर्षशील, जुझारू व सरस बनने की भावना जगाता है।
- चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए तथा हर परिस्थिति में मस्त रहना चाहिए।
- इस गद्यांश में देश के ऊपर से सांप्रदायिक दंगों, खून-खराबा, मार-पीट, लूटपाट रूपी बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है।
- ‘अपने देश का एक बूढ़ा’ महात्मा गांधी है। दोनों में गजब की सहनशक्ति है। दोनों ही कठिन परिस्थितियों में सहज भाव से रहते हैं। इसी कारण दोनों समान हैं।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1:
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है ?
अथवा
शिरीष की तुलना किससे और क्यों की गई हैं?
उत्तर –
कालजयी संन्यासी का अर्थ है हर युग में स्थिर और अवस्थित रहना। वह किसी भी युग में विचलित या विगलित नहीं होता। शिरीष भी कालजयी अवधूत है। वसंत के आगमन के साथ ही लहक जाता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से खिला रहता है। जब उमस हो या तेज़ लू चल रही हो तब भी शिरीष खिला रहता है। उस पर उमस या लू का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है इसलिए वह कालजयी अवधूत की तरह है।
प्रश्न 2:
“हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती हैं।” प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें?
उत्तर –
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है। मनुष्य को हृदय की कोमलता बचाने के लिए बाहरी तौर पर कठोर बनना पड़ता है तभी वह विपरीत दशाओं का सामना कर पाता है। शिरीष भी भीषण गरमी की लू को सहन करने के लिए बाहर से कठोर स्वभाव अपनाता है तभी वह भयंकर गरमी, लू आदि को सहन कर पाता है। संत कबीरदास, कालिदास ने भी समाज को उच्चकोटि का साहित्य दिया, परंतु बाहरी तौर पर वे सदैव कठोर बने रहे।
प्रश्न 3:
द्वविवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है ? स्पष्ट करें?
अथवा
द्ववेदी जी ने ‘शिरीष के फूल’ पाठ में ” शिरीष के माध्यम से कोलाहल और संघर्ष से भरे जीवन में अविचल रहकर जिंदा रहने की सिख दी है। ” इस कथन की सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
उत्तर –
लेखक ने कहा है कि शिरीष वास्तव में अद्भुत अवधूत है। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। दुख हो या सुख उसने कभी हार नहीं मानी अर्थात् दोनों ही स्थितियों में वह निर्लिप्त रहा। मौसम आया तो खिल गया वरना नहीं। लेकिन खिलने न खिलने की स्थिति से शिरीष कभी नहीं डरा। प्रकृति के नियम से वह भलीभाँति परिचित था। इसलिए चाहे कोलाहल हो या संघर्ष वह जीने की इच्छा मन में पाले रहता है।
प्रश्न 4:
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ हैं!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वचस्व की वतमान सभ्यता के सकट की अोर सकेत किया हैं। कैसे?
उत्तर –
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। आज मनुष्य में आत्मबल का अभाव हो गया है। अवधूत सांसारिक मोहमाया से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति होता है। शिरीष भी कष्टों के बीच फलता-फूलता है। उसका आत्मबल उसे जीने की प्रेरणा देता है। आजकल मनुष्य आत्मबल से हीन होता जा रहा है। वह मानव-मूल्यों को त्यागकर हिंसा, असत्य आदि आसुरी प्रवृत्तियों को अपना रहा है। आज चारों तरफ तनाव का माहौल बन गया है, परंतु गाँधी जैसा अवधूत लापता है। अब ताकत का प्रदर्शन ही प्रमुख हो गया है।
प्रश्न 5:
कवी (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का ह्रदय एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत करके लेखक ने साहित्य – कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाए।
उत्तर –
कवि या साहित्यकार के लिए अनासक्त योगी जैसी स्थित प्रज्ञता होनी चाहिए क्योंकि इसी के आधार पर वह निष्पक्ष और सार्थक काव्य (साहित्य) की रचना कर सकता है। वह निष्पक्ष भाव से किसी जाति, लिंग, धर्म या विचारधारा विशेष को प्रश्रय न दे। जो कुछ समाज के लिए उपयोग हो सकता है उसी का चित्रण करे। साथ ही उसमें विदग्ध प्रेमी का-सा हृदय भी होना ज़रूरी है। क्योंकि केवल स्थित प्रज्ञ होकर कालजयी साहित्य नहीं रचा जा सकता। यदि मन में वियोग की विदग्ध हृदय की भावना होगी तो कोमल भाव अपने-आप साहित्य में निरूपित होते जाएंगे, इसलिए दोनों स्थितियों का होना अनिवार्य है।
प्रश्न 6:
‘सवग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता हैं, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी हैं?” पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर –
लेखक का मानना है कि काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। समय परिवर्तनशील है। हर युग में नयी-नयी व्यवस्थाएँ जन्म लेती हैं।
विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंलता के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
प्रश्न:
- लेखक कालिदास को श्रेष्ट कवी क्यों मानता है ?
- आम कवि व कालिदास में क्या अंतर हैं?
- ‘शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी”-आशय स्पष्ट करें।
- दुष्यंत के खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया ?
उत्तर –
- लेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है क्योंकि कालिदास के शब्दों व अर्थों में सामंजस्य है। वे अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञता व विदग्ध प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुण आवश्यक है।
- ओम कवि शब्दों की लय, तुक व छंद से संतुष्ट होता है, परंतु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं देता है। हालाँकि स्रकालिदास कविता के बाहरी तत्वों में विशेषज्ञ तो थे ही, वे विषय में डूबकर लिखते थे।
- लेखक का मानना है कि शकुंतला सुंदर थी, परंतु देखने वाले की दृष्टि में सौंदर्यबोध होना बहुत जरूरी है। कालिदास की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही शकुंतला का सौंदर्य निखरकर आया है। यह कवि की कल्पना का चमत्कार है।
- दुष्यंत ने शकुंतला का चित्र बनाया था, परंतु उन्हें उसमें संपूर्णता नहीं दिखाई दे रही थी। काफी देर बाद उनकी समझ में आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहनाए थे, गले में मृणाल का हार पहनाना भी शेष था।
प्रश्न 7:
कालिदास सौंदर्य के बाहय आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।” फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
प्रश्न:
- कालिदास की सौंदर्य-दूष्टि के बारे में बताइए।
- कालिदास की समानता आधुनिक काल के किन कवियों से दिखाई गाई ?
- रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के सिंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं?
- फूलों या पेड़ों से हमें क्या प्रेरणा मिलती हैं?
उत्तर –
- कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि सूक्ष्म व संपूर्ण थी। वे सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके अंदर के सौंदर्य को प्राप्त करते थे। वे दुख या सुख-दोनों स्थितियों से अपना भाव-रस निकाल लेते थे।
- कालिदास की समानता आधुनिक काल के कवियों सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ टैगोर से दिखाई गई है। इन स में अनासक्त भाव है। तटस्थता के कारण ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।
- रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है कि राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही गगनचुंबी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।
- फूलों या पेड़ों से हमें जीवन की निरंतरता की प्रेरणा मिलती है। कला की कोई सीमा नहीं होती। पुष्प या पेड़ अपने सौंदर्य से यह बताते हैं कि यह सौंदर्य अंतिम नहीं है। इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है।
प्रश्न 8:
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है।
प्रश्न:
- शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है ? यह वृक्ष लेखक में किस प्रकार की भावना जनता है ?
- चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें क्या प्रेरणा दे रहा हैं?
- गद्यांश में देश के ऊपर के किस बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया हैं?
- अपने देश का एक बूढ़ा कौन था ? ऊसे बूढ़े और शिरीष में समानता का आधार लेखक ने क्या मन है ?
उत्तर –
- अवधूत से तात्पर्य अनासक्त योगी से है। जिस तरह योगी कठिन परिस्थितियों में भी मस्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी, उमस में भी फूला रहता है। यह वृक्ष मनुष्य को हर परिस्थिति में संघर्षशील, जुझारू व सरस बनने की भावना जगाता है।
- चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए तथा हर परिस्थिति में मस्त रहना चाहिए।
- इस गद्यांश में देश के ऊपर से सांप्रदायिक दंगों, खून-खराबा, मार-पीट, लूटपाट रूपी बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है।
- ‘अपने देश का एक बूढ़ा’ महात्मा गांधी है। दोनों में गजब की सहनशक्ति है। दोनों ही कठिन परिस्थितियों में सहज भाव से रहते हैं। इसी कारण दोनों समान हैं।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1:
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है ?
अथवा
शिरीष की तुलना किससे और क्यों की गई हैं?
उत्तर –
कालजयी संन्यासी का अर्थ है हर युग में स्थिर और अवस्थित रहना। वह किसी भी युग में विचलित या विगलित नहीं होता। शिरीष भी कालजयी अवधूत है। वसंत के आगमन के साथ ही लहक जाता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से खिला रहता है। जब उमस हो या तेज़ लू चल रही हो तब भी शिरीष खिला रहता है। उस पर उमस या लू का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है इसलिए वह कालजयी अवधूत की तरह है।
प्रश्न 2:
“हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती हैं।” प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें?
उत्तर –
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है। मनुष्य को हृदय की कोमलता बचाने के लिए बाहरी तौर पर कठोर बनना पड़ता है तभी वह विपरीत दशाओं का सामना कर पाता है। शिरीष भी भीषण गरमी की लू को सहन करने के लिए बाहर से कठोर स्वभाव अपनाता है तभी वह भयंकर गरमी, लू आदि को सहन कर पाता है। संत कबीरदास, कालिदास ने भी समाज को उच्चकोटि का साहित्य दिया, परंतु बाहरी तौर पर वे सदैव कठोर बने रहे।
प्रश्न 3:
द्वविवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है ? स्पष्ट करें?
अथवा
द्ववेदी जी ने ‘शिरीष के फूल’ पाठ में ” शिरीष के माध्यम से कोलाहल और संघर्ष से भरे जीवन में अविचल रहकर जिंदा रहने की सिख दी है। ” इस कथन की सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
उत्तर –
लेखक ने कहा है कि शिरीष वास्तव में अद्भुत अवधूत है। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। दुख हो या सुख उसने कभी हार नहीं मानी अर्थात् दोनों ही स्थितियों में वह निर्लिप्त रहा। मौसम आया तो खिल गया वरना नहीं। लेकिन खिलने न खिलने की स्थिति से शिरीष कभी नहीं डरा। प्रकृति के नियम से वह भलीभाँति परिचित था। इसलिए चाहे कोलाहल हो या संघर्ष वह जीने की इच्छा मन में पाले रहता है।
प्रश्न 4:
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ हैं!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वचस्व की वतमान सभ्यता के सकट की अोर सकेत किया हैं। कैसे?
उत्तर –
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। आज मनुष्य में आत्मबल का अभाव हो गया है। अवधूत सांसारिक मोहमाया से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति होता है। शिरीष भी कष्टों के बीच फलता-फूलता है। उसका आत्मबल उसे जीने की प्रेरणा देता है। आजकल मनुष्य आत्मबल से हीन होता जा रहा है। वह मानव-मूल्यों को त्यागकर हिंसा, असत्य आदि आसुरी प्रवृत्तियों को अपना रहा है। आज चारों तरफ तनाव का माहौल बन गया है, परंतु गाँधी जैसा अवधूत लापता है। अब ताकत का प्रदर्शन ही प्रमुख हो गया है।
प्रश्न 5:
कवी (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का ह्रदय एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत करके लेखक ने साहित्य – कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाए।
उत्तर –
कवि या साहित्यकार के लिए अनासक्त योगी जैसी स्थित प्रज्ञता होनी चाहिए क्योंकि इसी के आधार पर वह निष्पक्ष और सार्थक काव्य (साहित्य) की रचना कर सकता है। वह निष्पक्ष भाव से किसी जाति, लिंग, धर्म या विचारधारा विशेष को प्रश्रय न दे। जो कुछ समाज के लिए उपयोग हो सकता है उसी का चित्रण करे। साथ ही उसमें विदग्ध प्रेमी का-सा हृदय भी होना ज़रूरी है। क्योंकि केवल स्थित प्रज्ञ होकर कालजयी साहित्य नहीं रचा जा सकता। यदि मन में वियोग की विदग्ध हृदय की भावना होगी तो कोमल भाव अपने-आप साहित्य में निरूपित होते जाएंगे, इसलिए दोनों स्थितियों का होना अनिवार्य है।
प्रश्न 6:
‘सवग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता हैं, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी हैं?” पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर –
लेखक का मानना है कि काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। समय परिवर्तनशील है। हर युग में नयी-नयी व्यवस्थाएँ जन्म लेती हैं। नएपन के कारण पुराना अप्रासंगिक हो जाता है और धीरे-धीरे वह मुख्य परिदृश्य से हट जाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह बदलती परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को बदल ले। जो मनुष्य सुख-दुख, आशा-निराशा से अनासक्त होकर जीवनयापन करता है व विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेता है, वही दीर्घजीवी होता है। ऐसे व्यक्ति ही प्रगति कर सकते हैं।
प्रश्न 7:
आशय स्पष्ट कीजिए –
- दुरंत प्राणधारा और सवव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की अख बचा पाएँगे। भोले हैं वे।हिलते-डुलते रहो, स्थान बद्रलते रहो, आगे की ओर मुहं किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि सरे।
- जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया , वह भी क्या कवी है ? …. मैं कहता हूँ कि कवी बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
- फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई आँगुली हैं। वह इशारा हैं।
उत्तर –
- लेखक कहता है कि काल रूप अग्नि और प्राण रूपी धारा का संघर्ष सदा चलता रहता है। मूर्ख व्यक्ति तो यह समझते हैं कि जहाँ टिके हैं वहीं टिके रहें तो मृत्यु से बच जाएंगे लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। यदि स्थान परिवर्तन करते रहे अर्थात् जीने के ढंग को बदलते रहे तो जीवन जीना आसान हो जाता है। जीवन को एक ही ढरें पर चलोओगे तो समझो अपना जीवन नीरस हो गया। नीरस जीवन का अर्थ है मर जाना। अतः गतिशीलता ज़रूरी
- लेखक का मानना है कि कवि बनने के लिए फक्कड़ बनना ज़रूरी है। जिस कवि में निरपेक्ष और अनासक्ति भाव नहीं होते वह श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकता और जो कवि पहले से लिखी चली आ रही परंपरा को ही काव्य में अपनाता है वह भी कवि नहीं है। कबीर फक्कड़ थे, इसलिए कालजयी कवि बन गए। अतः कवि बनना है तो फक्कड़पने को ग्रहण करो।
- लेखक के कहने का आशय है कि अंतिम परिणाम का अर्थ समाप्त होना नहीं है जो यह समझता है वह निरा बुद्धू है। फल हो या पेड़ वह यही बताते हैं कि संघर्ष की प्रक्रिया बहुत लंबी होती है। इसी प्रक्रिया से गुजरकर सफलता रूपी परिणाम मिलते हैं।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1:
शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ मक की प्रचड़ गरमी में फूलने वाले फूल को ‘शीतपुष्प’ की सज्ञा किस आधार पर दी गयी होगी ?
उत्तर –
लेखक ने शिरीष के पुष्प को ‘शीतपुष्प’ कहा है। ज्येष्ठ माह में भयंकर गरमी होती है, इसके बावजूद शिरीष के पुष्प खिले रहते हैं। गरमी की मार झेलकर भी ये पुष्प ठंडे बने रहते हैं। गरमी के मौसम में खिले ये पुष्प दर्शक को ठंडक का अहसास कराते हैं। ये गरमी में भी शीतलता प्रदान करते हैं। इस विशेषता के कारण ही इसे ‘शीतपुष्प’ की संज्ञा दी गई होगी।
प्रश्न 2:
कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी जी के व्यक्तित्व की वशेषता बन गए ?
उत्तर –
गांधी जी सदैव अहिंसावादी रहे। दया, धर्म, करुणा, परोपकार, सहिष्णुता आदि भाव उनके व्यक्तित्व की कोमलता को प्रस्तुत करते हैं। वे जीवनभर अहिंसा का संदेश देते रहे लेकिन उनके व्यक्तित्व में कठोर भाव भी थे। कहने का आशय है। कि वे सच्चाई के प्रबल समर्थक थे और जो कोई व्यक्ति उनके सामने झूठ बोलने का प्रयास करता उसका विरोध करते। वे उस पर क्रोध करते। तब वे झूठे व्यक्ति को भला-बुरा भी कहते चाहे वह व्यक्ति कितने ही ऊँचे पद पर क्यों न बैठा हो। उनके लिए सत्य का एक ही मापदंड था दूसरा नहीं। इसी कारण कोमल और कठोर दोनों भाव उनके व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।
प्रश्न 3:
आजकल अंतर्राष्टीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत – से किसान सैग – सब्जी व् अन्न उत्पादन छोड़कर फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे है। इसी मुददे को विषय बनाते हुए वाद – विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 4:
हज़ारीप्रसाद दविवेदी ने इस पथ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्व – व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे है -कुटज ,आम फिर बैरा गए ,अशोक के फूल ,देवदारु आदि। शीक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढ़िए और पढ़िए ?
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 5:
द्वविवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता हैं? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही हैं। तब ऐसी रचनाओं का महत्व बढ़ गया हैं। प्रकृति के प्रति आपका द्वष्टिकोण रुचिपूर्ण हैं या उपेक्षामय2 इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।
भाषा की बात
प्रश्न 1:
‘दस दिन फूले और फिर खखड़-खखड़’-इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँटकर लिखें।
उत्तर –
ऐसे वाक्यांश निम्नलिखित हैं –
- ऐसे दुमदारों से लैंडूरे भले।
- जो फरा सो झरा।
- जो बरा सो बुताना।
- न ऊधो का लेना, न माधो का देना।
- जमे कि मरे।
- वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या ।
प्रश्न 7:
आशय स्पष्ट कीजिए –
- दुरंत प्राणधारा और सवव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की अख बचा पाएँगे। भोले हैं वे।हिलते-डुलते रहो, स्थान बद्रलते रहो, आगे की ओर मुहं किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि सरे।
- जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया , वह भी क्या कवी है ? …. मैं कहता हूँ कि कवी बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
- फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई आँगुली हैं। वह इशारा हैं।
उत्तर –
- लेखक कहता है कि काल रूप अग्नि और प्राण रूपी धारा का संघर्ष सदा चलता रहता है। मूर्ख व्यक्ति तो यह समझते हैं कि जहाँ टिके हैं वहीं टिके रहें तो मृत्यु से बच जाएंगे लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। यदि स्थान परिवर्तन करते रहे अर्थात् जीने के ढंग को बदलते रहे तो जीवन जीना आसान हो जाता है। जीवन को एक ही ढरें पर चलोओगे तो समझो अपना जीवन नीरस हो गया। नीरस जीवन का अर्थ है मर जाना। अतः गतिशीलता ज़रूरी
- लेखक का मानना है कि कवि बनने के लिए फक्कड़ बनना ज़रूरी है। जिस कवि में निरपेक्ष और अनासक्ति भाव नहीं होते वह श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकता और जो कवि पहले से लिखी चली आ रही परंपरा को ही काव्य में अपनाता है वह भी कवि नहीं है। कबीर फक्कड़ थे, इसलिए कालजयी कवि बन गए। अतः कवि बनना है तो फक्कड़पने को ग्रहण करो।
- लेखक के कहने का आशय है कि अंतिम परिणाम का अर्थ समाप्त होना नहीं है जो यह समझता है वह निरा बुद्धू है। फल हो या पेड़ वह यही बताते हैं कि संघर्ष की प्रक्रिया बहुत लंबी होती है। इसी प्रक्रिया से गुजरकर सफलता रूपी परिणाम मिलते हैं।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1:
शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ मक की प्रचड़ गरमी में फूलने वाले फूल को ‘शीतपुष्प’ की सज्ञा किस आधार पर दी गयी होगी ?
उत्तर –
लेखक ने शिरीष के पुष्प को ‘शीतपुष्प’ कहा है। ज्येष्ठ माह में भयंकर गरमी होती है, इसके बावजूद शिरीष के पुष्प खिले रहते हैं। गरमी की मार झेलकर भी ये पुष्प ठंडे बने रहते हैं। गरमी के मौसम में खिले ये पुष्प दर्शक को ठंडक का अहसास कराते हैं। ये गरमी में भी शीतलता प्रदान करते हैं। इस विशेषता के कारण ही इसे ‘शीतपुष्प’ की संज्ञा दी गई होगी।
प्रश्न 2:
कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी जी के व्यक्तित्व की वशेषता बन गए ?
उत्तर –
गांधी जी सदैव अहिंसावादी रहे। दया, धर्म, करुणा, परोपकार, सहिष्णुता आदि भाव उनके व्यक्तित्व की कोमलता को प्रस्तुत करते हैं। वे जीवनभर अहिंसा का संदेश देते रहे लेकिन उनके व्यक्तित्व में कठोर भाव भी थे। कहने का आशय है। कि वे सच्चाई के प्रबल समर्थक थे और जो कोई व्यक्ति उनके सामने झूठ बोलने का प्रयास करता उसका विरोध करते। वे उस पर क्रोध करते। तब वे झूठे व्यक्ति को भला-बुरा भी कहते चाहे वह व्यक्ति कितने ही ऊँचे पद पर क्यों न बैठा हो। उनके लिए सत्य का एक ही मापदंड था दूसरा नहीं। इसी कारण कोमल और कठोर दोनों भाव उनके व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।
प्रश्न 3:
आजकल अंतर्राष्टीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत – से किसान सैग – सब्जी व् अन्न उत्पादन छोड़कर फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे है। इसी मुददे को विषय बनाते हुए वाद – विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 4:
हज़ारीप्रसाद दविवेदी ने इस पथ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्व – व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे है -कुटज ,आम फिर बैरा गए ,अशोक के फूल ,देवदारु आदि। शीक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढ़िए और पढ़िए ?
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 5:
द्वविवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता हैं? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही हैं। तब ऐसी रचनाओं का महत्व बढ़ गया हैं। प्रकृति के प्रति आपका द्वष्टिकोण रुचिपूर्ण हैं या उपेक्षामय2 इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।
भाषा की बात
प्रश्न 1:
‘दस दिन फूले और फिर खखड़-खखड़’-इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँटकर लिखें।
उत्तर –
ऐसे वाक्यांश निम्नलिखित हैं –
- ऐसे दुमदारों से लैंडूरे भले।
- जो फरा सो झरा।
- जो बरा सो बुताना।
- न ऊधो का लेना, न माधो का देना।
- जमे कि मरे।
- वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या ।
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