हमारा देश

इन्हीं तृण-फूस छप्पर से

ढके ढुलमुल गँवारू

झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता हैं ।

इन्ही के ढ़ोल-मादल-बांसुरी के

उमगते सुर में

हमारी साधना का रस बरसता हैं।

 

इन्हीं के मर्म को अनजान

शहरों की ढकी लोलुप

विषैली वासना का साँप डँसता है।

इन्हीं में लहरती अल्हड़

अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर

सभ्यता का भूत हँसता है।

 

 

कवि : सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय