इस करुणा कलित हृदय में
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में
वेदना असीम गरजती?(1)
शीतल ज्वाला जलती हैं
ईधन होता दृग जल का
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर
करती हैं काम अनिल का।(2)
जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आयी।(3)
शशि मुख पर घूँघट डाले
अंचल में दीप छिपाये
जीवन
की गोधूलि में
कौतूहल
से तुम आये।(4)
बाँधा था विधु को किसने
इन काली जंजीरों से
मणि वाले फणियों का मुख
क्यों भरा हुआ हीरों से?(5)
अपने आँसू की अंजलि
आँखो से भर क्यों पीता
नक्षत्र पतन के क्षण में
उज्जवल होकर है जीता।(6)
चुन-चुन ले रे कन-कन से
जगती की सजग व्यथाएँ
रह जायेंगी कहने को
जन-रंजन-करी कथाएँ।(7)
इस व्यथित विश्व पतझड़ की
तुम जलती हो मृदु होली
हे अरुणे! सदा सुहागिनि
मानवता सिर की रोली।(8)
आँसू वर्षा से सिंचकर
दोनों ही कूल हरा हो
उस शरद प्रसन्न नदी में
जीवन द्रव अमल भरा हो।(9)
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