veena-vadini-var-de/वर दे, वीणावादिनि वर दे/सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।
वीणावादिनि वर दे।

 

काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
वर दे , वीणावादिनि वर दे।




वीणावादिनि वर दे।……………………………………जग कर दे।

शब्दार्थ:
रव = ध्वनि,
अंध-उर = अज्ञानपूर्ण हृदय,
कलुष = मलिनता, पाप,
अमृत-मन्त्र = ऐसे मन्त्र जो अमरत्व की ओर ले जाएँ, कल्याणकारी मन्त्र।


संदर्भ- प्रस्तुत पद्यांश वीणावादिनि वर देनामक कविता से ली गई है। इस पाठ के रचयिता सुविख्यात कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ हैं।


प्रसंग-इसमें कवि ने सरस्वती माँ की वन्दना की है।


व्याख्या-कवि सरस्वती माता से प्रार्थना करता है कि हे वीणा वादिनी सरस्वती! तुम हमें वर दो और भारत के नागरिकों में स्वतन्त्रता की भावना का अमृत मन्त्र भर दो। हे माता! तुम भारतवासियों के अन्धकार से व्याप्त हृदय के सभी बन्धन काट दो और ज्ञान का स्रोत बहाकर जितने भी पाप-दोष, अज्ञानता हैं, उन्हें दूर करो और उनके हृदयों को प्रकाश से जगमग कर दो।

 

नव गति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
वर दे, वीणावादिनि वर दे।

 

नव गति, नवे ………………………………………… नव स्वर दे।

शब्दार्थ:
मन्द्ररव = गम्भीर ध्वनि,
विहग-वृन्द = पक्षियों का समूह


संदर्भ एवं प्रसंग-पूर्ववत्।


व्याख्या-कवि प्रार्थना करता है कि हे माँ सरस्वती! तुम हम भारतवासियों को नई गति, नई लय, नई ताल व नए छन्द्, नई वाणी और बादल के समान गम्भीर स्वरूप प्रदान करो। तुम नए आकाश में विचरण करने वाले नए-नए पक्षियों के समूह को नित्य नए-नए स्वर प्रदान करो। हे माँ सरस्वती! हमें ऐसा ही वर दो।