कह दे माँ क्या अब देखूँ !


देखूँ खिलती कलियाँ या
प्यासे सूखे अधरों को,
तेरी चिर यौवन-सुषमा
या जर्जर जीवन देखूँ !

देखूँ हिम-हीरक हँसते
हिलते नीले कमलों पर,
या मुरझायी पलकों से
झरते आँसू-कण देखूँ!





सौरभ पी पी कर बहता
देखूं यह मन्द समीरण,
दुख की घूँटें पीती या
ठंडी साँसों को देखूँ !

खेलूं परागमय मधुमय
तेरी वसंत छाया में,
या झुलसे संतापों से
प्राणों का पतझर देखूँ !

मकरन्द-पगी केसर पर
जीती मधुपरियाँ ढूँढूं,
या उरपंजर में कण को
तरसे जीवनशुक देखूँ!

कलियों की घन-जाली में
छिपती देखूँ लतिकाएँ
या दुर्दिन के हाथों में
लज्जा की करूणा देखूँ !

बहलाऊँ नव किसलय के-
झूले में अलिशिशु तेरे,
पाषाणों में मसले या
फूलों से शैशव देखूँ!

तेरे असीम आंगन की
देखूँ जगमग दीवाली,
या इस निर्जन कोने के
बुझते दीपक को देखूँ !

देखूँ विहगों का कलरव
घुलता जल की कलकल में,
निस्पन्द पड़ी वीणा से
या बिखरे मानस देखूँ!

मृदु रजतरश्मियां देखूँ
उलझी निद्रा-पंखों में,
या निर्निमेष पलकों में
चिन्ता का अभिनय देखूँ!

तुझ में अम्लान हँसी है
इसमें अजस्र आंसू-जल,
तेरा वैभव देखूँ या
जीवन का क्रन्दन देखूँ